श्राद्ध परंपरा एक धर्मशास्त्रीय विवेचना है जो कि पितृपक्ष में श्राद्ध कर्म करने की परंपरा पुरातनकाल से चली आ रही हमारी धार्मिक आस्था ही नहीं अपितु सांस्कृतिक विरासत और कालगणना का भी यह हिस्सा रही है। वैदिक सनातन धर्म में पितृपक्ष से जुड़ी धार्मिक मान्यता के अनुसार मृत्यु के बाद मृत व्यक्ति का श्राद्ध करना बहुत आवश्यक होता है। यदि मृत व्यक्ति का श्राद्ध न किया जाए तो मरने वाले व्यक्ति की आत्मा को शांति और मुक्ति नहीं मिलती है। धर्म शास्त्र के अनुसार पितृ पक्ष में दान का बहुत महत्त्व है। जिससे पितरों की आत्मा को सन्तुष्टि मिलती है और पितृ दोष खत्म हो जाते हैं। जिसमें गाय, तिल, भूमि, नमक, घी गुड़, अनाज सोने के आभूषण, वस्त्र इत्यादि दान करने की परंपरा है। मान्यता यह भी है कि पितृपक्ष के दौरान पितरों का श्राद्ध करने से उनकी आत्मा को शांति मिलती है और वे तृप्त व प्रसन्न होने पर अपने वंशजों को धन-पुत्र और खुशहाली का आशीर्वाद भी देते हैं।
भारतीय पंचांगों के अनुसार इस साल पितृपक्ष 17 सितंबर से है। लेकिन प्रारम्भ 18 सितम्बर होकर 02 अक्टूबर को समाप्त होगा। पितृपक्ष अश्विन मास के कृष्ण पक्ष में आता है। इसकी शुरुआत पूर्णिमा तिथि से होती है,जबकि समाप्ति अमावस्या पर होती है। आमतौर पर पितृपक्ष 16 दिनों का होता है। जिस की तिथिवार श्राद्ध की स्थिति इस प्रकार है-
2024 के पितृपक्ष में श्राद्ध की तिथियां-
17 सितंबर 2024 को पूर्णिमा का श्राद्ध
18 सितंबर 2024 प्रतिपदा का श्राद्ध
19 सितंबर 2024 द्वितीया का श्राद्ध
20 सितंबर 2024 तृतीया का श्राद्ध
21 सितंबर 2024 चतुर्थी का श्राद्ध
22 सितंबर 2024 पंचमी का श्राद्ध
23 सितंबर 2024 षष्ठी, सप्तमी का श्राद्ध
24 सितम्बर 2024 अष्टमी का श्राद्ध
25 सितम्बर 2024 नवमी का श्राद्ध
26 सितम्बर 2024 दशमी का श्राद्ध
27 सितम्बर 2024 एकादशी का श्राद्ध
28 सितम्बर 2024 द्वादशी, मघा का श्राद्ध
29 सितम्बर 2024 त्रयोदशी व चतुर्दशी का श्राद्ध
30 सितम्बर 2024 त्रियोदशी श्राद्ध
01 अक्टूबर चतुर्दशी का श्राद्ध
02 अक्टूबर सर्वपितृ अमावश्या।
बात आती है कि श्राद्धकर्म का विरोध क्यों किया जाता है?
दिवंगत परिजनों का श्राद्ध क्यों किया जाता है? यह प्रश्न उतना ही पुराना है जितनी श्राद्ध परंपरा। इसके पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिए जाते हैं। कोई इस परंपरा को पूर्वजों को नमन करने का तरीका बताता है तो किसी के लिए यह एक अंधविश्वास मात्र है।
हिन्दूधर्म या सनातन वैदिक धर्म के विरोधी कुछ धार्मिक संगठन और कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी पितृपक्ष के अवसर पर किए जाने वाले श्राद्ध-तर्पण आदि धार्मिक अनुष्ठानों को अन्धविश्वास बताते हैं और इस परम्परा को ब्राह्मण वर्ग द्वारा अपने लाभ के लिए बनाई गई व्यवस्था कहते हैं।
गौरतलब है कि पश्चिमी जीवन दर्शन ‘हेडोनिजम’ में आस्था रखने वाला उपभोगवादियों का एक वर्ग आज भी अपनी अधकचरी मानसिकता के तहत भारतीय पितृपूजा का उपहास उड़ाता आया है और इस व्यवस्था के लिए ब्राह्मणों को दोषी सिद्ध करता है। भारत में ऐसी सोच के नास्तिक ‘चार्वाक’ या लोकायतिक के रूप में जाने जाते रहे हैं। चार्वाक न तो वेदों को प्रमाण मानते हैं और न ही हिन्दू धर्मशास्त्रों को। इस विचारधारा के लोगों का मानना है कि जब तक जीयो तब तक सुखपूर्वक रहो। दूसरों से कर्जा लेकर भी घी पीयो। परलोक, पुनर्जन्म और आत्मा-परमात्मा जैसी सब बातें इनके लिए अन्धविश्वास कहलाती हैं। भला जो शरीर मरने के बाद भस्मीभूत हो गया हो, उसके पुनर्जन्म का सवाल ही कहां उठता है? तीनों वेदों के रचयिता तो धूर्त प्रवृत्ति के भांड और निशाचर थे। चार्वाकों का मत है कि आत्मा-परमात्मा, स्वर्ग-नर्क, पाप-पुण्य जैसी सभी धार्मिक मान्यताएं भी अन्धविश्वास से प्रेरित हैं-
“यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य
पुनरागमनं कुतः ।।
त्रयो वेदस्य कर्तारो
भण्डधूर्तनिशाचराः ।।”
मैंने पितृपक्ष के बारे में पहले भी कई लेखों में वैदिक प्रमाणों का साक्ष्य देते हुए यह बतलाने का प्रयास किया है कि वैदिक धर्म में श्राद्ध की अवधारणा मात्र एक धार्मिक मान्यता नहीं और न ही ब्राह्मणों द्वारा अपने लाभ के लिए बनाई गई व्यवस्था है बल्कि श्राद्ध अथवा पितृपूजा सूर्य के संवत्सर चक्र‚चन्द्रमा के नक्षत्र विज्ञान और कर्म सिद्धान्त की मान्यताओं पर आधारित एक ब्रह्माण्ड दर्शन से उभरा चिंतन है। इसका उपहास उड़ाना भारतीय धर्म दर्शन का मजाक उड़ाना है।पुनर्जन्म के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा एक शरीर को छोड़कर दूसरे नवीन शरीर को धारण कर लेती है। किन्तु पिण्डदान देने की मान्यता यह बतलाती है कि पूर्वजों की मृतात्माएं पचास या सौ वर्षों के बाद भी वायु में सन्तरण करते हुए चावल के पिण्डों की सुगन्ध को अपने वायव्य शरीर द्वारा ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। मत्स्यपुराण में ऐसी ही जिज्ञासा का उत्तर देते हुए कहा गया है कि वह भोजन जिसे श्राद्ध में आमन्त्रित ब्राह्मण खाता है अथवा जो अग्नि में डाला जाता है वह पितरों के पास पहुंच जाता है। क्योंकि नाम और गोत्र के साथ उच्चारित मन्त्र श्रद्धा भाव से दी गई आहुतियों या वस्तुओं को संकल्पित पितरों के पास पहुंचा देते हैं। यदि किसी के पितर अपने अच्छे कर्मों के कारण देवता हो गए हैं तो उनके लिए श्राद्ध भोजन अमृत हो जाता है। यदि वे अपने बुरे कर्मों के कारण दैत्य या असुर हो गए हैं तो उन्हें श्राद्ध के अवसर पर दिया गया भोजन आनन्द प्राप्त कराता है। यदि वे पशु हो गए हैं तो वही भोजन घास के रूप में उन्हें तृप्त करता है और यदि वे अपने क्रूर कर्मों के कारण सर्प बन गए हैं तो श्राद्ध भोजन वायु बन कर उनकी सेवा करता है।
