“स्वच्छ व स्वस्थ मनयोग और सामाजिक समरसता: विकसित भारत की असली बुनियाद” (नशा, दहेज, छुआछूत, धर्मान्धता, लिंगभेद व वर्गभेद जैसी सामाजिक कुप्रथाओं के विनाश का महायोग)
डॉ प्रमोद कुमार

1. प्रस्तावना: विकसित भारत की अवधारणा और उसकी जमीनी नींव
भारत, विविधताओं से भरा एक समृद्ध सांस्कृतिक राष्ट्र है, जो प्राचीन सभ्यता, आध्यात्मिक दर्शन और नैतिक मूल्यों की नींव पर खड़ा है। परंतु जब “विकसित भारत” की बात होती है, तो केवल भौतिक प्रगति या तकनीकी विकास पर्याप्त नहीं होता। एक सशक्त, समरस और न्यायपूर्ण समाज का निर्माण ही सच्चे विकास का प्रतीक होता है। इस दिशा में “स्वच्छ और स्वस्थ मानयोग” अर्थात् एक ऐसा मानस, जो आत्म-शुद्धि, नैतिक बल और सामाजिक चेतना से युक्त हो सबसे बड़ी भूमिका निभाता है।
“विकसित भारत” केवल तकनीकी, आर्थिक और औद्योगिक दृष्टि से समृद्ध राष्ट्र की कल्पना नहीं है। यह उस भारत का सपना है जहाँ नागरिक मानसिक रूप से स्वस्थ, नैतिक रूप से सजग, और सामाजिक रूप से समरस हों। यह वह भारत है जिसमें केवल गगनचुंबी इमारतें नहीं हों, बल्कि ऐसी चेतनाएँ भी हों जो नैतिक और मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत हों। एक विकसित भारत की बुनियाद केवल स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया और वैश्विक व्यापार में नहीं है — इसकी जड़ें मानव के “स्वस्थ और स्वच्छ मनयोग” तथा समाज में “सामाजिक समरसता” की स्थापना में निहित हैं। जब तक हम समाज की उन गहरी बुराइयों — जैसे नशाखोरी, दहेज प्रथा, छुआछूत, धर्मान्धता, लिंगभेद और वर्गभेद — का उन्मूलन नहीं करते, तब तक यह सपना अधूरा है। आज भी भारत में अनेक सामाजिक बुराइयाँ — जैसे नशाखोरी, दहेज प्रथा, छुआछूत, धर्मान्धता, लिंगभेद और वर्गभेद — विकसित भारत की राह में रोड़े बने हुए हैं। इनका उन्मूलन तभी संभव है जब प्रत्येक नागरिक का मानस “स्वस्थ और स्वच्छ” हो तथा वह सामाजिक समरसता के आदर्श को अपनाए।
2. स्वच्छ और स्वस्थ मनयोग — एक वैचारिक आधारशिला
‘मनयोग’ शब्द संस्कृत से आया है, जिसका तात्पर्य है — “मन का योग या एकाग्रता”। परन्तु यहाँ यह शब्द गहरे अर्थों में प्रयुक्त है — एक ऐसा मानसिक ढांचा, जो शुद्ध विचारों, विवेक, करुणा और सामाजिक दायित्व से युक्त हो। ‘मानयोग’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है — ‘मानस’ और ‘योग’। इसका तात्पर्य है: मन की एकाग्रता, शुद्धता, और नैतिक उद्देश्यों की ओर समर्पण। स्वच्छ और स्वस्थ मानयोग का अर्थ है ऐसा मन जो नकारात्मक विचारों, पूर्वग्रहों, और सामाजिक विषमताओं से मुक्त हो।
3. स्वच्छ और स्वस्थ मन का सामाजिक महत्व
यदि व्यक्ति का चिंतन शुद्ध होगा, तो उसकी सोच, व्यवहार, निर्णय और सामाजिक सहभागिता भी सकारात्मक होगी। जब समाज के अधिकांश नागरिक अपने आंतरिक मूल्य और नैतिकता को श्रेष्ठ बनाएंगे, तभी संपूर्ण राष्ट्र एक न्यायप्रिय, शांतिपूर्ण और उन्नत समाज की ओर बढ़ेगा।
स्वच्छ मन पूर्वाग्रह, घृणा, कट्टरता, लोभ और हिंसा से मुक्त होता है।
स्वस्थ मन निर्णय क्षमता, सहिष्णुता, आत्म-नियंत्रण और नैतिकता से परिपूर्ण होता है।
इन दोनों गुणों का मेल ही व्यक्ति को ऐसा नागरिक बनाता है जो स्वयं के साथ समाज को भी नैतिक दिशा में आगे ले जाता है।
4. नशा: मानसिक पतन और सामाजिक विनाश का कारण
4.1 समस्या का विस्तार
भारत में आज नशाखोरी एक विकराल सामाजिक रोग बन चुका है। किशोरों से लेकर अधेड़ों तक शराब, गांजा, अफीम, तम्बाकू, ड्रग्स आदि का सेवन बढ़ता जा रहा है। ये केवल व्यक्ति को नहीं, उसके परिवार, कार्यक्षमता और सामाजिक रिश्तों को भी नष्ट कर देते हैं।
