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“मैं जातियों को इतना कठोर बना दूंगा कि जाति बनाने वाला परेशान हो जाएगा” मान्यवर कांशीराम जी का कथन और इसकी वर्तमान प्रासंगिकता

डॉ. प्रमोद कुमार

मान्यवर कांशीराम जी भारत के एक प्रमुख दलित नेता, समाज सुधारक और राजनेता थे, जिन्होंने भारतीय समाज में दबे-कुचले वर्गों को संगठित कर उन्हें राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में अग्रसर किया। उन्होंने बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की और “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के सिद्धांत को अपनाते हुए दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों को एक राजनीतिक शक्ति में बदला। उनका सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने दलितों को केवल सामाजिक न्याय के आंदोलन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें राजनीति में प्रभावी भागीदारी दिलाई। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि राजनीतिक सत्ता के बिना दलितों का वास्तविक उत्थान संभव नहीं है।
जाति प्रथा भारतीय समाज की एक पुरानी और गहरी जड़ें जमाए हुई सामाजिक संरचना है। यह व्यवस्था सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक असमानताओं को जन्म देती रही है। इस ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ कई समाज सुधारकों, विचारकों और राजनेताओं ने संघर्ष किया है, जिनमें से एक प्रमुख नाम मान्यवर कांशीराम जी का है। उन्होंने बहुजन समाज के उत्थान और दलितों के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए जीवन समर्पित किया। उनका यह कथन—
“मैं जातियों को इतना कठोर बना दूंगा कि जाति बनाने वाला परेशान हो जाएगा” सामाजिक न्याय और राजनीतिक सशक्तिकरण की दिशा में उनके क्रांतिकारी विचारों को दर्शाता है। इस कथन का मूल भाव यह था कि सदियों से शोषित जातियों को संगठित करके उन्हें एक ऐसी शक्ति में बदला जाए कि समाज में जातिगत भेदभाव को कायम रखने वाली ताकतें स्वयं संकट में आ जाएँ। आज के संदर्भ में यह कथन कितना प्रासंगिक है? क्या जातिवाद पहले से कमजोर हुआ है, या अब भी वही स्थिति बनी हुई है? इस लेख में हम इस कथन के ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक और वर्तमान संदर्भों की व्यापक व्याख्या करेंगे।
1. कांशीराम जी का प्रारंभिक जीवन और जागरूकता का उदय व विचारधारात्मक आधार
कांशीराम जी का जन्म 15 मार्च 1934 को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गाँव में हुआ था। वे एक रामदासिया सिख परिवार में जन्मे थे, जो दलित समुदाय से संबंधित था। उनकी शिक्षा पुणे में हुई और वे डीआरडीओ (DRDO) में वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत हुए। नौकरी के दौरान उन्होंने महसूस किया कि अनुसूचित जाति/जनजाति के कर्मचारियों के साथ भेदभाव होता है। यहीं से उन्होंने दलित समाज के अधिकारों के लिए संघर्ष करने का संकल्प लिया। उन्होंने डॉ. भीमराव अंबेडकर की विचारधारा से प्रेरणा लेकर बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की और दलितों, पिछड़ों तथा आदिवासियों को एकजुट कर उनके राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण का प्रयास किया। उनका यह कथन दर्शाता है कि वे जाति प्रथा को केवल एक सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि एक राजनीतिक और आर्थिक हथकंडा मानते थे, जिसे शोषणकारी ताकतों ने लंबे समय से इस्तेमाल किया। उनके अनुसार, जब तक वंचित जातियां संगठित नहीं होंगी और अपनी जातीय पहचान को सशक्तिकरण के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगी, तब तक वे शोषण का शिकार बनी रहेंगी।
2. दलितों के राजनीतिक और सामाजिक सशक्तिकरण की शुरुआत
(i) BAMCEF की स्थापना (1978)
कांशीराम जी ने सबसे पहले बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एम्प्लॉइज़ फेडरेशन (BAMCEF) की स्थापना की। इसका उद्देश्य सरकारी नौकरियों में कार्यरत दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को संगठित करना था ताकि वे अपने समुदाय की भलाई के लिए काम करें।
BAMCEF एक गैर-राजनीतिक संगठन था, लेकिन यह सामाजिक जागरूकता फैलाने और दलित कर्मचारियों को अपने अधिकारों के प्रति सचेत करने का बड़ा माध्यम बना।
(ii) डीएस-4 (DS-4) की स्थापना (1981)
इसके बाद, 1981 में उन्होंने दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DS-4) का गठन किया। यह संगठन ज्यादा आक्रामक और आंदोलनकारी था, जिसने दलितों के राजनीतिक हक के लिए सीधा संघर्ष किया। इस संगठन ने नारा दिया:
“ठाकुर, ब्राह्मण, बनिया छोड़, बाकी सब हैं DS-4”
यह नारा दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को एक मंच पर लाने के लिए दिया गया था। DS-4 ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार में तेजी से अपनी पकड़ बनाई।
(iii) बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना (1984)
14 अप्रैल 1984 को, डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती पर, कांशीराम जी ने बहुजन समाज पार्टी (BSP) की स्थापना की। BSP का मुख्य लक्ष्य था:
‘दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को राजनीतिक ताकत देना।‘
“जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” का सिद्धांत लागू करना।
“पूंजीवाद” का विरोध करना। BSP ने दलितों को पहली बार यह एहसास कराया कि वे केवल वोट बैंक नहीं हैं, बल्कि स्वयं सत्ताधारी बनने की क्षमता रखते हैं।
3. जाति को कठोर बनाने का तात्पर्य
कांशीराम जी के इस कथन का अर्थ यह नहीं था कि वे जातिवाद को बढ़ावा देना चाहते थे, बल्कि वे चाहते थे कि दलित, पिछड़े और वंचित समाज अपनी जातीय पहचान को सशक्तिकरण का साधन बनाएं। जब शोषित जातियां संगठित होकर राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में अपने अधिकारों को मजबूत करेंगी, तो पारंपरिक जातिवादी ताकतें कमजोर हो जाएँगी। उनका मानना था कि यदि दलित, आदिवासी और पिछड़ी जातियां जाति के आधार पर संगठित होकर अपने लिए राजनीतिक शक्ति अर्जित करेंगी, तो वे उस व्यवस्था को चुनौती देंगी जिसने उन्हें सदियों तक दबाकर रखा।
4. जाति प्रथा का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
भारत में जाति प्रथा हजारों वर्षों से सामाजिक संरचना का हिस्सा रही है। इसे बनाए रखने में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक ताकतों का योगदान रहा है। वर्ण व्यवस्था के माध्यम से जातियों को उच्च और निम्न में विभाजित किया गया, जिससे सामाजिक असमानता बढ़ी।
ब्रिटिश शासन के दौरान जाति प्रथा को प्रशासनिक और राजनीतिक रूप से मजबूत किया गया, ताकि विभाजन की नीति के तहत भारतीय समाज को नियंत्रित किया जा सके। हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम और भारतीय संविधान के निर्माण के दौरान डॉ. भीमराव अंबेडकर ने जातिवाद को खत्म करने के लिए कई प्रावधान किए, लेकिन सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर जातिवाद आज भी मौजूद है। कांशीराम जी इसी व्यवस्था को बदलना चाहते थे और उन्होंने बहुजन समाज को जाति के आधार पर संगठित करने की रणनीति अपनाई ताकि उन्हें राजनीतिक और आर्थिक शक्ति हासिल हो सके।
5. वर्तमान में इस कथन की प्रासंगिकता
आज के दौर में भी जातिवाद भारतीय समाज में एक सच्चाई बनी हुई है। शिक्षा, रोजगार, राजनीति और सामाजिक संबंधों में जाति का प्रभाव देखा जा सकता है। हालांकि, पिछली कुछ दशकों में दलित और पिछड़ी जातियों के बीच राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता बढ़ी है, लेकिन अभी भी पूरी तरह से बराबरी नहीं आई है।
(i) राजनीतिक संदर्भ- कांशीराम जी के विचारों का प्रभाव भारतीय राजनीति में साफ दिखाई देता है। उनकी रणनीति के चलते दलित और पिछड़े वर्गों ने अपनी राजनीतिक ताकत को पहचाना और कई राज्यों में सरकारें भी बनाईं। उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी (BSP) की सरकार इसका उदाहरण है। लेकिन हाल के वर्षों में भारतीय राजनीति में जातिगत ध्रुवीकरण की नई प्रवृत्तियाँ देखी गई हैं। कुछ पार्टियाँ जातीय समीकरणों का लाभ उठाकर सत्ता में आती हैं, लेकिन वास्तविक सामाजिक परिवर्तन नहीं हो पाता।
(ii) सामाजिक संदर्भ- आज भी कई क्षेत्रों में जातिगत भेदभाव जारी है। सामाजिक भेदभाव, ऑनर किलिंग, जातिगत हिंसा और भेदभावपूर्ण मानसिकता अब भी समाज में मौजूद हैं। हालांकि, शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के कारण पिछड़े और दलित समुदायों में आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता की भावना बढ़ी है। कांशीराम जी का यह कथन आज भी प्रेरणा देता है कि शोषित वर्गों को संगठित होकर अपनी ताकत को पहचानना होगा और जातिवादी व्यवस्था को चुनौती देनी होगी।
(iii) आर्थिक संदर्भ- जाति आधारित आर्थिक असमानता भी आज एक बड़ी समस्या है। उच्च जातियों का अभी भी उद्योग, व्यापार और नौकरियों में प्रभुत्व है, जबकि दलित और पिछड़े वर्ग अब भी आर्थिक रूप से कमजोर हैं। हालांकि, सरकारी नीतियों और आरक्षण व्यवस्था के चलते शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में सुधार हुए हैं, लेकिन जाति आधारित भेदभाव अब भी जारी है।
6. कांशीराम जी के दलित उत्थान में प्रमुख योगदान
(i) दलितों को राजनीति में हिस्सेदारी दिलाई- कांशीराम जी ने यह समझाया कि केवल सामाजिक सुधारों से दलितों की स्थिति नहीं सुधर सकती, बल्कि उन्हें सत्ता में भागीदारी लेनी होगी। उनका प्रसिद्ध कथन था: “जो समाज सत्ता में भागीदारी नहीं करता, उसकी कोई सुनवाई नहीं होती।” उन्होंने दलितों को कांग्रेस और अन्य परंपरागत पार्टियों से अलग होकर अपनी स्वतंत्र राजनीतिक पहचान बनाने के लिए प्रेरित किया।
(ii) सामाजिक चेतना और आत्मसम्मान बढ़ाया- कांशीराम जी ने दलितों को सामाजिक चेतना दी और उन्हें आत्मसम्मान के साथ जीने की प्रेरणा दी। उन्होंने कहा कि दलितों को अपना नेतृत्व स्वयं तैयार करना होगा, बाहरी पार्टियों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। उन्होंने बताया कि किस तरह ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने दलितों को मानसिक रूप से गुलाम बना रखा था। उन्होंने “बहुजन” शब्द को लोकप्रिय बनाया, जिससे दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक अपने आप को एकजुट महसूस कर सकें।
(iii) उत्तर प्रदेश में दलितों की सरकार बनवाई- BSP के राजनीतिक संघर्ष का सबसे बड़ा परिणाम तब देखने को मिला जब 1995 में पहली बार उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनी और मायावती मुख्यमंत्री बनीं। यह भारतीय राजनीति में एक ऐतिहासिक क्षण था क्योंकि पहली बार एक दलित महिला मुख्यमंत्री बनीं।
(v) आरक्षण और सामाजिक न्याय की वकालत- कांशीराम जी ने आरक्षण को केवल सरकारी नौकरियों तक सीमित न रखकर इसे शिक्षा, राजनीति और अन्य क्षेत्रों में लागू करने की मांग की। उन्होंने “प्रतिनिधित्व और भागीदारी” को दलित उत्थान का मुख्य हथियार माना।
(vi) “मिशन 2000” का लक्ष्य- कांशीराम जी का लक्ष्य था कि वर्ष 2000 तक दलितों और बहुजनों को भारत की सत्ता का प्रमुख हिस्सा बनाया जाए। इसके लिए उन्होंने राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों को संगठित किया। हालांकि, उनकी यह रणनीति पूरी तरह सफल नहीं हो पाई, लेकिन उन्होंने दलितों में राजनीतिक चेतना भर दी।
7. कांशीराम जी के योगदान का प्रभाव और वर्तमान प्रासंगिकता
(i) दलित राजनीति की मजबूती- आज भारत में कोई भी राजनीतिक दल दलितों की अनदेखी नहीं कर सकता। कांशीराम जी की रणनीति के कारण, दलितों को राजनीति में पहचान मिली और वे एक महत्वपूर्ण मतदाता समूह बन गए।
(ii) आत्मसम्मान और संघर्ष की भावना- आज के दलित युवा आत्मसम्मान के साथ आगे बढ़ रहे हैं। वे शिक्षा, नौकरियों और राजनीति में अपनी भागीदारी को बढ़ा रहे हैं।
(iii) आरक्षण और सामाजिक न्याय की निरंतरता- कांशीराम जी के प्रयासों का ही परिणाम है कि आरक्षण व्यवस्था बनी हुई है और दलित समुदाय अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक हुआ है।
8. कांशीराम जी के विचारों को आगे बढ़ाने की आवश्यकता
आज के समय में कांशीराम जी के विचारों को और अधिक प्रभावी तरीके से लागू करने की आवश्यकता है। इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
शिक्षा और जागरूकता: जातिगत भेदभाव को खत्म करने के लिए शिक्षा सबसे प्रभावी साधन है। दलित और पिछड़े वर्गों को उच्च शिक्षा और तकनीकी कौशल की ओर बढ़ाना होगा।
राजनीतिक संगठन: बहुजन समाज को संगठित होकर अपनी शक्ति को बनाए रखना होगा।
आर्थिक सशक्तिकरण: छोटे व्यवसाय, स्टार्टअप और सरकारी योजनाओं के माध्यम से दलित और पिछड़े वर्गों को आर्थिक रूप से मजबूत करना होगा।
सामाजिक सुधार: समाज में जातिवाद को खत्म करने के लिए जन आंदोलन और सामाजिक सुधार अभियानों की जरूरत है।

मान्यवर कांशीराम जी ने भारतीय दलित राजनीति को नया आयाम दिया। उन्होंने केवल समाज सुधार की बात नहीं की, बल्कि सत्ता में हिस्सेदारी की जरूरत को समझाया और इसे व्यवहार में लाने का प्रयास किया। उनका संघर्ष दलितों के लिए एक बड़ी प्रेरणा है, और आज भी उनकी विचारधारा सामाजिक न्याय की दिशा में एक मार्गदर्शक बनी हुई है। उनका सपना तब पूरा होगा जब बहुजन समाज पूरी तरह से राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बन जाएगा। मान्यवर कांशीराम जी का कथन आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना उनके समय में था। भारतीय समाज में जातिवाद अब भी मौजूद है, लेकिन दलित और पिछड़े वर्गों में जागरूकता भी बढ़ी है। आज जरूरत है कि हम कांशीराम जी के विचारों को आगे बढ़ाएं और जातिवाद के खिलाफ संघर्ष जारी रखें। यदि शोषित समाज संगठित होकर अपनी शक्ति को पहचान ले, तो वही जातिवादी व्यवस्था परेशान हो जाएगी जिसने उन्हें सदियों तक दबाए रखा। इसलिए, कांशीराम जी का यह कथन केवल एक विचार नहीं, बल्कि सामाजिक क्रांति का एक संदेश है, जिसे हमें अपने जीवन और समाज में लागू करना चाहिए।


डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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