लेख

“आधुनिक भारत में पंडित जवाहरलाल नेहरू का स्मरणीय योगदान”

डॉ प्रमोद कुमार

आधुनिक भारत के निर्माण में जवाहरलाल नेहरू का योगदान अत्यंत व्यापक, दूरदर्शी और बहुआयामी है। उन्हें आधुनिक भारत का शिल्पकार इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता के तुरंत बाद एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण शुरू किया, जो लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संचालित और सामाजिक-आर्थिक समानता की दिशा में आगे बढ़ने वाला हो। स्वतंत्र भारत की कल्पना जब कागज़ पर भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं थी, जब राष्ट्र विभाजन, दंगों, आर्थिक विघटन और प्रशासनिक अराजकता के गहरे अंधकार से गुजर रहा था, तब जवाहरलाल नेहरू ने अपने अद्वितीय नेतृत्व, दृष्टि और राष्ट्र-निर्माण के प्रति समर्पण से इस नवजात राष्ट्र को संभाला। भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई के दौरान वे महात्मा गांधी के सबसे घनिष्ठ सहयोगियों में से थे, लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उनकी भूमिका किसी राजनेता से कहीं अधिक विस्तृत और निर्णायक हुई। उन्होंने न केवल आधुनिक भारत का वैचारिक स्वरूप निर्धारित किया, बल्कि वह संस्थान, नीतियाँ और विकास मॉडल गढ़ा, जिन पर भारत की आज की उन्नति टिकी हुई है। उनके योगदान को याद करना इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारतीय लोकतंत्र, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, औद्योगिक विकास, विदेश नीति, शिक्षा व्यवस्था और आधुनिकता की बुनियाद में नेहरू का चिंतन एक निरंतर धारा की तरह बहता है।

स्वतंत्रता के तुरंत बाद देश की सबसे बड़ी आवश्यकता थी—एक स्थिर राजनीतिक ढाँचा, एक ऐसी व्यवस्था जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित हो। नेहरू के नेतृत्व में पहला बड़ा कार्य था लोकतांत्रिक संरचना का निर्माण। प्रधानमंत्री के रूप में नेहरू ने एक अत्यन्त अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। उनकी सत्ता में अपार शक्ति थी, परंतु उन्होंने कभी लोकतांत्रिक संस्थाओं को चुनौती देने का प्रयास नहीं किया। संसद, न्यायपालिका, प्रेस और चुनाव आयोग को उन्होंने जानबूझकर स्वायत्त रखा ताकि लोकतंत्र की जड़ें गहरी हों। उनका मानना था कि कोई भी देश तभी विकसित हो सकता है, जब जनता अपने विचारों को स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सके और सत्ता का स्थानांतरण शांतिपूर्ण तरीके से चुनावों द्वारा हो। नेहरू के इसी दृष्टिकोण का परिणाम है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा और सफल लोकतंत्र बनने में सक्षम हुआ। यदि स्वतंत्रता के बाद भारत में कोई तानाशाही मॉडल अपनाया जाता या सत्ता केंद्रीकरण का मार्ग चुना जाता, तो शायद आज भारत का स्वरूप बिल्कुल अलग होता।

लेकिन लोकतंत्र केवल राजनीतिक व्यवस्था का प्रश्न नहीं था; वह सामाजिक-आर्थिक विकास पर भी निर्भर करता था। भारत की अर्थव्यवस्था उस समय कृषि-प्रधान, पिछड़ी, संसाधनों से लगभग रिक्त और उद्योग रहित थी। नेहरू ने इसे समझा और देश के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल चुना। यह मॉडल न तो पूँजीवाद की पूरी स्वेच्छाचारिता स्वीकार करता था, न ही पूर्ण समाजवाद की कठोरता। इसमें सार्वजनिक क्षेत्र को आधारभूत और भारी उद्योगों की जिम्मेदारी दी गई, जबकि निजी क्षेत्र को अन्य क्षेत्रों में काम करने की अनुमति मिली। इस मॉडल के तहत देश में बड़े-बड़े सार्वजनिक उपक्रम स्थापित हुए—स्टील प्लांटों से लेकर मशीन टूल फैक्ट्रियों तक और ऊर्जा परियोजनाओं से लेकर सिंचाई बांधों तक। भाखड़ा-नांगल, दामोदर घाटी निगम, हिराकुंड बांध जैसे “आधुनिक भारत के तीर्थ” नेहरू की इसी दृष्टि की परिणति हैं। उन्होंने यह महसूस किया था कि किसी भी पिछड़े देश को विकास की राह पर लाने के लिए भारी उद्योग और आधारभूत ढाँचे का सुदृढ़ होना आवश्यक है। भारत आज जिस औद्योगिक शक्ति के रूप में उभर रहा है, उसकी प्राथमिक नींव इन्हीं परियोजनाओं पर टिकाई गई थी।

