विकसित भारत: भारतीय ज्ञान परंपरा में संचार की पृष्ठभूमि और भूमिका का वर्तमान समय में उपयोगिता
डॉ. प्रमोद कुमार

संचार (Communication) किसी भी समाज की नींव होता है। संचार किसी भी समाज की आधारशिला होता है। प्राचीन भारत में संचार की जड़ें वेदों, उपनिषदों, महाकाव्यों, नाट्यशास्त्र, लोककथाओं, मंदिर शिल्प, नृत्य और अन्य पारंपरिक माध्यमों में गहराई से समाई हुई हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा में संचार को केवल सूचना के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे एक व्यापक सामाजिक, आध्यात्मिक और नैतिक प्रक्रिया के रूप में देखा गया। भारतीय संचार परंपरा में मौखिक, लिखित, सांकेतिक, दृश्य, नाट्यशास्त्र, संगीत, कला, योग, शिल्पकला, तथा दर्शन और पारंपरिक संचार के विभिन्न रूप मौजूद रहे हैं। इनमें से प्रत्येक रूप ने न केवल ज्ञान के प्रसार में बल्कि समाज को एकीकृत करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस लेख में हम भारतीय संचार परंपरा की पृष्ठभूमि को समझेंगे और इसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, और दार्शनिक जड़ों का विश्लेषण करेंगे। यह अध्ययन इस बात को रेखांकित करता है कि भारतीय परंपरा में संचार को किस प्रकार ज्ञान, संवाद, आध्यात्मिकता, और सामाजिक संरचना का अभिन्न अंग माना गया है और भारतीय ज्ञान परंपरा के विभिन्न पहलुओं को समझेंगे और संचार में इसकी भूमिका का विश्लेषण करेंगे।
भारतीय संचार परंपरा का ऐतिहासिक विकास
भारतीय संचार परंपरा का विकास हजारों वर्षों से हुआ है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक डिजिटल युग तक, इस परंपरा ने विभिन्न चरणों में प्रगति की है।
1. वैदिक काल और मौखिक संचार परंपरा: भारतीय संचार परंपरा की शुरुआत वैदिक काल (1500 ईसा पूर्व) में हुई, जब ज्ञान का संचरण श्रुति और स्मृति के माध्यम से किया जाता था।
2. श्रुति (श्रवण परंपरा): वैदिक ज्ञान का प्रसार गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से मौखिक रूप में किया जाता था। ऋषि-मुनियों द्वारा मंत्रों का उच्चारण और विद्यार्थियों द्वारा उन्हें याद रखना ही उस समय का प्रमुख संचार माध्यम था।
3. स्मृति (स्मरण परंपरा): रामायण, महाभारत, और पुराणों जैसी रचनाएँ इस श्रेणी में आती हैं। ये कहानियों, संवादों, और नैतिक शिक्षा के रूप में जनमानस में प्रचलित रहीं।
4. पाणिनि और भाषा विज्ञान: भाषा किसी भी संचार प्रणाली का मूल आधार होती है। संस्कृत भाषा और उसकी व्याकरणिक संरचना को विकसित करने में पाणिनि (500 ईसा पूर्व) का महत्वपूर्ण योगदान रहा। अष्टाध्यायी नामक ग्रंथ में पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण के नियमों को संगठित किया। इससे भाषा को स्पष्ट, तार्किक, और प्रभावी संचार के योग्य बनाया गया। यह भारतीय संचार परंपरा को वैज्ञानिक दृष्टिकोण देने वाला पहला ग्रंथ था।
1. भारतीय संचार परंपरा की पृष्ठभूमि