दरअसल, हिन्दू धर्म में पितरों का श्राद्ध करने की परम्परा उतनी ही प्राचीन है जितना प्राचीन वैदिक धर्म है। इसे पौराणिकों की कपोल कल्पना कहना भी अयुक्तिसंगत है। ऋग्वेद में श्राद्ध के देवता ‘श्रद्धा’ की स्तुति की गई है। श्राद्ध के अवसर पर बोला जाने वाला मंत्र ‘मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः’ भी ऋग्वेद (1.90.6) का ही एक मंत्र है जिसका पिंड दान करते हुए उच्चारण करने पर पितर जन तृप्ति को प्राप्त करते हैं। तैत्तिरीय संहिता में भी देवऋण‚ ऋषिऋण के साथ साथ पितृऋण चुकाने का भी उल्लेख आया है। छान्दोग्योपनिषद् के अनुसार देवताओं के समान ही पितृगण भी इस ब्रह्माण्ड व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं इसलिए उन्हें ‘स्वधा’ अर्थात् जल तर्पण देने का विशेष विधान किया गया है- ‘स्वधा पितृभ्यः।’ (छान्दो- 2.22.2)
श्राद्ध विषयक वैदिक साहित्य के साक्ष्यों के अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किया जाए तो इस परम्परा को ब्राह्मणों ने अपनी सर्वार्थसिद्धि के लिए नहीं शुरु किया था बल्कि सूर्यवंश के संस्थापक मनु आदि के वंशजों ने पितरों को श्राद्ध की विधि से श्रद्धांजलि देने की परम्परा प्रारम्भ की थी। मनुवंश में ही उत्पन्न मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी सरयू प्रवेश से पहले अपने पूर्वज पितरों की पवित्र भूमि उत्तराखण्ड हिमालय स्थित ‘काषाय’ पर्वत पर देव‚ ऋषियों और पितरों का श्राद्ध-तर्पण किया था। अल्मोड़ा में ‘कलमटिया’ नामक स्थान पर वह स्थान आज भी ‘रामशिला’ के रूप में पूज्य है-
“दृश्यते भूतलेऽद्यापि पुण्ये काषायपर्वते ।
तत्र ये वैष्णवा धन्या रामपादाकिंतां शिलाम् ।
पूजयन्ति महाभागास्ते धन्या नात्र संशयः ।
सधन्यः पर्वतो ज्ञेयो यत्र रामशिला शुभा।।” –मानसखण्ड‚ 52.36–37
वाल्मीकि रामायण से ज्ञात होता है कि भगवान राम ने पक्षिराज जटायु की मृत्यु हो जाने पर उसका भी अंतिम संस्कार और श्राद्ध-तर्पण किया था। वह स्थान आज नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में स्थित ‘सर्वतीर्थ’ नाम से एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान बन गया। तो क्या धर्म के आदर्श स्वरूप मर्यादा पुरुषोत्तम राम और उनके आदर्शों पर चल कर श्राद्ध-तर्पण करने वाले उनके अनुयायियों को अंधविश्वासी कहना उचित है? इस पर भी आज के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों को गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है।
दरअसल‚ पूर्वज-पूजा के रूप में श्राद्ध की अवधारणा वैदिक चिन्तन का परिणाम है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में अग्नि से प्रार्थना की गई है कि वह शरीर दाह के उपरान्त मृतात्मा को सत्कर्मों वाले पितरों और देवताओं के लोक की ओर ले जाए (ऋ.,10.15.14) बृहदारण्यकोपनिषद् में मनुष्यों‚ पितरों और देवों के तीन पृथक् पृथक् लोक बताए गए हैं। उपनिषदों के काल से ही यह मान्यता प्रसिद्ध हो चुकी थी कि विद्या अर्थात् ज्ञानमार्ग से देवलोक की प्राप्ति होती है और कर्ममार्ग से पितरलोक मिलता है-