4.2 मनयोग के अभाव से नशा
अधिकांश मामलों में नशे की ओर व्यक्ति तब झुकता है जब उसका मन अशांत, निरुद्देश्य, या दबावों से घिरा होता है। मानसिक स्थिरता और उद्देश्यहीनता उसे आत्म-नाश की ओर ले जाती है।
4.3 निवारण के उपाय
1. नैतिक शिक्षा और ध्यान अभ्यास स्कूल स्तर पर।
2. परिवार में संवाद और सहयोग की संस्कृति।
3. सरकारी पुनर्वास केंद्रों की गुणवत्ता में सुधार।
4. सिनेमा, संगीत और प्रचार में नशा-विरोधी विषयों का समावेश।
5. दहेज प्रथा: स्त्री की गरिमा पर कलंक
5.1 दहेज का सामाजिक स्वरूप
भारत में विवाह अब दो आत्माओं का नहीं, बल्कि दो परिवारों का आर्थिक सौदा बनता जा रहा है। दहेज के कारण लाखों बेटियाँ प्रतिवर्ष शोषण, अपमान और मृत्यु की शिकार होती हैं।
5.2 इसके पीछे की मानसिकता
स्त्री को पुरुष के अधीन मानने वाली सोच।
विवाह को आर्थिक लेन-देन का माध्यम बनाना।
विवाह के खर्च को प्रतिष्ठा से जोड़ना।
5.3 स्वस्थ मनयोग से समाधान
पुरुषों में आत्म-संयम और नारी-सम्मान का भाव।
‘दहेज नहीं, शिक्षा दो’ जैसे आंदोलन।
सामूहिक विवाह और सादगीपूर्ण समारोहों का प्रचार।
कठोर कानूनी कार्यवाही और त्वरित न्याय।
6. छुआछूत और जातिवाद: सामाजिक विषमता का सबसे बड़ा जहर
6.1 छुआछूत की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
भारत में जाति-व्यवस्था का विकृत रूप छुआछूत रहा है। यह व्यवस्था ब्राह्मणवादी श्रेष्ठता की अवधारणा पर आधारित है, जिसने अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों को सदियों तक शोषित किया।
6. 2 मनयोग की दृष्टि से छुआछूत
एक दूषित मानसिकता ही दूसरे मानव को “अछूत” मान सकती है।
स्वस्थ मन यह नहीं देखता कि कौन क्या पहनता है, क्या खाता है या किस जाति में जन्मा है। वह केवल “मानव” को देखता है।
6. 3 समाधान की दिशा
1. बौद्ध धम्म की समता आधारित दृष्टि को अपनाना।
2. सामूहिक भोज, एकसाथ पूजा और विवाह कार्यक्रमों को प्रोत्साहन।
3. संविधान आधारित समानता की शिक्षा का विस्तार।
4. जिन्हें ‘अछूत’ माना गया, उनके अनुभवों को साहित्य और पाठ्यक्रम में स्थान देना।
7. धर्मान्धता: आस्था के नाम पर हिंसा का उदय
7. 1 धर्म और धर्मान्धता में अंतर
धर्म — नैतिकता, प्रेम और सहिष्णुता का मार्ग।
धर्मान्धता — कट्टरता, असहिष्णुता और दूसरों की निंदा।
धर्मान्धता जब किसी एक पंथ को सर्वश्रेष्ठ बताकर अन्य पंथों को अपवित्र मानती है, तब समाज में द्वेष, हिंसा और विघटन पैदा होता है।
7.2 मनयोग से समाधान
‘सर्वधर्म समभाव’ को व्यवहार में उतारना।
अंतरधार्मिक संवाद और सम्मेलनों का आयोजन।
धर्मगुरुओं की जिम्मेदारी तय करना।
बुद्ध, कबीर, नानक, अंबेडकर जैसे संतों की विचारधारा को जन-जन तक पहुंचाना।
8. लिंगभेद: विकास की आधी आबादी को रोकने वाला अवरोध
8. 1 समस्या की गंभीरता
लिंगभेद का मतलब है — केवल स्त्री होने के कारण उसे अवसरों, अधिकारों और समानता से वंचित करना। यह भारत जैसे देश में सबसे बड़ी चुनौतियों में एक है, जहाँ:
कन्या भ्रूण हत्या होती है।
बालिकाओं को शिक्षा से वंचित रखा जाता है।
कार्यस्थल पर वेतन में असमानता होती है।
घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न आम हैं।
8. 2 मनयोग से समाधान
स्त्री को देवी कहने के बजाय, उसे ‘मानव’ मानने का साहस।
नारी के प्रति सम्मान, संवेदना और समानता का अभ्यास मन में होना चाहिए।
बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ को केवल नारा नहीं, संस्कार बनाना होगा।
महिलाओं के आत्मनिर्भरता के लिए आर्थिक सहायता, शिक्षा और सुरक्षा का व्यापक तंत्र।
9. वर्गभेद: अमीरी-गरीबी की खाई और सामाजिक अन्याय
9. 1 वर्गभेद की जड़ें
आज का भारत तेजी से आर्थिक रूप से बढ़ रहा है, परंतु यह विकास असमानता से भरा है। एक ओर अरबपतियों की गिनती बढ़ रही है, तो दूसरी ओर करोड़ों लोग गरीबी रेखा से नीचे संघर्ष कर रहे हैं।
9. 2 सामाजिक समरसता के लिए वर्गभेद का अंत जरूरी
श्रम की गरिमा की पुनःस्थापना।
गरीब को दया का नहीं, अधिकार का पात्र मानना।
सामाजिक सुरक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और आवास पर केंद्रित नीतियाँ।
गांव-कस्बों की भागीदारी के बिना कोई भी ‘विकसित भारत’ अधूरा रहेगा।
10. शिक्षा: मानसिक स्वच्छता और मनयोग का पहला साधन
10. 1 वर्तमान शिक्षा की चुनौतियाँ
प्रतियोगिता आधारित, नैतिकता विहीन शिक्षा।
केवल करियर-केंद्रित दृष्टिकोण।
जीवन-मूल्यों की शिक्षा का अभाव।
10. 2 समाधान
1. नैतिक शिक्षा और सामाजिक विज्ञान को पुनर्जीवित करना।
2. बुद्ध, महावीर, कबीर, रैदास, अंबेडकर जैसे सुधारकों की शिक्षाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करना।
3. विद्यालयों में सेवा-भाव, समता और करुणा की कार्यशालाएं।
4. महिलाओं और वंचित वर्गों के लिए शिक्षा को अनिवार्य और निःशुल्क बनाना।
11. नागरिकों की भूमिका: जिम्मेदार समाज का निर्माण
11. 1 हर नागरिक है एक सामाजिक इकाई
यदि हर नागरिक अपने भीतर स्वच्छ मनयोग और समाज के लिए जिम्मेदारी का भाव विकसित करे, तो किसी भी सामाजिक बुराई का उन्मूलन असंभव नहीं।
11. 2 समाधान
1. नशा, दहेज, लिंगभेद, छुआछूत जैसे मुद्दों पर चुप न रहें।
2. लोकल कार्यकर्ताओं, शिक्षकों, स्वयंसेवकों की सहायता करें।
3. स्वयं में समता, करुणा, सहिष्णुता का अभ्यास करें।
4. लोकतांत्रिक जिम्मेदारियों का निर्वहन करें – जैसे मतदान, शिकायत करना, जनचेतना फैलाना।
12. नीति: निर्माण और सरकार की जिम्मेदारी
12. 1 कठोर कानून और मानवीय क्रियान्वयन
दहेज, नशा, छुआछूत और स्त्री उत्पीड़न पर कड़े और तेज कानून।
‘मन की बात’ से आगे बढ़कर ‘मन की शुद्धि’ पर कार्य।
सामाजिक कल्याण मंत्रालयों का सशक्तिकरण।
प्रेस और मीडिया को सकारात्मक सामाजिक सरोकारों से जोड़ना।
13. सांस्कृतिक पुनर्जागरण: नैतिक मूल्य और समता का पुनर्निर्माण
13. 1 आवश्यकता है एक सांस्कृतिक क्रांति की
बौद्ध धम्म, संत परंपरा, लोक साहित्य, और सामाजिक आंदोलनों की पुनर्व्याख्या।
जाति-धर्म-वर्ग से ऊपर उठकर मानवता के आधार पर सामाजिक संगठनों का निर्माण।
अंध परंपराओं को तिलांजलि देना और वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना।
14. निष्कर्ष: स्वच्छ मन, समरस समाज और विकसित भारत
एक सच्चा विकसित भारत वही होगा जहाँ:
व्यक्ति का मन दोषों से मुक्त हो — लोभ, घृणा, क्रोध, कट्टरता, हिंसा से।
समाज में कोई ऊँच-नीच न हो — सभी को समान अवसर, समान सम्मान मिले।
स्त्रियाँ, दलित, गरीब, पिछड़े — सबके लिए विकास के दरवाज़े खुले हों।
हर भारतीय नागरिक, केवल अपने अधिकार ही नहीं, बल्कि अपने कर्तव्य को भी समझे।
“स्वस्थ और स्वच्छ मनयोग” का अर्थ केवल मानसिक स्वास्थ्य नहीं, बल्कि वह विवेकशीलता, वह नैतिकता है जो समाज को जोड़ती है, जो समता को जन्म देती है।
“सामाजिक समरसता” कोई कल्पना नहीं, बल्कि व्यवहार की आवश्यकता है — जब तक समाज एक नहीं होगा, भारत कभी भी सच्चा विकसित राष्ट्र नहीं बन पाएगा।
इसलिए, नशा, दहेज, छुआछूत, लिंगभेद, वर्गभेद, और धर्मान्धता — ये सभी केवल सामाजिक बुराइयाँ नहीं हैं, ये भारत के विकास को जकड़ने वाले सांस्कृतिक अवरोध हैं। इनका उन्मूलन केवल कानून से नहीं, ‘स्वच्छ और स्वस्थ मनयोग’ से ही संभव है।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा