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भारतीय जड़ी-बूटियों का मान्य औषधिकोश बना रहा डब्ल्यूएचओ

विशेषज्ञों ने बताया, कोरोना के समय आयुष मंत्रालय, जैव प्रौद्योगिकी विभाग व स्वास्थ्य मंत्रालय ने मिलकर आयुष-64 आयुर्वेदिक औषधि को विकसित किया, जिसका असर संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सबसे अधिक दिखा।

 

हजारों फुट ऊंचाई पर हिमालय रेंज में मिलने वाली जड़ी-बूटियां जल्द ही वैज्ञानिक तथ्यों के साथ पूरी दुनिया में पहचान बनाएगीं। इसके लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने हर्बल दवाओं का मान्य औषधिकोश बनाने की प्रक्रिया शुरू की है। इसमें भारत के अलावा चीन, जापान, ताइवान की पारंपरिक चिकित्सा में इस्तेमाल होने वाली औषधियां भी शामिल हैं।

डब्ल्यूएचओ का मानना है कि कोश बनने के बाद दुनिया के किसी भी देश में जड़ी-बूटियों को वैज्ञानिक तथ्यों के साथ मान्यता दिलाना आसान हो जाएगा। पणजी में चार दिवसीय विश्व आयुर्वेद कांग्रेस में डब्ल्यूएचओ के अधिकारी डॉ. गीता कृष्णन ने जानकारी दी कि अमेरिका, यूके, स्विजरलैंड सहित कई देशों में आयुर्वेद चिकित्सा शिक्षा दी जा रही है। यहां आयुर्वेद पढ़ने वाले 90% तक छात्र भारतीय मूल के नहीं है। ऐसे में यह जरूरी है कि आगामी वर्षों में इन चिकित्सकों को जड़ी बूटियों के बारे में सही और सटीक जानकारी पहुंचाने के लिए मान्य औषधिकोश का होना बहुत जरूरी है।

प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में मददगार आयुष-64 
विशेषज्ञों ने बताया, कोरोना के समय आयुष मंत्रालय, जैव प्रौद्योगिकी विभाग व स्वास्थ्य मंत्रालय ने मिलकर आयुष-64 आयुर्वेदिक औषधि को विकसित किया, जिसका असर संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सबसे अधिक दिखा। इसी तरह, मधुमेह रोगियों में बीजीआर-34, किडनी रोगियों के लिए नीरी केएफटी, एंटीबायोटिक के तौर पर फीफाट्रोल जैसी दवाएं काफी कारगर साबित हुई हैं। सुदर्शन वटी, संजीवनी वटी, गोदांती भस्म, त्रिभुवन कीर्ति रस, मृत्युंजय रस, तुलसी, कुटकी, चिरायता, मोथा, गिलोय, दारुहल्दी, करंज, अपामार्ग इत्यादि के इस्तेमाल से दवाएं तैयार हुई हैं। उन्हीं के वैज्ञानिक तथ्यों को दुनिया से साझा किया जाएगा।

केंद्रीय आयुष मंत्रालय के सचिव राजेश कोटेचा ने बताया कि कोरोनाकाल में सेवा भारती, केंद्रीय सिद्ध अनुसंधान परिषद (सीसीआरएस) और कुछ अन्य विवि के साथ मिल कर एक लाख मरीजों पर अध्ययन किया था, जिसमें पता चला कि जिन परिवारों के सदस्य उस वक्त होम आइसोलेशन में थे उनमें से किसी न किसी ने आयुष पद्धति के नुस्खे का सहारा लिया था। ऐसे 65,000 हजार मरीजों में से केवल करीब 300 मरीजों को ही उस समय अस्पताल में भर्ती करने की जरूरत पड़ी थी जो आधा फीसदी से भी कम है। जबकि उस दौर में संक्रमितों के अस्पताल में दाखिल होने की दर सात से 10 फीसदी तक थी।’
 

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