“वैवाहिक संस्था पर संकट: युवाओं में विवाहोत्तर अनैतिक संबंधों की बढ़ती प्रवृत्ति और दांपत्य जीवन का विघटन”
डॉ प्रमोद कुमार

मानव सभ्यता के इतिहास में विवाह एक ऐसी संस्था रही है जो सामाजिक संरचना, नैतिकता और उत्तरदायित्व की धुरी पर केंद्रित रही है। विवाह के माध्यम से न केवल दो व्यक्तियों का, बल्कि दो परिवारों और समाज का भी संगम होता है। किंतु इक्कीसवीं सदी की सामाजिक और सांस्कृतिक गतिशीलता में, विशेषकर शहरीकरण, वैश्वीकरण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बढ़ते आग्रह के बीच, इस संस्था पर अनेकानेक संकट उभरकर सामने आ रहे हैं। विवाह भारतीय समाज में केवल एक सामाजिक रिवाज नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक बंधन भी रहा है। यह संस्था जीवन की स्थिरता, उत्तरदायित्व, प्रेम और सामाजिक व्यवस्था की नींव मानी जाती रही है। किंतु बीते कुछ दशकों में, विशेषकर वैश्वीकरण और आधुनिकता की तेज़ लहरों के बीच, इस संस्था का स्वरूप और उसका महत्व तीव्रता से बदल रहा है। स्वतंत्रता की बढ़ती मांग और व्यक्तिगत इच्छाओं की प्रधानता ने विवाह के स्थायित्व और प्रतिबद्धता को चुनौती देना आरंभ कर दिया है।
वर्तमान परिदृश्य में यह देखा जा रहा है कि युवाओं के बीच विवाहोत्तर (विवाह के बाद) अनैतिक संबंधों की प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है, जिससे पारिवारिक संरचना, नैतिक मूल्यों और वैवाहिक विश्वास का ह्रास हो रहा है। यह लेख सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक कारणों की गहराई से पड़ताल करता है और यह समझने का प्रयास करता है कि आखिर क्यों आज वैवाहिक संस्था एक संकट के दौर से गुजर रही है। और साथ ही साथ लेख में विवाह संस्था के क्षरण का विश्लेषण आधुनिकता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विवाहेत्तर अनैतिक संबंधों के त्रिकोणीय संघर्ष के संदर्भ में किया गया है।
1. विवाह संस्था: परंपरा से आधुनिकता तक
1.2 आधुनिकता बनाम वैवाहिक स्थायित्व
आधुनिकता का मूल उद्देश्य वैज्ञानिक सोच, व्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक मूल्यों और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना है। लेकिन जब यह आधुनिकता सामाजिक संस्थाओं के प्रति उदासीनता बन जाए, तो वह विघटनकारी रूप ले लेती है। विवाह इस विघटन का प्रमुख शिकार हुआ है।
1.2 करियर और जीवनशैली की प्राथमिकता
आधुनिक जीवन में करियर, आत्मनिर्भरता, और व्यक्तिगत प्रगति को अत्यधिक महत्व दिया जा रहा है। युवा वर्ग विवाह को एक ‘बाधा’ की तरह देखने लगा है, जिससे उनकी गति धीमी हो सकती है। यह दृष्टिकोण विवाह के प्रति उदासीनता पैदा करता है।
1.3 विवाह को लेकर घटती गंभीरता
अब विवाह केवल एक ‘सेरेमनी’ बनकर रह गया है, जिसमें दिखावा, खर्च और तात्कालिक आकर्षण तो है, पर दीर्घकालीन समझदारी और समर्पण का अभाव है। इसलिए विवाह के कुछ वर्षों बाद ही रिश्ते में दरारें आनी शुरू हो जाती हैं।
2. व्यक्तिगत स्वतंत्रता बनाम सामूहिक उत्तरदायित्व
2.1 स्वतंत्रता की व्याख्या
वर्तमान समय में स्वतंत्रता को “कुछ भी करने की आज़ादी” के रूप में देखा जाता है, जबकि पारंपरिक भारतीय दृष्टिकोण में स्वतंत्रता का मतलब था– “कर्तव्य और संयम के भीतर रहते हुए निर्णय की स्वतंत्रता”।
