लेख

“बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर का ‘जातियों का विखंडन’: आधुनिक भारत में सामाजिक समानता, न्याय और राष्ट्रनिर्माण का वैचारिक मार्गदर्शन”

डॉ प्रमोद कुमार

सदी के महानायक, शोषितों व वांक्षितो के मसीहा, नारी उद्धारक, महान उदार राष्ट्रवादी, महामानवतावादी, आधुनिक भारत के जन्मदाता और भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ भीमराव अंबेडकर का “जातियों का विखंडन” भारतीय समाज की जड़ता, असमानता, जन्माधारित ऊँच-नीच और सामाजिक पराधीनता पर एक अत्यंत सूक्ष्म व वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करने वाला ग्रंथ है, जिसने न केवल जाति-व्यवस्था के मूल स्वरूप को चुनौती दी, बल्कि एक ऐसे भारत की कल्पना भी की जहाँ मनुष्य की पहचान उसके कर्म, क्षमता और चरित्र से हो, न कि जन्म से निर्धारित किसी काल्पनिक श्रेष्ठता या हीनता से। आधुनिक भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिवेश में यह कृति आज और भी अधिक प्रासंगिक प्रतीत होती है, क्योंकि भारत एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर खड़ा है जहाँ विकास, राष्ट्रनिर्माण, समानता और आधुनिकता की आकांक्षाओं के बीच जातिगत असमानताएँ, सामाजिक विषमताएँ और मानसिक गुलामी की पुरानी परतें आज भी गहरी जड़ें जमाए हुए हैं। डॉ अंबेडकर का उद्देश्य केवल जाति-व्यवस्था की आलोचना करना नहीं था; उनका उद्देश्य यह दिखाना था कि जाति का विखंडन किए बिना भारत सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिक चेतना, राष्ट्रीय एकता और आधुनिक राष्ट्र के आदर्शों की प्राप्ति नहीं कर सकता। इसलिए “जातियों का विखंडन” केवल ऐतिहासिक या दार्शनिक पाठ नहीं, बल्कि आधुनिक भारत का एक वैचारिक संविधान भी है—एक ऐसा मार्गदर्शन, जो आज की पीढ़ियों को यह समझाता है कि जातिविहीन समाज ही विकसित, न्यायपूर्ण और समरस भारत की नींव है।

यदि हम अंबेडकर की विचारधारा को आधुनिक संदर्भ में देखें तो यह स्पष्ट होता है कि जाति भारत की सामाजिक संरचना में एक ऐसा तंत्र है जिसने प्रारंभ से ही समाज को खंडित किया, व्यक्ति को उसकी स्वाभाविक स्वतंत्रता से वंचित किया और राष्ट्र को सामूहिक ऊर्जा व एकजुटता से दूर रखा। अंबेडकर ने इस व्यवस्था के मूल में धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं की भूमिका को उजागर करते हुए बताया कि जातिव्यवस्था केवल सामाजिक संरचना नहीं, बल्कि एक ऐसी मानसिकता है जो मनुष्य को मनुष्य के बराबर देखने से इंकार करती है। आज जब भारत 21वीं सदी में वैश्विक प्रतिस्पर्धा, वैज्ञानिक प्रगति, तकनीकी कौशल, आर्थिक विकास और लोकतांत्रिक विविधता की राह पर अग्रसर है, तब भी जातिगत भेदभाव, सामाजिक बहिष्कार, सम्मानजनक जीवन के अधिकार से वंचित समूहों की पीड़ा और सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ यह संकेत देती हैं कि हम अभी भी अंबेडकर के सपने—एक न्यायपूर्ण, समानतामूलक और भाईचारे पर आधारित राष्ट्र—से कोसों दूर हैं।

अंबेडकर का तर्क था कि जातियाँ केवल जनसमूहों का विभाजन नहीं करतीं, बल्कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संसाधनों के असमान वितरण को स्थायी बना देती हैं। आधुनिक भारत में यह असमानता अनेक रूपों में दिखाई देती है—शिक्षा, रोज़गार, स्वास्थ्य, राजनीतिक प्रतिनिधित्व, सामाजिक सम्मान, भूमि-संपत्ति के स्वामित्व, विवाह संबंधوں और सामाजिक गतिशीलता में आज भी जाति निर्णायक भूमिका निभाती है। अंबेडकर की आलोचना का सार यही था कि एक ऐसा समाज जो जन्म से तय की गई श्रेष्ठता और हीनता पर चलता है, वह कभी भी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता। यह बात आज भी उतनी ही सत्य है। संविधान ने समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के मूल्यों को अपनाकर एक दिशा तो प्रदान की, परन्तु सामाजिक चेतना में परिवर्तन अभी भी अधूरा है। जातिगत हिंसा, ऑनर किलिंग, पंचायतों के जाति-आधारित फरमान, दलितों पर अत्याचार, सामाजिक बहिष्कार, और डिजिटल दुनिया में भी जाति-आधारित अपमान यह दर्शाते हैं कि जाति केवल गाँवों या दूरस्थ क्षेत्रों की समस्या नहीं, बल्कि शहरी जीवन और आधुनिक तकनीक से जुड़े सामाजिक व्यवहार का भी हिस्सा बन गई है।