नेहरू के राष्ट्र-निर्माण की सबसे विशिष्ट पहचान उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण था। वे विज्ञान और तर्क को आधुनिकता की आत्मा मानते थे। उनके विचार में भारत के उत्कर्ष का मार्ग प्रौद्योगिकी, अनुसंधान और नवाचार से होकर गुजरता है। अपनी इसी दूरदर्शी सोच के आधार पर उन्होंने विज्ञान और उच्च तकनीकी शिक्षा के लिए वे संस्थान स्थापित किए, जिनका प्रभाव आज भी दिखाई देता है। भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (IITs), अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS), वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR), परमाणु ऊर्जा आयोग, भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (BARC), अंतरिक्ष कार्यक्रम की प्रारंभिक नींव—ये सब नेहरू की वैज्ञानिक दृष्टि की अमर धरोहरें हैं। वे जानते थे कि यदि भारत को विश्व में सम्मानजनक स्थान पाना है, तो उसे विज्ञान में आत्मनिर्भर होना होगा। भारत का अंतरिक्ष अभियान, परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम और तकनीकी अध्ययन की उत्कृष्ट परंपरा, इन सभी की जड़ें नेहरू काल तक पहुँचती हैं।

लेकिन आधुनिक भारत केवल औद्योगिक और वैज्ञानिक प्रगति से नहीं बन सकता था। उसे सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक बहुलता और धर्मनिरपेक्षता की आवश्यकता थी। विभाजन की विभीषिका ने भारतीय समाज को गहरे घाव दिए थे। ऐसे समय में नेहरू ने भारत की धर्मनिरपेक्ष नींव को अत्यन्त संवेदनशीलता के साथ स्थापित किया। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारत न किसी एक धर्म का राष्ट्र है, न किसी संप्रदाय का—बल्कि यह अनेक धर्मों, भाषाओं और संस्कृतियों का साझा घर है। नेहरू भारतीय बहुलतावाद के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने यह संदेश बार-बार दिया कि भारत की शक्ति उसकी विविधता में निहित है। इसी सोच के कारण आज भारतीय संविधान का धर्मनिरपेक्ष चरित्र इतना मजबूत है। उन दिनों जब पाकिस्तान एक धर्म आधारित राष्ट्र के रूप में अपना राजनीतिक ढाँचा बना रहा था, नेहरू ने भारत को एक लोकतांत्रिक, बहुसांस्कृतिक और धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र के रूप में स्थापित किया।

विदेश नीति के क्षेत्र में नेहरू की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। शीत युद्ध का समय था। विश्व अमेरिका और सोवियत संघ के दो शक्तिशाली ध्रुवों में बाँटा गया था। ऐसे समय में अधिकांश नवस्वतंत्र राष्ट्र या तो किसी एक शक्ति के साथ खड़े हो रहे थे या उनके प्रभाव में आ रहे थे। लेकिन नेहरू ने भारत के लिए स्वतंत्र विदेश नीति चुनी। वे राष्ट्रीय संप्रभुता और स्वतंत्र निर्णय क्षमता के पक्षधर थे। इसी सोच से जन्म हुआ गैर-निर्गुट आंदोलन (Non-Aligned Movement) का। युगांडा, मिस्र, इंडोनेशिया आदि देशों के नेताओं के साथ मिलकर वे वैश्विक शांति और सहयोग के बड़े प्रतीक बने। नेहरू की विदेश नीति ने भारत को विश्व राजनीति में एक संतुलित, नैतिक और स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में प्रतिष्ठा दिलाई। उन्होंने उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद और नस्लवाद के विरुद्ध भी मजबूत आवाज उठाई। यह भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि को व्यापक सम्मान दिलाने वाला कदम था।

नेहरू की शिक्षा नीति भी अत्यंत महत्वपूर्ण थी। वे शिक्षा को समाजिक परिवर्तन और विकास का आधार मानते थे। स्वतंत्रता के बाद भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा निरक्षर था। उच्च शिक्षा संसाधन भी अत्यंत सीमित थे। नेहरू ने प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक संस्थागत विकास को प्रोत्साहित किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) को मजबूत किया गया, नए विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई, और वैज्ञानिक अनुसंधान पर विशेष बल दिया गया। बच्चों के लिए उन्होंने ‘बाल भवन’, ‘नेशनल यूथ फोर्स’ और कई रचनात्मक गतिविधियों की शुरुआत कराई। वे बच्चों को देश का भविष्य मानते थे और उन्हें वैज्ञानिक सोच, रचनात्मकता और आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर देखना चाहते थे। यही कारण है कि उनका जन्मदिन ‘बाल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

