लेखसम्पादकीय

समरसता बनाम जाति-वास्तविकता: आरएसएस और विकसित भारत का सामाजिक द्वंद्व”

डॉ प्रमोद कुमार

21वीं सदी का भारत आर्थिक प्रगति, तकनीकी नवाचार और वैश्विक नेतृत्व की ओर अग्रसर है। सरकारें “विकसित भारत 2047” का सपना दिखा रही हैं। लेकिन इस प्रगतिशील विमर्श के केंद्र में जातिवाद की जटिल और गहराई से जमी हुई सच्चाई को अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का सामाजिक दृष्टिकोण एक केंद्रीय विषय बनकर उभरता है, क्योंकि संघ भारत के सबसे प्रभावशाली सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों में से एक है।

विकसित भारत की संकल्पना एक ऐसे राष्ट्र की परिकल्पना है, जहाँ समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय के सिद्धांत सामाजिक व्यवहार में स्थापित हों। परंतु भारत का सामाजिक ढांचा आज भी जातिगत असमानताओं से ग्रस्त है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), जो अपने को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का संवाहक मानता है, “समरसता” के माध्यम से जातिविहीन समाज के निर्माण की बात करता है। लेकिन व्यवहार में यह समरसता किस हद तक जाति-वास्तविकता से टकराती है, और यह द्वंद्व विकसित भारत के निर्माण में किस प्रकार की बाधाएं उत्पन्न करता है—इन्हीं प्रश्नों का विश्लेषण इस लेख का उद्देश्य है।

इस लेख में हम विश्लेषण करेंगे कि आरएसएस का जाति को लेकर दृष्टिकोण भारत को विकसित बनाने की राह में सहायक है या बाधक। क्या संघ जातिवाद का अंत चाहता है, या उसकी वैचारिक सीमाएँ जातिवाद के पुनरुत्थान को बल दे रही हैं? यह लेख इसी द्वंद्व को गहराई से समझने का प्रयास है।

1. जातिवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: भारत का सामाजिक यथार्थ
1.1 वर्ण व्यवस्था से जाति व्यवस्था तक
भारत में वर्ण व्यवस्था एक धार्मिक-सामाजिक अवधारणा थी, जिसे समय के साथ कठोर जाति व्यवस्था ने प्रतिस्थापित कर दिया। यह व्यवस्था जन्म पर आधारित सामाजिक असमानता को संस्थागत रूप देती है।

1.2 जातिवाद का सामाजिक प्रभाव
जाति व्यवस्था सामाजिक गतिशीलता को रोकती है, भेदभाव, छुआछूत और वंचना को जन्म देती है, संसाधनों के असमान वितरण को स्थायित्व देती है।

2. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस): संगठन की भूमिका और दृष्टिकोण
2.1 आरएसएस की स्थापना और उद्देश्य
1925 में केशव बलिराम हेडगेवार द्वारा स्थापित आरएसएस का घोषित उद्देश्य “हिंदू समाज को संगठित और जागरूक बनाना” था।

2.2 हिंदू एकता की अवधारणा
संघ का मानना है कि “हिंदू एकता” भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का आधार है। इसके लिए जातियों के बीच “समरसता” की आवश्यकता है।

3. आरएसएस का सामाजिक दर्शन: समरसता की संकल्पना
आरएसएस की सामाजिक दृष्टि में “समरसता” एक ऐसा आदर्श है जिसमें सभी जातियों, वर्णों और समुदायों को
एक साझा हिंदू पहचान के अंतर्गत देखा जाता है। संघ मानता है कि जाति प्रथा का प्राचीन स्वरूप विभाजनकारी नहीं था, बल्कि यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जो कार्य-विभाजन पर आधारित थी।

3.1 समरसता का वैचारिक मूल
आरएसएस यह कहता है कि: हिन्दू समाज में जाति नहीं, केवल वर्ण था। जाति व्यवस्था कालांतर में विकृत हुई। समाधान समरसता में है, संघर्ष में नहीं।

3.2 ‘समरसता सप्ताह’ और ‘एक कुआं, एक मंदिर, एक श्मशान’ अभियान संघ वर्षों से “समरसता सप्ताह” मनाता है और “एक कुआं, एक मंदिर, एक श्मशान” जैसे अभियान चलाता है जिससे कि समाज में एकता का वातावरण बने। परंतु इन अभियानों की प्रकृति अधिक प्रतीकात्मक और भावनात्मक रही है, जिनका ठोस प्रभाव जातिगत यथार्थ पर सीमित रहा है। आरएसएस और जाति: सतही समरसता या सामाजिक क्रांति?

3.3 ‘समरसता’ की अवधारणा आरएसएस जाति-उन्मूलन की बात न कर “समरसता” का प्रचार करता है। इसका मतलब है कि जातियाँ रहें, लेकिन वे आपस में टकराएँ नहीं।

3.4 जाति के विरुद्ध कोई निर्णायक रुख नहीं आरएसएस के मंच से कभी जाति-उन्मूलन का स्पष्ट और कठोर आह्वान नहीं हुआ। संघ की आंतरिक संरचना उच्च जातियों के वर्चस्व से युक्त है।

4. आरएसएस और ब्राह्मणवाद: एक अंतर्निहित रिश्ता
4.1 नेतृत्व और विचारधारा में ब्राह्मणिक वर्चस्व
आरएसएस के अधिकांश संस्थापक और प्रमुख विचारक ब्राह्मण रहे हैं। उनकी दृष्टि में जाति एक “प्राकृतिक सामाजिक विभाजन” है।

4.2 ब्राह्मणवाद का प्रतिरोध नहीं
संघ ने कभी ब्राह्मणवाद के विरुद्ध अभियान नहीं चलाया। इसके विपरीत, संघ शास्त्रों, परंपराओं और धार्मिक ग्रंथों को अपरिवर्तनीय मानता है, जिनमें जाति को स्वीकृति दी गई है।

5. जाति-वास्तविकता: भारतीय समाज की जटिल संरचना
भारत में जाति केवल धार्मिक अवधारणा नहीं, बल्कि एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संरचना है। यह जन्म आधारित असमानता का तंत्र है, जिसमें ऊँच-नीच, स्पर्श-निषेध, और अवसरों की असमानता अंतर्निहित है।

5.1 जाति व्यवस्था का प्रभाव
शैक्षिक अवसर: दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों को शिक्षा में भारी अवरोधों का सामना करना पड़ता है।
आर्थिक अवसर: जाति आधारित श्रम विभाजन के चलते कुछ जातियाँ आर्थिक रूप से पिछड़ी हैं।
सामाजिक अपमान: आज भी दलितों को मंदिर प्रवेश, शादी-विवाह और अन्य सामाजिक अवसरों में भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

5.2 जाति और सत्ता
जातिव्यवस्था सत्ता का भी माध्यम है। ऊँची जातियाँ प्रायः सत्ता और संसाधनों पर कब्जा रखती हैं जबकि निचली जातियाँ वंचना का शिकार होती हैं।

6. आरएसएस और जाति: वैचारिक टकराव
आरएसएस एक ओर जातिविहीन समाज की बात करता है, वहीं दूसरी ओर उसके भीतर जातिगत संरचनाएं विद्यमान हैं।

6.1 आरएसएस की नेतृत्व संरचना
अधिकांश शीर्ष पदों पर उच्च जातियों का वर्चस्व है। संगठनात्मक ढांचे में ब्राह्मणवादी वर्चस्व की आलोचना होती रही है।

6.2 जातिगत प्रश्नों पर आरएसएस का रुख
आरएसएस आरक्षण का विरोध करता रहा है, उसे “सामाजिक विषमता को बनाए रखने वाला” मानता है।
लेकिन यह दृष्टिकोण जातिगत ऐतिहासिक अन्यायों की उपेक्षा करता है।

