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भारत तिब्बत सहयोग का मानवीय आधार 

डॉ दिलीप अग्निहोत्री 

चीन की विस्तारवादी मानसिकता से अनेक देश बेहाल हैं। चीन की विदेश निति में मित्रता और मानवाधिकार के कोई महत्त्व नहीं हैं। वह सहायता देने के नाम पर दूसरे देशों को अपने चंगुल में जकड़ लेता है। पाकिस्तान जैसे देश इसके उदाहरण है। श्री लंका में भी उसने यही करने के प्रयास किया। लेकिन समय रहते श्री लंका की सरकार सजग हो गई। वैसे चीन के लोगों का कोई मानवाधिकार नहीं हैं।  उन्हें सरकार की मर्ज़ी से ही चलना होता है। तिब्बत के लोगों की स्थिति और भी ज्यादा खराब है। यहां दशकों से उत्पीड़न का चक्र चल रहा है। इतना ही नहीं तिब्बत को प्राकृतिक रुप से भी बदहाल करने में चीन कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। पहले भारत और चीन के बीच तिब्बत शांतिपूर्ण देश के रुप में स्वतंत्र अस्तित्व रखता था। अब इस शांतिपूर्ण देश को चीन ने विनाश का अड्डा बना दिया है। यहां चीन के पचास लाख सैनिक तैनात हैं। चीन के एक चौथाई परमाणु मिसाइल का केंद्र भी तिब्बत है। इतना ही नही उसका परमाणु कचरा तिब्बत में ही जमा होता है। भारत तिब्बत सहयोग मंच रजत जयंती लगातार मानवीय दृष्टिकोण से इस समस्या के समाधान की आवाज बुलंद कर रहा है। इंद्रेश कुमार इसके संस्थापक सदस्य और संरक्षक मार्गदर्शक हैं। लखनऊ में भारत तिब्बत सहयोग मंच की रजत जयंती समारोह पूर्वक मनाई है। इसमें इंद्रेश कुमार भी सहभागी हुए। इंद्रेश कुमार ने कहा कि  कहा कि भारत नि:स्वार्थ संस्कृति का देश है. हमारी यात्रा परमार्थ की है. इसलिए हम विश्वगुरु कहलाये. भारत में परमार्थ की संस्कृति है. हमारे यहां कहा गया है कि जियो लेकिन दूसरों के लिए. हमने सबके सद्भाव की बात कही है. हमने किसी के अमंगल की बात नहीं की. तिब्बत की स्वतंत्रता का प्रयास इसी उदार भावना से प्रेरित है। समारोह में यह भी कहा गया कि 
तिब्बत को भारत ही चीन के चंगुल से मुक्त करा सकता है। इसके लिए भारत का शक्तिशाली और आत्मनिर्भर होना आवश्यक है। दुनिया की समस्याओं का समाधान भारतीय चिंतन से ही संभव है। देश सर्वोपरि है. देशहित में ही सबका हित है. तिब्बत का स्वतन्त्र होना भारतीय हित में है। क्योंकि इसके स्वतन्त्र होने से चीन की सीमा भारत से दूर हो जायेगी। 
तिब्बत की स्वतंत्रता और भारत की सुरक्षा के उद्देश्य व तिब्बती शरणार्थी के सहयोग के लिए भारत तिब्बत सहयोग मंच का गठन किया हुआ है। मई,
उन्नीस सौ इक्यानवे में 
चीन ने दबाव बनाकर 
तिब्बत से समझौता किया था। इसे तिब्बत पर चीन का कब्जा हो गया था। इसके आठ वर्ष बाद दलाई लामा को तिब्बत छोड़ना पड़। उन्होंने भारत में शरण ली। उसके बाद तिब्बत की निर्वासित सरकार चल रही है। चीन और तिब्बत के बीच विवाद पुराना है। चीन कहता है कि तिब्बत तेरहवीं शताब्दी में चीन का हिस्सा रहा है। तिब्बत
का अपना दावा है। 

चीनी शासन से पहले स्वतंत्र संप्रभु राज्य के रूप में तिब्बत का दो हज़ार से अधिक वर्षों का लिखित इतिहास है। 1912 में तिब्बत के  धर्मगुरु दलाई लामा ने तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। चीन में कम्युनिस्ट सरकार बनने के बाद विस्तारवाद का खेल चला। तिब्बत पर चीन ने कब्जा जमा लिया। तिब्बत की इस निर्वासित सरकार का चुनाव भी होता है। इस चुनाव में दुनियाभर के तिब्बती शरणार्थी मतदान करते हैं।  तिब्बती  राष्ट्रपति सिकयोंग का चुनाव होता है। तिब्बती संसद का मुख्यालय हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में है। चीन द्वारा 
 तिब्बत की स्वतंत्रता छीना गया। तिब्बत को मूल संस्कृति,धर्म
को समाप्त करने का प्रयास किया जाता है। मानवाधिकारों का हनन आम बात है। हजारों बौद्ध और धार्मिक स्थलों को कम्यूनिस्ट शासन ने नष्ट कर दिया। चीन द्वारा तिब्बत में निरंतर जनसंख्या के स्थानांतरण ने तिब्बतियों को अपनी ही भूमि में अल्पसंख्यक बनाने का अभियान चला रहा है। यहां चीनी प्रवासियों की संख्या
बहुत बढ़ा गई है। वह बहूसंख्यक हो गए हैं।
 शिक्षा,नौकरियों अन्य रोजगार में उनका वर्चस्व है।

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