
भारत, जो आज “विकसित राष्ट्र” बनने की ओर अग्रसर है, तकनीकी, वैज्ञानिक और आर्थिक रूप से जितनी तेजी से प्रगति कर रहा है, उतनी ही गहराई से सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों और मानसिक संरचनाओं के स्तर पर जकड़ा हुआ है। भारतीय समाज में हिंसा के दो आयाम सदैव विद्यमान रहे हैं – एक है साक्षात (शारीरिक) हिंसा, और दूसरा है प्रतीकात्मक (मानसिक) हिंसा। गिरीश कर्नाड का प्रसिद्ध नाटक ‘बलि: द सैक्रिफाइस’ इस द्वैत को गहराई से उद्घाटित करता है। यह नाटक एक पुरातन पृष्ठभूमि में रहते हुए भी आज के सामाजिक संदर्भों से सीधा संवाद करता है। इस लेख में हम ‘बलि’ नाटक के माध्यम से मानसिक हिंसा की परतों को खोलते हुए यह विश्लेषण करेंगे कि क्यों प्रतीकात्मक हिंसा, विकसित भारत के लिए एक अधिक गूढ़ और खतरनाक चुनौती है।
1. गिरीश कर्नाड और उनका नाटक ‘बलि’: एक संक्षिप्त परिचय
1.1 लेखक की वैचारिक दृष्टि
गिरीश कर्नाड (1938–2019) भारतीय रंगमंच और सिनेमा के सबसे प्रभावशाली नाट्यकारों में गिने जाते हैं। उनके नाटक परंपरा और आधुनिकता के द्वंद्व को उद्घाटित करते हैं। ‘ययाति’, ‘तुगलक’, ‘हयवदन’, ‘नागमंडल’ और ‘बलि’ जैसे उनके नाटक भारतीय मिथकों और इतिहास को आधुनिक सामाजिक विमर्शों से जोड़ते हैं।
1.2 ‘बलि’ नाटक की कथा-संरचना
नाटक ‘बलि’ मूलतः कर्नाटक की एक जैन कथा पर आधारित है। कथा एक ऐसे राजा, रानी, एक जैन संन्यासी और एक ब्राह्मण पुजारी के इर्द-गिर्द घूमती है, जो धर्म, प्रेम, इच्छाओं और आस्था की जटिलताओं में उलझे हैं। रानी को मंदिर में बलि दिए जाने वाले जानवरों पर आपत्ति है, लेकिन सामाजिक-धार्मिक संरचना उसकी आवाज़ को दबा देती है। अंततः हिंसा के प्रतीक के रूप में नारी देह और उसकी इच्छाओं को बलि के रूप में प्रस्तुत किया जाता है – बिना रक्त बहाए, परंतु मानसिक रूप से घातक।
2. हिंसा के प्रकार: साक्षात बनाम प्रतीकात्मक
2.1 साक्षात हिंसा
साक्षात हिंसा वह है जो शारीरिक रूप से प्रत्यक्ष होती है – जैसे हत्या, बलात्कार, युद्ध, बलि देना, आदि। यह हिंसा आंखों से देखी जा सकती है, और अक्सर इसकी निंदा भी होती है।
2.2 प्रतीकात्मक या मानसिक हिंसा
प्रतीकात्मक हिंसा अधिक सूक्ष्म और घातक होती है। यह व्यक्ति की चेतना, आत्म-सम्मान, पहचान और भावनाओं को आहत करती है। इसमें धार्मिक अनुष्ठानों, भाषाओं, परंपराओं, लिंग भेदभाव, जातिवाद, पितृसत्ता आदि के माध्यम से मानसिक उत्पीड़न शामिल होता है। गिरीश कर्नाड का ‘बलि’ इस प्रतीकात्मक हिंसा को केंद्र में लाकर दिखाता है कि किस प्रकार धर्म, नैतिकता और सामाजिक मर्यादाएं मिलकर व्यक्ति की इच्छाओं और स्वतंत्रता को दबाती हैं।
3. ‘बलि’ नाटक में प्रतीकात्मक हिंसा का स्वरूप
3.1 धार्मिक हिंसा बनाम मानवता
नाटक का मुख्य द्वंद्व जैन धर्म और ब्राह्मणवादी यज्ञीय परंपरा के बीच है। रानी एक जैन अनुयायी है जो अहिंसा में विश्वास रखती है, जबकि ब्राह्मण बलि को आवश्यक धार्मिक अनुष्ठान मानता है। रानी के लिए किसी निर्दोष प्राणी की हत्या अधार्मिक है, लेकिन समाज की धार्मिक संरचना उसकी सोच को ‘अनास्था’ ठहरा देती है। यह मानसिक हिंसा है – किसी के विश्वास को नकार कर उसे ‘गलत’ ठहराना।
3.2 स्त्री देह की बलि
नाटक का सबसे मार्मिक पक्ष यह है कि अंतिम बलि किसी जानवर की नहीं, बल्कि स्त्री की इच्छाओं की दी जाती है। रानी की यौनिकता, उसकी भावनाएं, उसकी स्वतंत्रता – सब कुछ सत्ता और धर्म के यज्ञ में होम कर दी जाती हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्त्री की देह और इच्छाएं पितृसत्तात्मक समाज में केवल सत्ता के संतुलन के लिए एक ‘सांस्कृतिक बलि’ बनकर रह जाती हैं।
3.3 नपुंसकता और मानसिक बलि
राजा की यौनिक नपुंसकता (वह पत्नी को संतोष नहीं दे पाता) नाटक में एक और प्रतीकात्मक पहलू को उजागर करती है। वह इसे स्वीकारने के बजाय मानसिक कुंठा और असुरक्षा के चलते अपनी पत्नी को ही दोषी मानने लगता है। यहां भी मानसिक हिंसा का गहरा रूप प्रकट होता है – असफलता को दूसरे पर थोपना।
4. विकसित भारत में प्रतीकात्मक हिंसा के रूप
4.1 जातिवाद: मानसिक शोषण की स्थायी व्यवस्था
आधुनिक भारत में जातिगत ऊँच-नीच और अस्पृश्यता कानूनी रूप से अपराध हैं, लेकिन मानसिक स्तर पर ये व्यवस्थाएं आज भी लोगों की आत्मा को छलनी करती हैं। दलित बच्चों को स्कूलों में अलग बैठाना, विवाह के लिए जाति बाध्यता – ये सब आधुनिक प्रतीकात्मक हिंसा के रूप हैं।
4.2 लैंगिक असमानता और मानसिक बंधन
महिलाएं आज भी ‘सम्मान’, ‘मर्यादा’, ‘संस्कार’ जैसे शब्दों की बेड़ियों में जकड़ी हैं। कामकाजी महिला को ‘घर तो संभाल नहीं सकती’ कहकर मानसिक रूप से कुंठित किया जाता है। दहेज, विवाह-पूर्व प्रेम, स्वतंत्रता – सभी को ‘चरित्र’ से जोड़ कर स्त्री की मानसिक हत्या की जाती है।
4.3 धार्मिक प्रतीकवाद
धार्मिक प्रतीकों के नाम पर अल्पसंख्यकों को शक की दृष्टि से देखना, भोजन और पोशाक पर टिप्पणी करना, या ‘राष्ट्रद्रोही’ ठहराना भी मानसिक हिंसा के आधुनिक रूप हैं। इसमें प्रत्यक्ष हिंसा नहीं दिखती, पर पीड़ित को समाज में बहिष्कृत कर दिया जाता है।
4.4 भाषिक और सांस्कृतिक वर्चस्व
एक विकसित राष्ट्र में बहुभाषिकता और बहुसांस्कृतिकता को अपनाया जाना चाहिए, लेकिन हिन्दी या अंग्रेज़ी के वर्चस्व के कारण क्षेत्रीय भाषाएं और जनजातीय संस्कृतियां उपेक्षित होती हैं। यह भी एक तरह की सांस्कृतिक मानसिक हिंसा है।
5. मानसिक हिंसा क्यों है अधिक खतरनाक?
5.1 अदृश्यता
प्रतीकात्मक हिंसा अदृश्य होती है। इसे सिद्ध करना कठिन होता है, इसीलिए यह लंबे समय तक बिना रोके चलती रहती है।
5.2 पीड़ित की आत्म-संहति का विनाश
यह हिंसा व्यक्ति को अंदर से तोड़ती है। आत्म-संमान, आत्मविश्वास और अस्तित्व पर आघात करती है, जिससे व्यक्ति अवसाद, अपराधबोध या आत्महत्या की ओर भी जा सकता है।
5.3 सामूहिक मौन और सहमति
प्रतीकात्मक हिंसा अक्सर परंपरा और संस्कृति के नाम पर स्वीकृत होती है, जिससे समाज इसे सवालों के घेरे में लाना ही नहीं चाहता। गिरीश कर्नाड इसी मौन को नाटक में तोड़ते हैं।
6. समाधान की राह: विचार और परिवर्तन
6.1 आत्मचिंतन और आलोचनात्मक सोच
प्रत्येक नागरिक को अपने सोचने के तरीके पर विचार करना चाहिए – क्या वह भी अनजाने में मानसिक हिंसा का भागीदार बन रहा है?
6.2 साहित्य और कला का दायित्व
‘बलि’ जैसे नाटक समाज को आइना दिखाने का काम करते हैं। साहित्य और रंगमंच को मानसिक हिंसा के विमर्श को आगे बढ़ाना चाहिए।
6.3 शिक्षा में भावनात्मक और नैतिक बौद्धिकता
मूल्यपरक शिक्षा में मानसिक हिंसा, लिंग संवेदनशीलता, जातीय समानता और धार्मिक समरसता के मुद्दों को शामिल करना जरूरी है।
6.4 कानून से आगे संवेदनशीलता
कानून केवल बाह्य हिंसा रोक सकता है, लेकिन मानसिक हिंसा को रोकने के लिए समाज को संवेदनशील बनाना होगा।
गिरीश कर्नाड का नाटक ‘बलि’ हमें यह सिखाता है कि साक्षात हिंसा जितनी रक्तरंजित है, प्रतीकात्मक हिंसा उससे कहीं अधिक गूढ़, सूक्ष्म और दीर्घकालिक प्रभाव वाली है। एक विकसित भारत के निर्माण के लिए केवल आर्थिक, वैज्ञानिक और तकनीकी विकास पर्याप्त नहीं है। जब तक हमारे समाज में किसी की अस्मिता, पहचान, और इच्छा को धार्मिक, जातीय, लैंगिक या सांस्कृतिक कारणों से ‘बलि’ चढ़ाया जाता रहेगा – तब तक हमारा विकास अधूरा और असंवेदनशील रहेगा।
वास्तविक प्रगति वहीं है जहाँ मानवता की बलि नहीं दी जाती, बल्कि उसकी रक्षा की जाती है – चाहे वह स्त्री की हो, दलित की हो, अल्पसंख्यक की हो या किसी भिन्न विचारधारा वाले की। विकसित भारत की परिकल्पना तभी साकार होगी, जब हम न केवल साक्षात, बल्कि प्रतीकात्मक हिंसा के खिलाफ भी सामाजिक और वैचारिक आंदोलन चलाएं।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा