मैं पागल हूँ
अलका यादव झांसी ,उत्तर प्रदेश
नवविचार और नवजीवन का स्वाद लिए
मैं विक्षिप्त उल्टी धारा में विहार किए
कुछ उल्टे काम और जीर्ण मुस्कान लिए हर काम की नई शुरुआत किए
निराश जग में भी आशातीत हूँ
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
चुप्पी साधे शब्दों का भवसागर ओढ़े
कहती हर बार अंतर्मन को,
फिर भी बहुत कुछ शेष है,
द्वंद हो रहा इस जग और मन में
कई बार समझ जाती तो कई बार ठगी भी जाती हूं
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
हृदय की कहानी जब-जब दोहराती हूँ कभी बुद्धिभ्रष्ट तो कभी सनकी कही जाती हूँ।
फिर भी कुछ नया ठानती हूँ।
राह मोड़ती तो धारा भी मोड़ जाती हूं
बंद होते दरवाजों में भी आज़ाद हूँ
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
जीवन का कारवां ही कुछ ऐसा है
नज़रें हर ओर होती पर नज़र कुछ ही आते हैं
मैं बुद्धिमानों में गिनी जाती थी,
जब भेड़ चाल संग बह जाती थी
मैं मूर्ख विषम परिस्थितयों में भी खिलखिलाती हूं
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
मेरी सोच उल्टी, मेरे काम उल्टे
असंभव की माटी में सफलता के बीज बोती हूँ
जो करने से सब कतराते
उसे दोहराने की जिद ठाने हूं
छा जाती जब गमों की घटाएँ
तो खुद पर हंस लेती हूँ
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
बढ़ती उम्र के साथ बढ़ता मेरा बचपन भुला देती उन बातों को जो उधेड़ती मेरे जख्मों की सीवन
याददाश्त के शहरों से निकल गुमनामी के वनों में भटकती हूँ
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
हँसता हर वक्त जमाना मुझ पर
रोकने को कंटीले शूल बिछाकर
बहा दे जो हर धुंध को उड़ती मैं वो रंगीन बादल हूँ
टूटी संगीत लहरियों में नव श्वास भर गीत नया गाती हूँ
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
कितना भी हरा क्यों न हो सावन
शीत पूस की अटारी बनाती हूँ
कितनी भी छू लें ऊँचाई
फिर नई मंजिल की सुरंग बनाती हूं
रोक न पाएगा वक्त अब मुझे कभी
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
मैं पागल क्यों हूँ?
क्योंकि मैं हंसती हूं ?
या चक्षु मेघों में कभी न बारिश होने देती हूँ?
ऊँचे आसमानी कोठारों को छोड़
टूटे जर्जर नीड़ों में टेक लगाती हूँ
मैं बढ़ती छोड़ समझदारी की बेड़ियाँ क्योंकि मैं एक पागल हूँ।
चखूँगी मैं हर सफलता का स्वाद
डगर क्यों न हो कँटीली
पर किसी हार से पीठ न फेरूंगी
खुश रहूँगी, खुद के गीतों में नाँचूंगी
मिलेंगे झुके सर जितने, सबके शीश उठाऊँगी
होता नव सृजन यदि मेरे पागलपन से
तो पागल हूँ, पागल ही रहूंगी
क्योंकि मैं एक पागल हूँ।