‘विद्यया देवलोकः’ ‘कर्मणा पितृलोकः’ -बृहदा‚1.5.16
छान्दोग्योपनिषद् में मृत्यु के उपरान्त जीवात्माओं द्वारा देवयान (उत्तरायण)और पितृयान (दक्षिणायन) इन दो मार्गों से परलोक जाने का वर्णन आया है। पितृयान के मार्ग से विभिन्न योनियों में भ्रमण करने वाली जीवात्माएं पितर कहलाती हैं और इनका मार्ग अन्धकार युक्त होता है। यही कारण है कि महालय श्राद्ध का पक्ष कृष्ण पक्ष की अंधेरी रातों में आता है। इस प्रकार वैदिक काल से ही आश्विन मास का पितृपक्ष अपने पूर्वज पितरों को श्रद्धांजलि देने तथा उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का एक वार्षिक अनुष्ठान रहा है।
16वीं शताब्दी में नन्द पंण्डित द्वारा रचित ‘श्राद्धकल्प’ नामक एक धर्मशास्त्र के ग्रन्थ में आज की तरह ही नास्तिकों द्वारा श्राद्ध-तर्पण के सम्बन्ध में उठाए गए कई प्रश्नों का उत्तर दिया गया है। श्राद्ध के विरोधियों का कथन है कि पिता आदि के लिए, जो अपने विशिष्ट कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नरक को जाते हैं या अन्य प्रकार का जीवन धारण करते हैं, उनके लिए श्राद्ध करना निरर्थक है। नन्द पंण्डित ने इनसे पूछा है–’श्राद्ध क्यों निरर्थक है?’ क्या इसलिए कि इसके सम्पादन की अपरिहार्यता के लिए कोई व्यवस्थित शास्त्रीय विधान नहीं है? या इसलिए की श्राद्ध करने से कोई फल की प्राप्ति ही नहीं होती ? या इसलिए की यह सिद्ध नहीं किया जा सकता है कि पितृगण श्राद्ध से संतुष्टि प्राप्त करते हैं? प्रथम प्रश्न का उत्तर देते हुए नन्द पंडित ने कहा है कि ऐसे अनेक शास्त्रवचन हैं जो श्राद्ध की अनिवार्यता घोषित करते हैं जैसे कहा गया है कि ‘विज्ञजनों को यथा सामर्थ्य श्राद्ध अवश्य करना चाहिए’। इसी प्रकार से विरोधियों का दूसरा तर्क भी अयुक्तिसंगत है, क्योंकि याज्ञवल्क्यस्मृति (1.269) ने दीर्घ जीवन, संतान प्राप्ति आदि श्राद्ध के अनेक फल बताए हैं। इसी प्रकार तीसरा तर्क भी स्वीकार करने योग्य नहीं है। क्योंकि श्राद्ध कृत्यों में ऐसा नहीं होता है कि केवल ‘देवदत्त’ आदि नाम वाले किसी व्यक्ति के पूर्वज ही श्राद्ध में देय पिंड,आदि को प्राप्त करते हैं और वे ही पितृ, पितामह एवं प्रपितामह शब्दों से लक्षित किये जाते हैं। प्रत्युत कहना यह चाहिए कि वे देवदत्त आदि पूर्वज वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों जैसे अधीक्षक देवताओं के सानिध्य में समवेत भाव से अभिलक्षित होते हैं।
दरअसल,ये नाम शरीरों के नाम नहीं अपितु ब्रह्मांड को संचालित करने वाले देव आत्माओं के नाम बन जाते हैं। अत: वसु आदि अधीक्षक देवतागण पुत्रों आदि द्वारा दिये गये भोजन-पान से संतुष्ट होकर उन्हें, अर्थात् देवदत्त आदि पितृजनों को संतुष्ट करते हैं और श्राद्धकर्ता को संतति, पुत्र,जीवन, सम्पत्ति आदि फल देते हैं। जिस प्रकार गर्भवती माता दोहद की इच्छा द्वारा अन्य लोगों से मधुर अन्न-पान द्वारा स्वयं सन्तुष्टि प्राप्त करती है और गर्भस्थित बच्चे को भी संतुष्टि देती है तथा दोहद, अन्न आदि देने वाले को उसका उपकारक फल देती है, वैसे ही पितृ शब्द से द्योतित पिता, पितामह एवं प्रपितामह वसुओं, रुद्रों तथा आदित्यों के रूप होते हैं और वे श्राद्ध से तर्पित होने पर मनुष्य के पितरों को संतुष्ट करते हैं (श्राद्धकल्पलता, पृ. 3-4)