भारत की सांस्कृतिक चेतना और आधुनिकता के समन्वय में भी नेहरू का योगदान उल्लेखनीय है। वे आधुनिक विचारों के समर्थक थे, परंतु यह आधुनिकता किसी भी प्रकार से भारतीय संस्कृति या विरासत के विरोध में नहीं थी। उन्होंने भारतीय कला, साहित्य, इतिहास और पुरातत्व को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए संस्थागत ढांचे बनाए—जैसे राष्ट्रीय संग्रहालय, साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी आदि। उनके विचार में किसी भी आधुनिक राष्ट्र का निर्माण तभी संभव है, जब वह अपनी सांस्कृतिक जड़ों को संजोकर रखे। इसलिए नेहरू का विकास मॉडल एक समग्र मॉडल था—जो विज्ञान, तकनीक और आधुनिकता को अपनाते हुए भी सांस्कृतिक धरोहर की रक्षा करता था।

नेहरू का सबसे महत्वपूर्ण और स्थायी योगदान यह था कि उन्होंने भारत के लिए एक दीर्घकालिक दृष्टि—एक Vision—तैयार की। यह दृष्टि तत्कालीन चुनौतियों से आगे की सोच रखती थी। वे जानते थे कि भारत को गरीबी, अशिक्षा, कुपोषण, जातिवाद, साम्प्रदायिकता और आर्थिक पिछड़ेपन से मुक्त होने में समय लगेगा। इसलिए उन्होंने आवश्यक संस्थान, नीतियाँ और दिशा निर्धारित की, जिनके परिणाम आने में दशकों लगने थे। नेहरू का राष्ट्र-निर्माण किसी अल्पकालिक राजनीतिक लाभ का कार्यक्रम नहीं था, बल्कि यह एक पीढ़ीगत परियोजना थी। आज भारत की सफलता—उसकी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, लोकतांत्रिक स्थिरता, अंतरराष्ट्रीय स्थिति और औद्योगिक विकास—इन सब पर नेहरू की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। नेहरू ने भारतीय समाज में आधुनिक चेतना का संचार किया। वे जीवनभर अंधविश्वास, कट्टरता, रूढ़िवादिता और धार्मिक उन्माद के विरोधी रहे। वे तर्कशीलता, मानवतावाद और उदारवादी विचारों के समर्थक थे। उनके भाषणों, लेखों और पुस्तकों से यह स्पष्ट झलकता है कि वे एक ऐसे भारत की परिकल्पना करते थे, जो न केवल आधुनिक और वैज्ञानिक हो, बल्कि मानवीय, संवेदनशील और न्यायपूर्ण भी हो। उन्होंने समय-समय पर यह चेतावनी भी दी कि यदि भारत ने वैज्ञानिक सोच को नहीं अपनाया, तो वह पुनः अज्ञानता, गरीबी और रूढ़िवाद के दलदल में फँस जाएगा। नेहरू का यह आग्रह आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना उस समय था।

नेहरू का योगदान केवल संस्थागत निर्माण तक सीमित नहीं था; उन्होंने भारतीय मानसिकता को भी बदला। स्वतंत्रता के बाद भारत को आत्मविश्वास की आवश्यकता थी। सदियों की गुलामी ने जनता को निराश, भयभीत और निरुत्साहित कर दिया था। नेहरू ने जनता में एक नए आत्मविश्वास का संचार किया—यह विश्वास कि भारतीय भी विश्व के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकते हैं। उन्होंने स्वयं आधुनिक जीवनशैली, स्वच्छता, समयबद्धता, तर्कशीलता और विचारशीलता का पालन किया। वे जनता, युवाओं और बच्चों से संवाद करते थे और उन्हें प्रेरित करते थे कि वे एक विकसित भारत के निर्माण में योगदान दें। नेहरू के विरोधी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि स्वतंत्र भारत के प्रशासनिक ढांचे को व्यवस्थित करना आसान काम नहीं था। ब्रिटिश शासन ने भारत को प्रशासनिक रूप से प्रशिक्षित अवश्य किया था, परंतु उस व्यवस्था में स्वदेशी सोच या जनकल्याण का आधार नहीं था। नेहरू ने प्रशासनिक सेवाओं को राष्ट्र-निर्माण के साधन के रूप में पुनर्गठित किया। उन्होंने योजना आयोग की स्थापना की, जिसके तहत पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश के विकास की दिशा तय की गई। यह योजना प्रणाली भारत के लिए अत्यंत लाभकारी सिद्ध हुई, क्योंकि इससे संसाधनों का वैज्ञानिक और संतुलित उपयोग संभव हुआ।

नेहरू को आलोचनाएँ भी मिलीं—विशेषकर चीन के प्रति उनकी नीति, कश्मीर मुद्दे पर उनके निर्णय और राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था के कुछ पहलुओं पर—but राष्ट्र-निर्माण का मूल्यांकन केवल एक-दो घटनाओं के आधार पर नहीं किया जा सकता। इतिहास यह स्पष्ट बताता है कि उनके नेतृत्व के बिना भारत आज जिस स्वरूप में है, वह संभव नहीं था। कोई भी राष्ट्र अपने भविष्य को संवारने के लिए जिन बुनियादी स्तंभों पर निर्भर करता है—जैसे विचारधारा, संस्थान, विज्ञान, संस्कृति, लोकतंत्र, विदेश नीति और आर्थिक संरचना—उनमें से हर एक स्तंभ पर नेहरू की अमिट छाप है। आज जब भारत डिजिटल क्रांति, तकनीकी आत्मनिर्भरता, अंतरिक्ष अनुसंधान, वैश्विक कूटनीति और औद्योगिक विकास के नए आयाम छू रहा है, तब यह समझना आवश्यक है कि इन उपलब्धियों के बीज नेहरू युग में ही बो दिए गए थे। भारत की वैज्ञानिक और संस्थागत उपलब्धियाँ किसी एक दिन की उपज नहीं थीं। वे एक लंबे विचार, प्रयास और राष्ट्रीय संकल्प का परिणाम थीं, जिसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू ने की थी। उनकी दूरदर्शिता ने भारत को विकास के उस मार्ग पर स्थापित किया, जिस पर आज भारत पूरी शक्ति से आगे बढ़ रहा है।

जवाहरलाल नेहरू का स्मरण केवल एक ऐतिहासिक नेता के रूप में नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि एक ऐसे राष्ट्र-निर्माता के रूप में किया जाना चाहिए जिसकी सोच समय से आगे और अपने युग से कहीं बड़ी थी। उन्होंने भारत को केवल स्वतंत्रता के बाद की समस्याओं से उबारने का काम नहीं किया, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए वह रास्ता भी बनाया, जिस पर चलते हुए भारत एक आधुनिक, लोकतांत्रिक, वैज्ञानिक और आत्मनिर्भर राष्ट्र बन सके। उनकी विरासत संस्थानों की रूप में, मूल्यों की रूप में और आधुनिकता की चेतना की रूप में सदैव जीवित है। इस प्रकार नेहरू का योगदान भारत की राष्ट्रीय संरचना के हर क्षेत्र में दिखाई देता है। चाहे वह राजनीति हो, समाज हो, अर्थव्यवस्था हो, विज्ञान हो, कला-संस्कृति हो या विदेश नीति—प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने ऐसी नींव रखी जो आज भी भारत की प्रगति का आधार बनी हुई है। उनके द्वारा स्थापित लोकतांत्रिक संस्थाएँ, उनका वैज्ञानिक दृष्टिकोण, उनका आर्थिक मॉडल, उनकी विदेश नीति और उनकी सांस्कृतिक दृष्टि—ये सभी आधुनिक भारत के निर्माण में मार्गदर्शक तत्व के रूप में हमेशा स्मरणीय हैं। जवाहरलाल नेहरू वह नेता थे जिनकी दृष्टि ने भारत की दिशा निर्धारित की, और उनका योगदान आज भी राष्ट्र की प्रगति के केंद्र में विद्यमान है। जवाहरलाल नेहरू का योगदान सिर्फ किसी प्रधानमंत्री का काम नहीं, बल्कि एक राष्ट्र-निर्माता की दृष्टि का परिणाम था। उन्होंने एक ऐसे भारत की कल्पना की—
जो वैज्ञानिक सोच वाला हो, लोकतांत्रिक मूल्यों पर चलता हो, सामाजिक-आर्थिक न्याय की दिशा में अग्रसर हो, और विश्व मंच पर सम्मानित भूमिका निभाए।
आज भारत की अनेक संस्थाएँ, नीतियाँ और विकास के मार्ग नेहरू की दूरदृष्टि की अमिट छाप लिए हुए हैं। उनके योगदान का महत्व इसलिए भी स्मरणीय है क्योंकि उन्होंने एक शून्य से उभरते देश को आधुनिकता और प्रगतिशीलता की राह पर आगे बढ़ाया।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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