2.2 स्वतंत्रता और विवाह: एक द्वंद्व
विवाह, بطور संस्था, साझेदारी और सामूहिक जिम्मेदारी की मांग करता है। इसमें “मैं” की जगह “हम” की भावना होती है। लेकिन आज की युवा पीढ़ी “स्वतंत्रता” के नाम पर “मैं” को प्राथमिकता देती है, जिससे सामंजस्य, संवाद और साझेदारी की भावना कमजोर पड़ती है।
2.3 वैचारिक टकराव
जब दोनों जीवनसाथी स्वतंत्रता की व्यक्तिगत परिभाषा के अनुसार चलने लगते हैं, तो रिश्ते में समझ, समर्पण और सामूहिकता का अभाव जन्म लेता है। यह टकराव धीरे-धीरे रिश्ते को बिखेर देता है।
2.4 पारंपरिक दृष्टिकोण
भारतीय समाज में विवाह को “धर्म” के रूप में देखा गया। यह केवल पति-पत्नी का साथ नहीं था, बल्कि एक धार्मिक और सामाजिक व्रत था, जिसमें सात फेरे सात जन्मों के बंधन का प्रतीक माने जाते थे। इसमें समर्पण, त्याग, और परस्पर कर्तव्य की भावना थी।
2.5 आधुनिक दृष्टिकोण
अब विवाह को कई लोग केवल एक “कानूनी करार” या “सोशल कॉन्ट्रैक्ट” के रूप में देखते हैं। समर्पण की जगह “स्पेस”, त्याग की जगह “स्वतंत्रता” और जीवनभर की प्रतिबद्धता की जगह “लाइव-इन” जैसी अवधारणाएं समाज में प्रवेश कर चुकी हैं। परिणामस्वरूप विवाह का आदर्शात्मक स्वरूप धूमिल होता जा रहा है।
3. सामाजिक परिप्रेक्ष्य में संकट
3.1 सामाजिक संरचना का परिवर्तन
परंपरागत भारतीय समाज सामूहिकता, परिवारवाद और नैतिक प्रतिबद्धताओं से बंधा था। संयुक्त परिवारों की व्यवस्था में सामाजिक नियंत्रण अधिक था, जिससे विवाह संबंधी उत्तरदायित्व मजबूती से निभाए जाते थे। लेकिन आज एकल परिवार, शहरी जीवनशैली और व्यक्तिगत स्वतंत्रता की प्रधानता ने इन सामाजिक नियंत्रणों को कमजोर कर दिया है।
3.2 सामाजिक मान्यताओं में परिवर्तन
आज विवाह केवल एक सामाजिक बंधन नहीं, बल्कि एक ‘कॉन्ट्रैक्ट’ जैसा देखा जाने लगा है, जिसमें सुविधाएं और सहूलियतें अधिक मायने रखती हैं। इससे विवाह का आदर्शवादी स्वरूप कहीं खो गया है।
3.3 सोशल मीडिया और तकनीकी हस्तक्षेप
सोशल मीडिया, डेटिंग एप्स और इंटरनेट की सर्वसुलभता ने सामाजिक संबंधों की गहराई को छिन्न-भिन्न कर दिया है। लोग अब आभासी दुनिया में भावनात्मक संबंध खोजते हैं जो अक्सर विवाहेत्तर अनैतिक संबंधों की ओर ले जाते हैं।
4. सांस्कृतिक दृष्टिकोण से विश्लेषण
4.1 सांस्कृतिक संक्रमण
भारतीय संस्कृति जो त्याग, समर्पण और संयम पर आधारित थी, अब पश्चिमी भोगवादी संस्कृति से प्रभावित हो रही है। फिल्मों, वेब सीरीज और सोशल मीडिया में विवाहेत्तर संबंधों को ‘नॉर्मलाइज’ करने की प्रवृत्ति विवाह संस्था को कमजोर बना रही है।
4.2 विवाह की पवित्रता का क्षरण
संस्कृति का मूल आधार विवाह को एक पवित्र संबंध मानता था, किंतु आज इसे एक समझौता या सुविधा-आधारित रिश्ता मानने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। विवाह की आध्यात्मिक और नैतिक व्याख्या अब बहुत कम हो रही है।
4.3 लिव-इन संस्कृति और विवाह-विरोधी विमर्श
पश्चिमी प्रभाव के कारण लिव-इन संबंधों को स्वीकार्यता मिल रही है, जो विवाह के प्रति युवाओं के दृष्टिकोण को कमजोर करता है। इससे विवाह की अनिवार्यता पर सवाल खड़े होने लगे हैं।
5. आर्थिक कारणों का प्रभाव
5.1 आर्थिक स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता
पुरुषों और महिलाओं — दोनों की आर्थिक स्वतंत्रता ने वैवाहिक संरचना में शक्ति संतुलन को बदल दिया है। विशेषतः महिलाओं की आत्मनिर्भरता उन्हें अनैतिक संबंधों से बाहर निकलने या उनमें प्रवेश करने की “हिम्मत” देती है — चाहे यह सही हो या गलत।
5.2 भौतिकवाद और उपभोक्तावाद
भौतिक सुख-सुविधाओं की चाहत और आर्थिक असमानताएं भी विवाह में तनाव का कारण बनती हैं। जब एक पक्ष अपेक्षित जीवनशैली न दे पाए तो दूसरा पक्ष विवाहेत्तर संबंधों की ओर आकर्षित हो सकता है।
5.3 करियर प्राथमिकता बनाम वैवाहिक दायित्व
आज की पीढ़ी करियर को प्राथमिकता देती है, जिससे पारिवारिक और वैवाहिक दायित्व पीछे छूट जाते हैं। करियर तनाव, दूरियां और समय की कमी भी विवाह के टूटने के कारण बनते हैं।
6. मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
6.1 भावनात्मक असंतुलन और असंतोष
कई बार विवाह के बाद भावनात्मक असंतोष उत्पन्न होता है। यदि जीवनसाथी से अपेक्षित भावनात्मक सहयोग न मिले तो व्यक्ति बाहर किसी तीसरे में वह संतुलन खोजने की कोशिश करता है।
6.2 यौन असंतोष और आकर्षण
मानव स्वभाव में यौन संतुष्टि की आवश्यकता प्रमुख होती है। यदि विवाह में यह संतोष न मिले तो व्यक्ति विवाहेत्तर संबंधों में अपनी इच्छाओं की पूर्ति खोजता है।
6.3 आत्म-केन्द्रित मानसिकता
“मैं सबसे पहले” की मानसिकता आज के युवा वर्ग में सामान्य हो चली है। त्याग, समर्पण और समझौते जैसे शब्द अब कमजोर प्रतीत होते हैं, जिससे रिश्ते टूटने लगते हैं।
6.4 अकेलापन और मानसिक अवसाद
कार्य स्थल का तनाव, अकेलापन, भावनात्मक शून्यता और अवसाद भी लोगों को भावनात्मक रूप से भटकने पर मजबूर कर देता है। इसका परिणाम विवाहेत्तर संबंधों में दिखता है।
7. विवाह संस्था का विखंडन: परिणाम और प्रभाव
7.1 पारिवारिक विघटन
विवाह संस्था के विघटन से सबसे बड़ा नुकसान बच्चों को होता है। टूटा हुआ परिवार एक अस्थिर सामाजिक इकाई बन जाता है।
7.2 नैतिकता का पतन
विवाह संस्था के पतन से समाज में नैतिकता का ह्रास होता है, जो दीर्घकाल में सामाजिक अव्यवस्था और अराजकता को जन्म देता है।
7.3 आत्महत्या और मानसिक रोग
टूटे हुए विवाह, विवाहेत्तर संबंधों का खुलासा, सामाजिक अपमान और भावनात्मक आघात कई बार आत्महत्या, डिप्रेशन और मानसिक विकारों में बदल जाते हैं।
7.4 सामाजिक अस्थिरता
जब विवाह संस्था पर से विश्वास उठता है, तो समाज में संबंधों की परिभाषा ही अस्थिर हो जाती है। इससे सामाजिक ढांचा कमजोर होता है।
7.5 बढ़ते तलाक
भारत जैसे देश में जहां कभी तलाक को सामाजिक कलंक माना जाता था, आज महानगरों में तलाक दरें लगातार बढ़ रही हैं। यह विवाह संस्था की अस्थिरता को दर्शाता है।
7.6 बच्चों पर दुष्प्रभाव
टूटते हुए विवाहों का सबसे बड़ा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। वे भावनात्मक असुरक्षा, अवसाद और असामाजिक प्रवृत्तियों के शिकार हो सकते हैं।
7.6 सामाजिक विघटन
यदि विवाह संस्था स्थिर नहीं रहती, तो समाज में पारिवारिक इकाई बिखर जाती है। इससे सामाजिक उत्तरदायित्व, नैतिकता और अनुशासन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
8. समाधान की दिशा में प्रयास
8.1 नैतिक शिक्षा और मूल्य आधारित जीवन
विद्यालय और परिवार में नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए, जिसमें विवाह, रिश्ते, त्याग और विश्वास जैसे मूल्यों पर ज़ोर हो।
8.2 विवाह पूर्व परामर्श और प्रशिक्षण
विवाह से पहले युगलों को विवाह के दायित्व, चुनौतियों और समझौतों की वास्तविक जानकारी दी जाए। इससे विवाह के प्रति तैयारी और गंभीरता बढ़ेगी।
8.3 सोशल मीडिया की नैतिक निगरानी
फिल्मों, वेब सीरीज और सोशल मीडिया में विवाहेत्तर संबंधों को “ग्लोरिफाई” करने पर नैतिक अंकुश लगाया जाना चाहिए।
8.4 दांपत्य में संवाद और विश्वास का निर्माण
पति-पत्नी के बीच खुले संवाद, भावनात्मक जुड़ाव और विश्वास का वातावरण बनाना आवश्यक है। समस्याएं होने पर थैरेपी और परामर्श से सहायता ली जाए।
9. समाधान और पुनर्संरचना की दिशा
9.1 मूल्यपरक शिक्षा और विवाह का उद्देश्य
युवाओं को विवाह के वास्तविक उद्देश्य – प्रेम, सहयोग, उत्तरदायित्व और त्याग – के बारे में मूल्यपरक शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा केवल डिग्री तक सीमित न हो, बल्कि रिश्तों की समझ भी दे।
9.2 विवाह पूर्व परामर्श
युगलों को विवाह से पहले परामर्श और संवाद के अवसर दिए जाएं, जिससे वे एक-दूसरे की अपेक्षाओं और सीमाओं को समझ सकें।
9.3 मीडिया की नैतिक जिम्मेदारी
फिल्मों, धारावाहिकों और डिजिटल मीडिया को विवाह संस्था के प्रति जिम्मेदार रवैया अपनाना चाहिए। विवाहेत्तर संबंधों को ‘फैशन’ की तरह दिखाना सामाजिक अनैतिकता को बढ़ावा देता है।
9.4 समाज और परिवार की भूमिका
परिवारों को विवाह को केवल ‘संस्कार’ न मानकर एक उत्तरदायित्व के रूप में भी देखना चाहिए, जहां दो लोगों को समर्पण, संवाद और सह-अस्तित्व के साथ जीने के लिए मार्गदर्शन मिले।
विवाह संस्था का क्षरण केवल एक सामाजिक चिंता नहीं, बल्कि सभ्यता के नैतिक पतन की सूचना है। आधुनिकता, स्वतंत्रता और अनैतिक संबंधों के बीच जो संघर्ष उत्पन्न हुआ है, वह केवल विवाह को ही नहीं, समाज की मूल संरचना को भी प्रभावित कर रहा है। विवाह केवल एक सामाजिक व्यवस्था नहीं, बल्कि एक भावनात्मक, सांस्कृतिक और नैतिक संस्था है। यह केवल दो व्यक्तियों का संबंध नहीं, बल्कि एक समाज की स्थिरता का केंद्र है। लेकिन जब इस संस्था को आत्मकेन्द्रित इच्छाएं, यौन आकर्षण, भावनात्मक अपरिपक्वता और सांस्कृतिक संक्रमण से चुनौती मिलती है, तो इसका विघटन अवश्यंभावी हो जाता है।
युवाओं में विवाहोत्तर अनैतिक संबंधों की बढ़ती प्रवृत्ति एक गंभीर सामाजिक संकेत है, जिसे केवल नैतिक उपदेशों से नहीं, बल्कि ठोस सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और मनोवैज्ञानिक उपायों से ही रोका जा सकता है। अतः यह आवश्यक है कि आधुनिकता को अपनाते हुए भी हम अपनी सांस्कृतिक और नैतिक जड़ों से जुड़े रहें। स्वतंत्रता का प्रयोग उत्तरदायित्व और मर्यादा के साथ करें, और विवाह को केवल एक बंधन नहीं, बल्कि प्रेम, सम्मान और स्थायित्व की पवित्र संस्था के रूप में पुनः प्रतिष्ठित करें। यदि समय रहते विवाह संस्था को पुनः सशक्त और मूल्याधारित नहीं बनाया गया, तो आने वाली पीढ़ियों के लिए पारिवारिक, सामाजिक और नैतिक संरचनाएं मात्र इतिहास बनकर रह जाएंगी।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा