चाहतों की उलझनों का सफरनामा दर्शाता हिंदी नाटक 'खुशी की हमारी दर्द भरी तलाश'
सुरेंद्र वर्मा की इस कहानी में खुशी की अंधी तलाश में युवा नायक और नायिका को अपनी तृप्ति के लिए प्रेम, शारीरिक सुख, धन, भोग-विलास, ऐश्वर्य, यंत्र उपकरण आदि सांसारिक भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के बावजूद भी, मानसिक तृप्ता की शून्यता के पलों को दिखाया है.
हाल ही में दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियम में नाटक ‘खुशी की हमारी दर्द भरी तलाश’ देखने का मौका मिला. अनुरागना थियेटर के इस नाटक का निर्देशन किया था अशरफ अली ने और कहानी के लेखक है सुरेंद्र वर्मा.
यह नाटक आपको उस दुनिया में ले जाता है जहां यौवन की दहलीज पर संशयालु नौजवानों की महत्वाकांक्षी कामनाओं और उनकी पूर्ति की अनुपलब्धता के कारण उपजी नैराश्य परिस्थितियों के संघर्ष की गाथा है.
सुरेंद्र वर्मा की इस कहानी में खुशी की अंधी तलाश में युवा नायक और नायिका को अपनी तृप्ति के लिए प्रेम, शारीरिक सुख, धन, भोग-विलास, ऐश्वर्य, यंत्र उपकरण आदि सांसारिक भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के बावजूद भी, मानसिक तृप्ता की शून्यता के पलों को दिखाया है. सुरेंद्र वर्मा ने अपनी कहानी में आज की ज्वलंत समस्याओं के मुद्दे का बड़ा ही सूक्ष्म विश्लेषण किया है.
नाटक के मुख्य पात्र ‘मोहित’ और ‘तरंग’ की प्रेमगाथा का अंत इसका प्रारंभ उत्प्रेरक बनता है. विच्छेदन उपरांत मोहित देवदास सरीखा जीवन जी ही रहा था कि अचानक उसे इस दीनहीन अवस्था से निकलने का स्वतः बोध होता है और वह समाज में अच्छा खासा धन-साधन कमा कर अपने जैसे असफल प्रेमियों की दशा सुधारने के लिए प्रेरणा और प्रश्रय प्रदान करता है.
अतिमहत्वाकांक्षी तरंग खुशी तलाशने की राह में दुनिया के अव्वल सुख सूचकांक वाले मौज-मस्ती के देश फिनलैंड जा कर भी मानसिक अतृप्ति महसूस करती है. सब ऐश-ओ-मसर्रत के साधन के बाद भी वह नीरसता निराशा, अपूर्णता, असहायपन, दुश्चिंता वा आत्महत्या तक के दुर्भाव महसूस करती है.
तरंग एक अंतराल के बाद मोहित से मिलती है. उन दोनों के बीच अपने-अपने जीवन मनःस्थितियों का आदान-प्रदान होता है. सुख और तृप्ति के लिए ज्ञान, भक्ति और कर्म के मर्म पर वाद-विवाद होता है. निष्कर्ष में बाहरी माध्यमों द्वारा सुख प्राप्ति वाला मन एक बडे़ छेद वाली बाल्टी साबित होता है, जो कभी भरेगा ही नहीं. यह बात साबित करने के लिए मोहित सबसे साधनहीन अफ्रीका के एक देश में जा कर रहता है.
इन अति संवेदनशील भावनाओं को अपने पात्रों और साधनों द्वारा प्रस्तुत करने में निर्देशक अशरफ अली एक हद तक सफल दिखे, जब दर्शक दीर्घा में सुई की आवाज़-सी स्पष्टता वाला मौन और उसे कुछ-कुछ देर में तोड़ता करतल स्वर इस का गवाह बना.
मोहित के किरदार में अभिनेता अविनाश तोमर और तरंग के किरदार में अभिनेत्री ने इस मैलोड्रामेटिक परिस्थितियों के विभिन्न जीवन संघर्ष, समस्याओं और अंतर्द्वद्धों का कुशलता से प्रदर्शन किया है. उनकी टाइमिंग, प्रॉक्सी और कुछ संवादी अटकन को अनदेखा तो किया जा सकता है पर क्षम्य नहीं. अंतरंग संवादों में प्रॉक्सी प्राकृतिक सद्भावना भी सही भाव में नहीं देखी गई. सह कलाकार ईवा की भूमिका में प्रिया छाबा, वीवा की भूमिका में रवनीत कौर साथ ही सुजाता जैन और भारती ने अपने-अपने चरित्रों के साथ न्याय तो किया पर बेहतर की संभावना शेष है. पार्श्व मंच में सुनील चौहान की प्रकाश व्यवस्था के प्रयोंगों ने विशेष मूड उत्पन्न किए. जान्हवी की वेशभूषा और मंचसज्जा आकर्षक रही.
कुल मिलाकर नौजवानों की आकाशी महत्वाकांक्षाओं को येनकेन प्रकारेण प्राप्त करने की चेष्टा और असफल प्रारब्ध प्राप्ति में चोटिल कुंठाओं से उत्पन्न नैराश्य हीनता और डिप्रेशन का शीघ्र भाव आज के समाज की पोल खोलता-सा लगता है. नाटक का लंबा होना और अतिरेक ज्ञान बांचन इसके कमजोर तत्व हैं. फिर भी ऐसे नाटकों को देख कर एक संतुलित जीवन जीने की प्रेरणा इस नाटक की यूएसपी है.