7. समरसता बनाम सामाजिक न्याय: दो विरोधाभासी अवधारणाएं?
7.1 समरसता: सामंजस्य की सतही अवधारणा
“समरसता” का अर्थ है एकता, सहयोग और बिना संघर्ष के समाज में सामंजस्य। परंतु जब यह सामाजिक न्याय की मांगों की उपेक्षा करते हुए केवल सांस्कृतिक समानता पर बल देती है, तो यह यथास्थितिवाद का साधन बन जाती है।

7.2 सामाजिक न्याय: संघर्ष के माध्यम से परिवर्तन
सामाजिक न्याय जातिगत विशेषाधिकारों को समाप्त करने की मांग करता है।
यह आरक्षण, प्रतिनिधित्व और संसाधनों के पुनर्वितरण के माध्यम से समानता की स्थापना चाहता है।

8. आरएसएस और दलित-आदिवासी समाज: संबंधों की यथार्थता
8.1 दलितों का संघ से जुड़ाव
कुछ दलित नेताओं को संघ में शामिल कर उसे “समरस” दिखाने की कोशिश की गई है। परंतु ये प्रतिनिधित्व अधिक प्रतीकात्मक रहे हैं।

8.2 आदिवासी समाज और वनवासी कल्याण आश्रम
आरएसएस आदिवासियों को “वनवासी” कहता है, न कि “आदिवासी”। यह दृष्टिकोण उनके ऐतिहासिक अधिकारों और सांस्कृतिक पहचान को नकारने जैसा है।

9. समरसता की विफलताएं: जमीनी हकीकत के उदाहरण
9.1 मंदिर प्रवेश आंदोलन
संघ समर्थित कई मंदिरों में आज भी दलितों का प्रवेश निषेध है या विरोध होता है।

9.2 अंतरजातीय विवाह
संघ का दृष्टिकोण अंतरजातीय विवाह के प्रति सकारात्मक नहीं रहा है। जब भी कोई दलित-ऊंची जाति विवाह हुआ, तो समाज में विरोध के स्वर मुखर हुए, जिनमें संघ समर्थक वर्ग भी शामिल रहा।

9.3 गोरक्षा और जाति हिंसा
संघ से जुड़े संगठन गोरक्षा के नाम पर दलितों और मुसलमानों को निशाना बनाते रहे हैं।

10. जातिविहीन समाज के निर्माण की वास्तविक चुनौतियाँ
10.1 ब्राह्मणवाद और वर्चस्ववाद
जाति का अंत ब्राह्मणवादी वर्चस्व के अंत के बिना संभव नहीं है, परंतु संघ इसे मान्यता नहीं देता।
10.2 आरक्षण का विरोध
आरक्षण न केवल शिक्षा और नौकरियों में प्रतिनिधित्व का माध्यम है, बल्कि यह जातिगत अन्याय के प्रतिपूरक के रूप में है। संघ द्वारा इसका विरोध सामाजिक न्याय के विरुद्ध जाता है।
10.3 सांस्कृतिक समरसता बनाम बहुसांस्कृतिकता
भारत विविध संस्कृतियों का देश है। संघ समरसता के नाम पर एकरूपता लाकर बहुलतावाद को नष्ट करने का प्रयास करता है।

11. विकसित भारत का सपना: जातिवाद के बिना ही संभव
11.1 आर्थिक विकास बनाम सामाजिक न्याय
भारत की आर्थिक तरक्की तभी स्थायी हो सकती है, जब समाज के सभी वर्गों को समान अवसर और सम्मान मिले। जातिवाद इस प्रक्रिया का सबसे बड़ा बाधक है।
11.2 समावेशी राष्ट्र निर्माण की आवश्यकता
विकसित भारत का सपना केवल तकनीकी और औद्योगिक उन्नति से नहीं, बल्कि सामाजिक समावेशन से साकार होगा।

12. आरएसएस की वैचारिक परीक्षा: जातिवाद के विरुद्ध निर्णायक रुख की चुनौती
12.1 क्या संघ जातिवाद को पूरी तरह त्याग सकता है?
क्या संघ ब्राह्मणवाद की आलोचना करेगा?
क्या वह जातिगत वर्चस्व को नष्ट करने की पहल करेगा?
क्या वह आरक्षण और प्रतिनिधित्व को सकारात्मक रूप में स्वीकारेगा?
12.2 आत्म-समीक्षा की आवश्यकता
संघ को अपनी भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करना होगा। यदि वह वास्तव में समरस समाज चाहता है, तो उसे जाति को एक “दुर्भावनापूर्ण सामाजिक संरचना” मानकर उसका उन्मूलन करना होगा।

13. डॉ. आंबेडकर की चेतावनी: जातिवाद का द्वार बंद किए बिना स्वतंत्रता अधूरी
डॉ. भीमराव आंबेडकर ने कहा था: “यदि जातिवाद नहीं मिटेगा, तो भारत एक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त देश रहेगा, परंतु सामाजिक रूप से दास बना रहेगा।” आरएसएस यदि विकसित भारत के लिए प्रतिबद्ध है, तो उसे आंबेडकर की चेतावनी को गंभीरता से लेना होगा।

14. विकसित भारत के संदर्भ में यह द्वंद्व क्यों महत्वपूर्ण है?
14.1 सामाजिक पूंजी का समावेशन
जातिविहीन समाज के बिना समान अवसर नहीं मिल सकते। जब तक जाति बनी रहेगी, तब तक सामाजिक पूंजी कुछ जातियों तक ही सीमित रहेगी।
14.2 नव भारत की कल्पना और जाति का प्रश्न
विकसित भारत का अर्थ केवल आर्थिक प्रगति नहीं, बल्कि सामाजिक समानता और न्याय है। जाति का प्रश्न इसका मूल तत्व है।

15. वैकल्पिक मार्ग: समता और बौद्धिक पुनर्निर्माण
15.1 बाबासाहेब आंबेडकर का दृष्टिकोण
समरसता नहीं, समता (equality) आवश्यक है। जाति का उन्मूलन बौद्धिक, सांस्कृतिक और सामाजिक क्रांति द्वारा ही संभव है।
15.2 नवबौद्ध आंदोलन और जातिविरोधी चेतना
बौद्ध धर्म का अंगीकरण जातिवाद का दार्शनिक प्रतिरोध है। यह एक ऐसा वैकल्पिक मार्ग प्रस्तुत करता है जो जातिविहीनता की गारंटी देता है।

16. निष्कर्ष
समरसता बनाम जाति-वास्तविकता का यह द्वंद्व केवल आरएसएस की वैचारिक सीमा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण भारतीय समाज के लिए चेतावनी है कि केवल सांस्कृतिक एकता का मुखौटा पहनकर सामाजिक विषमता को ढका नहीं जा सकता। जब तक जाति का यथार्थ मौजूद है, समरसता की अवधारणा भ्रम में डालने वाली रहेगी। जातिविहीन भारत ही है विकास का आधार है। जातिवाद का अवसान केवल भाषणों और अभियानों से नहीं, बल्कि वैचारिक परिवर्तन, सामाजिक न्याय, आरक्षण की सुरक्षा, और बहुजन नेतृत्व को प्रोत्साहन से संभव है। आरएसएस यदि इन कसौटियों पर खरा नहीं उतरता, तो वह विकसित भारत के निर्माण की राह में बाधा बनकर खड़ा होगा। “जातिवाद का अवसान” भारत के विकास का आवश्यक आधार है और “जातिवाद का पुनरुत्थान” उसका विनाशकारी विकल्प। विकसित भारत का निर्माण जाति उन्मूलन और सामाजिक न्याय की ठोस नीतियों और संघर्षों से ही संभव है।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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