(क) मौखिक परंपरा और गुरु-शिष्य परंपरा: प्राचीन भारत में शिक्षा और संचार का प्रमुख माध्यम मौखिक परंपरा थी। भारतीय शिक्षा प्रणाली संवाद आधारित थी। गुरु-शिष्य परंपरा में शिक्षक और विद्यार्थी के बीच ज्ञान-विनिमय की प्रक्रिया प्रश्नोत्तर और तर्क-वितर्क के माध्यम से चलती थी। वेद, उपनिषद और अन्य ग्रंथों का संरक्षण श्रुति और स्मृति पर आधारित था। उदाहरण: कठोपनिषद में यम और नचिकेता का संवाद, जो आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को स्पष्ट करता है। गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ज्ञान का हस्तांतरण किया जाता था। इसमें संवाद, प्रश्नोत्तर, और विमर्श का महत्वपूर्ण स्थान था। उपनिषदों में संवादात्मक शैली अपनाई गई, जिससे जिज्ञासा और ज्ञान का विस्तार हुआ। महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों में संवाद, नीति कथाएं और कथा-संवाद का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारतीय शिक्षा प्रणाली (तक्षशिला, नालंदा) भी संवाद आधारित थी, जहाँ तर्क-वितर्क (वादा-विवादा) को विशेष महत्व दिया गया।
(ख) न्यायशास्त्र और तर्कशास्त्र में संवाद: भारतीय न्याय और तर्कशास्त्र (न्याय सूत्र, वैशेषिक सूत्र, आदि) में संचार की प्रक्रिया को अत्यंत व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया। गौतम ऋषि के न्याय सूत्र में तर्क-वितर्क की विधियों और तर्क के माध्यम से सत्य तक पहुँचने की प्रक्रिया को समझाया गया। संवाद परंपरा ने शास्त्रार्थ (तार्किक बहस) को जन्म दिया, जिससे बौद्ध, जैन, और हिंदू परंपराओं में दार्शनिक विमर्श को बढ़ावा मिला।
(ग) भाषा विज्ञान और संचार: संस्कृत व्याकरण और भाषा विज्ञान में पाणिनि का अष्टाध्यायी एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें भाषा और संचार के वैज्ञानिक नियमों को परिभाषित किया गया है। भार्तृहरि के वाक्यपदीय में स्फोट सिद्धांत दिया गया, जिसमें यह बताया गया कि शब्दों का अर्थ तभी प्रकट होता है जब उन्हें संदर्भ के अनुसार समझा जाए। न्याय सूत्र में तर्क और प्रमाण आधारित संवाद को विकसित किया गया, जो संचार की प्रभावशीलता को बढ़ाने में सहायक था।
2. नाट्यशास्त्र और संचार:
(क) भरत मुनि का नाट्यशास्त्र: भारतीय संचार परंपरा में भरत मुनि का नाट्यशास्त्र (200 ईसा पूर्व – 200 ईस्वी) अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ है। भारतीय संचार प्रणाली का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें नाट्य, संगीत, नृत्य, हाव-भाव (अभिनय) और रस सिद्धांत (रसा सिद्धांत) का विस्तार से वर्णन किया गया है। रस सिद्धांत के अनुसार, एक नाटक या प्रस्तुति का उद्देश्य दर्शकों में भावनाओं को उत्पन्न करना होता है। अभिनय को चार भागों में विभाजित किया गया: आंगिक अभिनय (शारीरिक हाव-भाव), वाचिक अभिनय (संवाद और भाषा), आहार्य अभिनय (पहनावा, श्रृंगार), सात्त्विक अभिनय (आंतरिक भाव) नाट्यशास्त्र ने न केवल नाटकों और रंगमंच को प्रभावित किया, बल्कि भारतीय सिनेमा और आधुनिक मीडिया के संचार माध्यमों को दिशा दी।
(ख) रस सिद्धांत और भाव संचार: भरत मुनि ने संचार में रस सिद्धांत को प्रतिपादित किया, जिसमें बताया गया कि कलाकार किस प्रकार विभिन्न भावों (Bhavas) को प्रस्तुत कर सकते हैं ताकि दर्शकों में विशेष अनुभूति (Rasa) उत्पन्न हो। आठ प्रमुख रस: श्रृंगार (प्रेम), हास्य (हँसी), करुण (दया), रौद्र (क्रोध), वीर (वीरता), भय (भय), बीभत्स (घृणा), अद्भुत (आश्चर्य)
3. भारतीय संचार के विविध रूप
(क) लोककथाएं और पारंपरिक कथाएँ: भारतीय समाज में ज्ञान और नैतिक मूल्यों के प्रचार के लिए लोककथाओं, पंचतंत्र, जातक कथाओं, और हितोपदेश का सहारा लिया गया। पंचतंत्र की कहानियाँ नीति और बुद्धिमत्ता से भरपूर होती थीं। जातक कथाएँ बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने का माध्यम बनीं। लोकनाट्य, कथा वाचन और भजन-कीर्तन के माध्यम से धार्मिक और नैतिक संदेश फैलाए गए।
(ख) स्थापत्य कला और मूर्तिकला के माध्यम से संचार: भारत के मंदिर, गुफाएँ और मूर्तियाँ भी संचार का महत्वपूर्ण साधन रहे हैं। अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ, कोणार्क का सूर्य मंदिर, और खजुराहो के मंदिरों में शिल्प और चित्रकला के माध्यम से कहानियाँ कही गई हैं।
(ग) योग और हस्त मुद्राएँ: योग और ध्यान में उपयोग की जाने वाली हस्त मुद्राएँ भी संचार के एक रूप में देखी जा सकती हैं। ये सांकेतिक संचार का उदाहरण हैं, जो व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक अवस्था को प्रभावित करती हैं।
4. आधुनिक संचार और भारतीय ज्ञान परंपरा
(क) गांधीजी और सत्याग्रह का संचार: महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह को एक प्रभावी संचार माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया। उनके द्वारा अपनाए गए संचार के तरीके – पत्र लेखन, भाषण, संवाद, और सत्याग्रह से दुनिया के लिए एक मिसाल बने। उन्होंने संवाद और अहिंसक संचार के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया।
(ख) भारतीय सिनेमा और नाट्य परंपरा: भारतीय फिल्में और टेलीविजन नाटकों ने नाट्यशास्त्र और लोककथाओं को अपनाया। भारतीय सिनेमा, विशेष रूप से पौराणिक और ऐतिहासिक फिल्में, भारतीय संचार परंपरा से गहराई से प्रभावित हैं। हिंदी सिनेमा की कई फ़िल्में नाट्यशास्त्र, लोककथाओं और धार्मिक ग्रंथों से प्रेरित रही हैं।
(ग) डिजिटल युग में भारतीय संचार परंपरा: आज के समय में भारतीय संचार परंपरा सोशल मीडिया, डिजिटल मीडिया और ऑनलाइन प्लेटफार्म्स के माध्यम से नए रूपों में देखी जा रही है। योग, ध्यान, और भारतीय दर्शन के विचार आज पूरी दुनिया में डिजिटल माध्यमों से फैल रहे हैं।
निष्कर्ष
भारतीय ज्ञान परंपरा में संचार को केवल सूचनाओं के आदान-प्रदान तक सीमित नहीं रखा गया, बल्कि इसे आत्मज्ञान, सामाजिक एकता, और सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के माध्यम के रूप में देखा गया।
मौखिक परंपरा, नाट्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, मूर्तिकला, लोककथाएँ, और आधुनिक मीडिया – ये सभी भारतीय संचार परंपरा के अभिन्न अंग हैं। आज, जब डिजिटल क्रांति ने संचार के स्वरूप को बदल दिया है, तब भी भारतीय संचार परंपरा अपनी प्रासंगिकता बनाए रखे हुए है। यह परंपरा आज भी प्रासंगिक बनी हुई है और भविष्य में भी मानवता को दिशा देने का कार्य करती रहेगी। भारतीय ज्ञान परंपरा की यह विशेषता रही है कि उसने संचार को केवल बाहरी स्तर पर नहीं बल्कि आंतरिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी विकसित किया। यही कारण है कि यह परंपरा आज भी प्रभावी बनी हुई है और आने वाले समय में भी मानवता को दिशा देने का कार्य करती रहेगी।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा