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लघुकथा "रोटी"

सुमन अग्रवाल "सागरिका"

चिलचिलाती धूप में काम करते मजदूर को देखते है,तो पता चलता है,रोटी की कीमत क्या होती है.....दिनभर धूप में कठिन मेहनत,मजदूरी करके रूपये कमाकर घर लाता है घर का राशन आता है उससे खाना बनता है तब जाकर मिटती है पेट की भूख
संघर्ष ही जीवन है.....जीवन में दो जून की रोटी के खातिर इंसान कड़ी मेहनत करता है...पेट की भूख मिटाने के लिए इंसान क्या कुछ नही करता बचपन में बहकते कदम, लूट, चोरी,चरस आदि बुरी लत लग जाती है, सिर्फ रोटी के लिए......
         मैं अपने घर की इकलौती बेटी.... नाजों से पली बढी.... मन मुताबिक सारी चींजें हासिल करना...सारी हसरतें पूरी होती थी....घर में मेरी माँ पसन्द का खाना बनाती थी रोटी मुझे अच्छी नहीं लगती थी मम्मी रोटी बनाती तो मेरे मुँह से निकल ही जाता था क्या मम्मी फिर वही रोटी मुझे अच्छी नहीं लगती रोटी.....
एकदिन मेरे लंच बोक्स में मम्मी ने रोटी रखी मैं स्कूल जा रही थी तभी मैने एक बूढ़ी औरत को भीख मांगते देखा मैने अपने लंच बोक्स से निकालकर उस को थमा दिया वो औरत रोटी खाने लगी उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि न जाने उसे कितने दिनों से खाना नहीं खाया होगा देखकर मुझे सुकून सा महसूस हुआ .....
मैं अपने स्कूल चली गई बात मेरे मन में उमड़ रही साथ-साथ मम्मी को भी धन्यवाद दे रही थी...आज अच्छा हुआ मम्मी ने रोटी बना कर रख दी उसे भूख लगी तो कैंटीन गई लेकिन उस दिन कैंटीन बंद थी तब मैने जाना रोटी की कीमत.....
घर आई तो सबसे पहले मै खाने पर टूट पड़ी आज मुझे रोटी बहुत अच्छी लग रही थी मैने मम्मी को सारी बातें बताई....मम्मी अब रोटी उस बूढ़ी अम्मा के लिए भी रख देती है अब मम्मी रोटी बनाती है मै रोटी खाती हूँ तो बस वही बात मन मै आ जाती है....आखिर रोटी की कीमत क्या होती है।

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