अंबेडकर का यह विचार कि जाति केवल सामाजिक संस्था नहीं, बल्कि मानसिकता है, आधुनिक भारत में उतना ही महत्वपूर्ण है। वह कहते थे कि जातियाँ तब तक नहीं टूटेंगी जब तक लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी। यही कारण है कि उन्होंने जाति-उन्मूलन के लिए सामाजिक आंदोलनों, धर्मांतरण, शिक्षा, राजनीतिक अधिकार और संवैधानिक सुरक्षा को आवश्यक माना। आज के संदर्भ में यह और भी स्पष्ट है कि केवल कानून बनाकर जाति समाप्त नहीं की जा सकती; इसके लिए सामाजिक चेतना, विचारों में परिवर्तन, और मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन-दृष्टि अनिवार्य है। भारत की शिक्षा प्रणाली, विशेषतः उच्च शिक्षा क्षेत्रों में, अभी भी जातिगत पूर्वाग्रह और असमानता के कई स्वरूप दिखते हैं। शिक्षण संस्थानों में अपमान, भेदभाव, अवसरों की विषमता और मानसिक उत्पीड़न जैसी घटनाएँ बताती हैं कि शिक्षा का विस्तार तो हुआ है, परन्तु जातिहीन चेतना का विस्तार नहीं हो पाया। इसलिए अंबेडकर के विचार आज शिक्षा नीति, अकादमिक संस्थानों और युवा पीढ़ी के मूल्य-निर्माण के लिए मार्गदर्शक बनते हैं।

राष्ट्रनिर्माण के संदर्भ में अंबेडकर ने बार-बार कहा कि कोई भी राष्ट्र जातिगत विभाजन के साथ एकीकृत नहीं हो सकता। राष्ट्र केवल भूगोल का नाम नहीं है; राष्ट्र एक साझा जीवन-दृष्टि, समान अवसरों, पारस्परिक सम्मान, और सामाजिक एकता की भावना से बनता है। आज के भारत में, जहाँ सामाजिक ध्रुवीकरण, सांस्कृतिक विभाजन और आर्थिक असमानताएँ बढ़ती जा रही हैं, वहाँ जाति का हस्तक्षेप सामाजिक सौहार्द और राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन जाता है। अंबेडकर की यह चेतावनी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है कि यदि भारत ने जातियों का विखंडन नहीं किया, तो सामाजिक प्रगति और राष्ट्रीय एकता दोनों बाधित होती रहेंगी। आधुनिक भारत में राष्ट्रनिर्माण की योजनाएँ—जैसे डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, और विकसित भारत 2047 का सपना—तभी सार्थक होंगे जब सामाजिक असमानताओं का अंत होगा और हर नागरिक को समान अवसर मिलेंगे। यदि समाज के निचले पायदान पर खड़े समूहों को अब भी अवसर नहीं मिलते, तो विकास का लाभ केवल कुछ समूहों तक सीमित रहेगा, और यह स्थिति राष्ट्रीय विकास की गति को बाधित करेगी।

अंबेडकर ने जाति के विघटन में स्त्री-स्वतंत्रता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, शिक्षा और धर्म की स्वतंत्रता को भी आवश्यक माना। आज भी महिलाएँ, विशेषकर दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों से आने वाली महिलाएँ, दोहरे-तिहरे भेदभाव का सामना करती हैं—जाति, वर्ग और लिंग, तीनों मिलकर उनके जीवन को जकड़ते हैं। आधुनिक भारत में स्त्री शिक्षा, महिला सुरक्षा, आर्थिक सशक्तिकरण और सामाजिक सम्मान जैसे मुद्दों पर गंभीर चुनौतियाँ मौजूद हैं, और इन चुनौतियों की जड़ में जातिगत असमानताएँ भी शामिल हैं। अंबेडकर ने कहा था कि किसी भी समाज की प्रगति का पैमाना उसकी महिलाएँ होती हैं। इसलिए “जातियों का विखंडन” को स्त्री-स्वतंत्रता और महिला-समानता की दृष्टि से भी आधुनिक भारत में समझना आवश्यक है।

अंबेडकर का एक महत्वपूर्ण संदेश यह था कि जाति-विहीन समाज केवल कानून से नहीं बनेगा, बल्कि नैतिकता, करुणा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और मानवीय मूल्यों की स्थापना से बनेगा। आज के भारत में जहाँ सोशल मीडिया, राजनीतिक भाषण, धार्मिक पहचान और सांस्कृतिक बहसों में कट्टरता और विभाजन बढ़ता दिख रहा है, वहाँ अंबेडकर की यह बात और भी आवश्यक हो जाती है कि भारतीय समाज को राष्ट्रनिर्माण के लिए “बंधुत्व” अर्थात fraternity की आवश्यकता है। संविधान में “बंधुत्व” को केवल एक शब्द के रूप में नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन की नींव के रूप में रखा गया था, क्योंकि बिना भाईचारे के समानता और न्याय भी अधूरे हो जाते हैं। आधुनिक भारत में सामूहिक उत्तरदायित्व और सामाजिक एकता का यह विचार तेजी से ढीला पड़ता दिख रहा है, इसलिए अंबेडकर का मार्गदर्शन एक नैतिक और सामाजिक पुनर्जागरण की मांग करता है।

आज जाति के आधार पर राजनीति, आरक्षण पर सामाजिक तनाव, जातिगत जनगणना पर विवाद, सामाजिक मीडिया पर जाति-आधारित अपमान, शहरी क्षेत्रों में भी जाति के आधार पर विवाह संबंधों का टूटना, और ग्रामीण भारत में जाति पर आधारित पंचायतों की सक्रियता यह दिखाती है कि जाति अभी भी भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक धुरी है। परंतु अंबेडकर के विचार इस स्थिति का समाधान प्रदान करते हैं। वे सुझाव देते हैं कि समाज को आधुनिक मूल्यों के अनुरूप पुनर्संगठित किया जाए, जिससे प्रत्येक व्यक्ति स्वतंत्र और समान रूप से अपनी क्षमता का विकास कर सके। अंबेडकर का जाति-विक्षोभ केवल आलोचना नहीं, बल्कि एक सकारात्मक वैकल्पिक दृष्टि है—एक ऐसा समाज जहाँ मानवता सर्वोच्च मूल्य है, जहाँ सामाजिक दरारों को मिटाकर एकीकृत राष्ट्र का निर्माण संभव है।

अंततः, “जातियों का विखंडन” केवल अतीत की समस्याओं का विश्लेषण नहीं करता, बल्कि भविष्य की राह भी दिखाता है। आधुनिक भारत में जबकि तकनीकी प्रगति, आर्थिक विकास और वैश्विक प्रतिस्पर्धा नई चुनौतियाँ लेकर आई हैं, वहीं जाति की पुरानी संरचना राष्ट्रीय प्रगति में बाधक बनी हुई है। डिजिटल युग में भी जाति-आधारित पहचान का प्रभाव यह संकेत देता है कि अंबेडकर के विचारों का व्यापक प्रसार और व्यवहारिक क्रियान्वयन अभी भी आवश्यक है। भारत तभी एक विकसित, समरस और न्यायपूर्ण राष्ट्र बन सकता है जब जाति-व्यवस्था की जड़ें पूरी तरह टूटें, और समाज में समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और मानवता के मूल्य स्थापित हों। अंबेडकर का “जातियों का विखंडन” इस दिशा में एक बौद्धिक प्रकाश स्तंभ है, एक वैचारिक मार्गदर्शक है और आधुनिक भारत के लिए नैतिक दिशा-सूचक है।

इस प्रकार यह ग्रंथ आज भी अपने पूरे अर्थ, संदेश और चेतावनी के साथ उतना ही महत्वपूर्ण है जितना एक सदी पहले था। आधुनिक भारत को यदि सामाजिक समानता, न्याय और राष्ट्र की सामूहिक प्रगति को साकार करना है, तो अंबेडकर के इस ऐतिहासिक विश्लेषण को केवल पढ़ना नहीं, बल्कि अपने सामाजिक व्यवहार और राष्ट्रीय नीतियों में लागू करना अनिवार्य होगा। इसी मार्ग पर चलकर ही भारत एक ऐसा राष्ट्र बन सकेगा जहाँ जाति नहीं, बल्कि मनुष्य की प्रतिभा, श्रम, नैतिकता और मानवता राष्ट्र के निर्माण की वास्तविक शक्ति बन सके। तभी वास्तविक रूप से एक भारत, श्रेष्ठ भारत एवं अखण्ड और विकसित भारत के रूप में सदैव उदयीमान रहेगा। जय भीम जय भारत जय हिंद।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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