‘श्राद्धकल्पलता’ ने मार्कण्डयपुराण से 18 श्लोक उदधृत किये हैं, जिनमें श्राद्ध के औचित्य तथा महत्त्व पर प्रकाश डाला गया है। कहा गया है कि जिस प्रकार बछड़ा अपनी माता को इतस्तत: फैली हुई अन्य गायों में से चुन लेता है, उसी प्रकार श्राद्ध में कहे गये मंत्र प्रदत्त भोजन को पितरों तक ले जाते हैं-
“यथा गोषु प्रनष्टासु वत्सो विन्दति मातरम्।
तथा श्राद्धेषु दत्रान्नं मंत्र: प्रापयते तु तम्।।” -मत्स्यपुराण,141.76
शास्त्रों के द्वारा पूर्वजों की आत्मशांति हेतु मनुष्य के लिए पांच महायज्ञ निर्धारित हैं, जिसमें से एक पितृयज्ञ है तथा अन्य चार हैं- ब्रह्मयज्ञ (शास्त्रों का अध्ययन), देवयज्ञ (अग्नि के माध्यम से देवताओं को आहुति देना), मनुष्ययज्ञ (सगे सम्बन्धियों को भोजन खिलाना) तथा भूतयज्ञ (सभी जीवों को भोज कराना)
जीवन, आत्मा की एक निरंतर चलने वाली अध्यात्म यात्रा है जो प्रत्येक मृत्यु के साथ अपना रूप बदलती रहती है। वह रूप मनुष्य, पशु, देव, कीट, पतंगे आदि किसी का भी हो सकता है। वैदिक कर्म सिद्धांत के अनुसार कर्मों के आधार पर ही किसी को योनि तथा लोक प्राप्त होता है। पितृलोक स्वर्ग और पृथ्वी लोक के बीच का लोक है जहां पर पिछली तीन पीढ़ियों- पिता, पितामह, प्रपितामह की हमारे पूर्वजों की आत्माएं बिना शरीर के तब तक निवास करती हैं जब तक उनके कर्म दूसरा शरीर धारण करने की अनुमति नहीं देते।यही आत्माएं अपनी मुक्ति के लिए तथा अपने अधूरे कार्यों की पूर्ति के लिए अपनी संतानों पर निर्भर करती हैं और विभिन्न तरह से उन तक पहुंचने की कोशिश करती हैं।अनेक ऐसे उदाहरण देखने में आते हैं जब मृतात्माओं की नृशंस हत्या कर दी गई हो,या किसी कारणवश उनका विधिवत अंतिम संस्कार नहीं किया गया हो तो कालान्तर में वे उत्पीड़ित आत्माएं अपने पुत्र,पौत्र आदि वंशजों के घर में भूतात्मा बन कर अपनी बन्धन मुक्ति की फरियाद करती हैं और उनके किसी परिवार के सदस्य के शरीर में प्रवेश करके अपनी भटकी हुई अवस्था का समय समय पर अहसास कराती रहती हैं, जब तक उनका अंतिम संस्कार नहीं कर दिया जाता है वे शांत होने का नाम नहीं लेती। मेरे स्वयं के अनुभव से देखने में आया है कि उत्तराखंड की देवभूमि में अनेक ऐसी उत्पीड़ित और अतृप्त पितर आत्माएं घर घर में हैं जो अपनी मुक्ति ले लिए परिवार जनों के शरीर में प्रवेश करती हैं।जगरियों द्वारा उन्हें नचाया भी जाता है। वे कई पीढ़ी पहले की व्यथाओं को बताती भी हैं। ऐसी अनेक दिवंगत आत्माएं अपने परिवार जनों के इर्दगिर्द भटकती रहती हैं।उनके परिवारजन उन्हें या तो थानवासी बना कर पूजने लगते हैं अथवा उन्हें मुक्ति दिलाने हेतु हरिद्वार में गंगा स्नान करवाया जाता है।
अपने पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं, इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म मॆं, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया, जिस पक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्घ्य समर्पित करते हैं। यदि किसी कारण से उनकी आत्मा को मुक्ति प्रदान नहीं हुई है तो हम उनकी शांति के लिए विशिष्ट कर्म करते है जिसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं। ‘ब्रह्मपुराण’ ने श्राद्ध की परिभाषा देते हुए कहा है कि ‘जो कुछ उचित काल, पात्र एवं स्थान के अनुसार उचित शास्त्रानुमोदित विधि द्वारा पितरों को लक्ष्य करके श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दिया जाता है, वह श्राद्ध कहलाता है।’-
“देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुद्दिश्य विप्रभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाह्रतम्।।”
-ब्रह्मपुराण
‘मिताक्षरा’ (याज्ञवल्क्यस्मृति 1.217) के अनुसार ‘पितरों को लक्ष्य करके उनके कल्याण के लिए श्रद्धापूर्वक किसी वस्तु का या उससे सम्बन्धित किसी द्रव्य का त्याग श्राद्ध कहलाता है।’ ‘कल्पतरु’ की परिभाषा है, ‘पितरों को उद्देश्य करके (उनके लाभ के लिए) यज्ञिय वस्तु का त्याग एवं ब्राह्मणों के द्वारा उसका ग्रहण प्रधान श्राद्धस्वरूप है।’ रुद्रधर के श्राद्धविवेक एवं श्राद्धप्रकाश ने भी मिताक्षरा के समान श्राद्ध की परिभाषा की है। याज्ञवल्क्यस्मृति (1.268) का कथन है कि पितर लोग, यथा–वसु, रुद्र एवं आदित्य, जो कि श्राद्ध के देवता हैं, श्राद्ध से संतुष्ट होकर मानवों के पूर्वपुरुषों को संतुष्टि देते हैं। याज्ञवल्क्यस्मृति का यह वचन एवं मनु (3.284) की उक्ति यह स्पष्ट करती है कि मनुष्य के तीन पूर्वज, पिता, पितामह एवं प्रपितामह क्रम से पितृ-देवों,अर्थात् वसुओं, रुद्रों एवं आदित्य के समान हैं और श्राद्ध करते समय उनको पूर्वजों का प्रतिनिधि मानना चाहिए।
श्राद्ध भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण आयाम हैं जो आत्मा की यात्रा में कहीं भी भटके अटके हुए हमारे पूर्वजों की पारलौकिक आवश्यकताओं को तर्पण पिंडदान आदि के द्वारा पूरा करता है। मनुष्य का अंतिम संस्कार हो जाने के बाद भले ही उसके स्थूल शरीर का अंत हो गया हो मगर उसके सूक्ष्म शरीर की अवस्थिति पितृलोक में बनी ही रहती है और अपने परिवार जनों से उसका पितर के रूप में सम्बन्ध भी अटूट होता है। इस वजह से पितृपक्ष में उसके परिवार जनों द्वारा श्राद्ध तर्पण करने का औचित्य भी सदा बना ही रहता है। हालांकि यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि जो लोग जीवितावस्था में अपने माता पिता का सम्मान नहीं करते वे अपने मृत माता पिता का श्राद्ध क्या करेंगे। किन्तु वास्तविकता यह है कि यदि हम अपने शास्त्रों,वेद, पुराणों में आस्था रखते हैं तो हमें चाहिए कि जिस प्रकार यज्ञ में देवलोक स्थित इंद्र,वरुण,सूर्य आदि देवताओं को हवि प्रदान की जाती है उसी तरह प्रत्येक परिवार को पितृपक्ष या अन्य अवसरों पर पितृलोक में स्थित अपने पितृजनों को पिंडदान, तर्पण आदि द्वारा तृप्त करना शास्त्रीय मर्यादा है।
भाद्रपद की पूर्णिमा से शुरु होकर आश्विन की अमावस्या तक तारामंडल की स्थिति कुछ इस प्रकार रहती है, जिससे पितर लोकों के प्रवेश द्वार खुल जाते हैं और इन आत्माओं को अपने प्रियजनों से मिलने की अनुमति मिल जाती है।इस पितृपक्ष में अपने पितृजनों के नाम से किए गए दान, यज्ञ व श्राद्ध तर्पण द्वारा यदि उन्हें उन अवांछित योनियों व लोकों के बंधनों से मुक्ति मिलती है तो हम शास्त्र सम्मत पितृऋण से भी मुक्त होते हैं।
अंत में, मैं इस पितृपक्ष में पृथ्वीलोक में आए हुए पितरदेवों से प्रार्थना करता हूं कि वे राष्ट्र के प्रदूषित वातावरण को शान्त करें तथा उनसे संचालित हमारे देश का ब्रह्मांडीय ऋतुचक्र राष्ट्र को निरोगता और खुशहाली प्रदान करे।
सभी मित्रों को पितृपक्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।
प्रोफेसर दिग्विजय कुमार शर्मा डी लिट्
शिक्षाविद, साहित्यकार,
सामाजिक कार्यकर्ता
आगरा