भारतीय वेशभूषा: पुरुषों का परित्याग और महिलाओं का संकोच — परंपरा, पहचान और पुरुषसत्ता का द्वंद्व
डॉ प्रमोद कुमार

भारतीय वेशभूषा सदियों से केवल परिधान की अभिव्यक्ति नहीं रही है, बल्कि वह भारतीय संस्कृति, परंपरा, सामाजिक मूल्य और पहचान का सजीव प्रतीक रही है। वेशभूषा के माध्यम से व्यक्ति न केवल अपनी सुविधा का ध्यान रखता है, बल्कि अपनी सांस्कृतिक जड़ों, धार्मिक विश्वासों और सामुदायिक अस्मिता को भी संजोता है। किंतु आधुनिकता, औद्योगिकीकरण और वैश्वीकरण के प्रभाव ने इस सांस्कृतिक धरोहर में गहरा परिवर्तन किया है। विशेष रूप से भारतीय पुरुषों ने अपनी पारंपरिक वेशभूषा—धोती, लुंगी, पगड़ी और कुर्ता—को त्यागकर पश्चिमी वस्त्र जैसे पैंट, शर्ट, कोट और टाई को बड़े पैमाने पर अपनाया है। यह परिवर्तन न केवल औपनिवेशिक मानसिकता और पेशेवर दबाव का परिणाम था, बल्कि आधुनिकता और सुविधा की चाह से भी प्रेरित था।
वेशभूषा केवल वस्त्र नहीं होती, बल्कि वह किसी समाज की संस्कृति, इतिहास, विचारधारा और सामूहिक मानस का प्रतीक होती है। भारत जैसे बहुरंगी समाज में वेशभूषा हमेशा से पहचान, अस्मिता और सामाजिक संरचना का अभिन्न हिस्सा रही है। किंतु आधुनिकता, औद्योगिकीकरण और वैश्वीकरण के प्रभाव से भारतीय परिधान संस्कृति में एक गहरा परिवर्तन आया है। विशेष रूप से भारतीय पुरुषों ने पारंपरिक भेषभूषा (धोती, कुर्ता, पगड़ी आदि) को बड़े पैमाने पर त्यागकर पश्चिमी परिधान (पैंट, शर्ट, सूट, टाई आदि) अपना लिए। इसके विपरीत, भारतीय महिलाएँ आज भी साड़ी, सलवार-कुर्ता या अन्य पारंपरिक परिधानों को बड़े पैमाने पर अपनाए हुए हैं, भले ही वे आंशिक रूप से पश्चिमी परिधान (जैसे जीन्स, टॉप, स्कर्ट आदि) का प्रयोग करती हों।
इसके विपरीत, भारतीय महिलाएँ आज भी परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन साधे हुए हैं। यद्यपि शहरी क्षेत्रों में महिलाओं ने जीन्स, टॉप या इंडो-वेस्टर्न परिधान अपनाए हैं, फिर भी साड़ी, सलवार-कुर्ता और दुपट्टा जैसे पारंपरिक वस्त्र उनकी पहचान का अभिन्न हिस्सा बने हुए हैं। यह संकोच या झुकाव कहीं न कहीं उस सामाजिक संरचना से जुड़ा है, जहाँ स्त्रियों के वस्त्रों को केवल उनकी पसंद का विषय नहीं माना जाता, बल्कि उनकी शालीनता, मर्यादा और परिवार की प्रतिष्ठा से जोड़ा जाता है। इस संदर्भ में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि क्या भारतीय महिलाएँ आज भी पुरुषसत्ता की मानसिकता के अधीन हैं, जहाँ उनके परिधान चयन पर सामाजिक और पारिवारिक दबाव हावी रहता है? या फिर यह परंपरा से जुड़ाव उनकी सांस्कृतिक अस्मिता और भारतीयता को बनाए रखने का एक स्वैच्छिक प्रयास है? यही जटिल द्वंद्व—परंपरा, पहचान और पुरुषसत्ता—इस विमर्श का केंद्र है।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि पुरुषों की तरह महिलाएँ क्यों पूर्ण रूप से पश्चिमी वस्त्रों की ओर प्रवृत्त नहीं हुईं? क्या इसके पीछे भारतीय सांस्कृतिक आग्रह, पारिवारिक परंपरा, सामाजिक मर्यादा और सौंदर्य दृष्टि है? या फिर यह संकेत है कि भारतीय महिलाएँ आज भी पुरुषसत्ता के नियंत्रण, ‘शालीनता’ की परिभाषा और पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण की गुलामी में जी रही हैं? इस लेख में हम इस प्रश्न का समाजशास्त्रीय, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और लैंगिक परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करेंगे।
1. भारतीय वेशभूषा का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक महत्व
भारतीय परिधान हजारों वर्षों की परंपरा और विविधता का प्रतीक हैं।
पुरुष परिधान: धोती, लुंगी, कुर्ता, अँगवस्त्रम, पगड़ी।
महिला परिधान: साड़ी, घाघरा-चोली, सलवार-कुर्ता, ओढ़नी।
धार्मिक और क्षेत्रीय पहचान: दक्षिण भारत की साड़ी की शैली, राजस्थान की ओढ़नी, उत्तर भारत की धोती-पगड़ी और उत्तर-पूर्व की पारंपरिक वेशभूषा सामाजिक पहचान के चिह्न हैं।
प्राचीन काल में वेशभूषा केवल शरीर ढकने का माध्यम नहीं थी, बल्कि वह धर्म, जाति, वर्ग, पेशा और क्षेत्र की पहचान से जुड़ी हुई थी।
2. उपनिवेशवाद और पश्चिमी परिधान का प्रभाव
ब्रिटिश शासन के दौरान पश्चिमी परिधान भारतीय पुरुषों के जीवन में प्रवेश करने लगे।
नौकरशाही और औपचारिक शिक्षा: पैंट-शर्ट और कोट-पैंट को आधुनिकता और प्रतिष्ठा का प्रतीक माना गया।
व्यावसायिकता: भारतीय पुरुषों ने ‘आधुनिक’, ‘सभ्य’ और ‘बौद्धिक’ दिखने के लिए पारंपरिक परिधान छोड़ दिए।
राजनीतिक नेता: महात्मा गांधी ने ‘खादी’ और ‘धोती’ को स्वदेशी और प्रतिरोध का प्रतीक बनाया, किंतु स्वतंत्रता के बाद भी बड़ी संख्या में पुरुष पश्चिमी परिधान की ओर लौटे।
इसके विपरीत, महिलाओं तक पश्चिमी परिधान उस स्तर पर नहीं पहुँच पाए।
3. पुरुषों द्वारा पारंपरिक भेषभूषा का परित्याग
सामाजिक दबाव और आधुनिकता की चाह: पुरुषों को रोजगार, दफ्तर और राजनीति में ‘पेशेवर छवि’ बनाए रखने के लिए पश्चिमी वस्त्रों की ओर झुकना पड़ा।
औपनिवेशिक मानसिकता: अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी कपड़े ‘सभ्यता’ का मानक बने।
सुविधा और व्यावहारिकता: धोती बाँधने की तुलना में पैंट-शर्ट को सुविधाजनक माना गया।
4. महिलाओं द्वारा परंपरा से जुड़ाव
महिलाओं ने पूर्ण रूप से पश्चिमी भेषभूषा क्यों नहीं अपनाई, इसके कई कारण हैं:
1. सांस्कृतिक अपेक्षाएँ: साड़ी और सलवार-कुर्ता को ‘शालीनता’ और ‘भारतीय स्त्रीत्व’ का प्रतीक माना गया।
2. परिवार और समाज का दबाव: परिवारों ने महिलाओं पर ‘पारंपरिक’ रहने का दबाव बनाए रखा।
3. धार्मिक मान्यताएँ: विवाह, पूजा, त्यौहार और सामाजिक अनुष्ठानों में पारंपरिक परिधान को अनिवार्य माना जाता है।
4. लैंगिक दृष्टि: पुरुषों के लिए परिधान केवल सुविधा और औपचारिकता का प्रश्न था, जबकि महिलाओं के लिए यह ‘चरित्र’ और ‘इज़्ज़त’ से जुड़ा रहा।
5. क्या महिलाएँ पुरुषसत्ता की गुलामी में हैं?
यह प्रश्न जटिल है।
हाँ, आंशिक रूप से:
महिलाओं के वस्त्र आज भी परिवार, समाज और पितृसत्तात्मक मान्यताओं द्वारा नियंत्रित हैं।
“क्या पहनना चाहिए और क्या नहीं” पर पुरुषसत्ता आज भी निर्देश देती है।
नहीं, पूरी तरह से नहीं:
शहरी महिलाओं ने जीन्स-टॉप, वेस्टर्न फॉर्मल्स और इंडो-वेस्टर्न पहनावे को आत्मसात किया है।
फैशन इंडस्ट्री ने महिलाओं को ‘चॉइस’ दी है, भले ही वह उपभोक्तावादी ढांचे से जुड़ी हो।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि महिलाएँ पूरी तरह गुलामी में नहीं हैं, किंतु अब भी वे परिधान के प्रश्न पर पुरुषसत्ता और परंपरा के द्वंद्व में फँसी हुई हैं।
6. शालीनता और चरित्र का स्त्री-केंद्रित विमर्श
भारतीय समाज में शालीनता की परिभाषा अक्सर महिलाओं के वस्त्रों से जुड़ी रही है।
छोटे वस्त्र = असंस्कारी या चरित्रहीन।
साड़ी या सलवार = पारंपरिक, मर्यादित और ‘आदर्श’।
यह मानक पुरुषों पर लागू नहीं हुआ। पुरुष चाहे पैंट-शर्ट पहनें या शॉर्ट्स, उनके चरित्र पर सवाल नहीं उठता। यही असमानता पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण का प्रमाण है।
7. आधुनिकता बनाम परंपरा का द्वंद्व
भारतीय महिलाएँ परिधान के मामले में एक मध्य मार्ग पर हैं:
वे साड़ी और सलवार के साथ आधुनिकता की झलक भी जोड़ती हैं।
कार्यक्षेत्र (जैसे दफ्तर, शिक्षा, मीडिया) में वेस्टर्न पहनावे का प्रयोग बढ़ा है।
किंतु विवाह और धार्मिक आयोजनों में वे आज भी पारंपरिक परिधान ही पहनती हैं।
8. स्त्री-स्वतंत्रता और वस्त्र चयन का अधिकार
वास्तविक स्वतंत्रता तब होगी जब महिलाओं को यह अधिकार होगा कि वे क्या पहनना चाहती हैं।
यदि कोई महिला साड़ी पसंद करती है तो वह उसकी स्वतंत्रता है।
यदि कोई जीन्स-टॉप पहनना चाहती है तो वह भी उसकी स्वतंत्रता होनी चाहिए।
समस्या तब है जब ‘चॉइस’ सामाजिक दबाव और पितृसत्ता से नियंत्रित होती है।
9. वैश्वीकरण और मीडिया का प्रभाव
फैशन इंडस्ट्री ने महिलाओं के लिए अनेक विकल्प प्रस्तुत किए हैं।
फिल्में और टीवी धारावाहिकों ने ‘भारतीय नारी’ की छवि को एक ओर आधुनिक, तो दूसरी ओर परंपरागत दिखाया है।
इससे महिलाएँ दोहरी पहचान के बीच जी रही हैं।
10. निष्कर्ष
भारतीय पुरुषों ने पारंपरिक वेशभूषा को लगभग त्याग दिया है और पश्चिमी परिधान को अपनाकर आधुनिकता और सुविधा का मार्ग चुना है। इसके विपरीत, भारतीय महिलाएँ पूर्ण रूप से पश्चिमी वस्त्र नहीं अपना पाईं क्योंकि उनका वस्त्र केवल ‘फैशन’ या ‘सुविधा’ का प्रश्न नहीं है, बल्कि सामाजिक मर्यादा, सांस्कृतिक परंपरा और पुरुषसत्ता के नियंत्रण से भी जुड़ा हुआ है।
भारतीय वेशभूषा का परिप्रेक्ष्य यह दर्शाता है कि परिधान केवल शरीर ढकने का साधन नहीं, बल्कि संस्कृति, अस्मिता और सामाजिक दृष्टिकोण का प्रतीक हैं। पुरुषों ने समय के साथ आधुनिकता, नौकरी और औपनिवेशिक प्रभाव के दबाव में अपनी पारंपरिक वेशभूषा का बड़े पैमाने पर परित्याग कर दिया, जबकि महिलाओं ने अब भी परंपरा से गहरा जुड़ाव बनाए रखा है। साड़ी, सलवार-कुर्ता और दुपट्टा जैसी वेशभूषाएँ आज भी उनके जीवन और पहचान का हिस्सा हैं। इसका कारण यह है कि महिलाओं के वस्त्र हमेशा से ‘शालीनता’, ‘चरित्र’ और ‘परिवार की इज़्ज़त’ जैसे मूल्यों से जोड़े गए हैं।
यह द्वंद्व इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि महिलाएँ पूर्ण स्वतंत्रता के बावजूद वस्त्र चयन में पुरुषसत्ता और सामाजिक अपेक्षाओं के दबाव से मुक्त नहीं हो पाई हैं। पुरुष चाहे किसी भी परिधान में हों, उनकी गरिमा पर प्रश्न नहीं उठता; जबकि महिलाओं के वस्त्र तुरंत उनकी मर्यादा और संस्कारों का पैमाना बना दिए जाते हैं। यही असमानता हमारे समाज की गहरी जड़ें जमाए पितृसत्तात्मक मानसिकता को उजागर करती है। फिर भी, यह भी सच है कि आधुनिक भारतीय महिलाएँ कार्यक्षेत्र, शिक्षा और सामाजिक जीवन में वेस्टर्न या इंडो-वेस्टर्न परिधान को अपनाकर अपनी चॉइस का विस्तार कर रही हैं। वे परंपरा और आधुनिकता के बीच संतुलन बनाने का प्रयास कर रही हैं।
अतः निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि भारतीय वेशभूषा का भविष्य तभी सार्थक और सशक्त होगा जब महिलाओं के परिधान को उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और पहचान के रूप में स्वीकार किया जाए, न कि पुरुषसत्तात्मक मर्यादाओं के बोझ तले आँका जाए। यही वास्तविक समानता और सांस्कृतिक आत्मविश्वास की दिशा है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि महिलाओं का आंशिक रूप से परंपरा से बँधे रहना पुरुषसत्ता का परिणाम भी है और सांस्कृतिक आग्रह का हिस्सा भी। महिलाओं के लिए वास्तविक स्वतंत्रता तभी संभव होगी जब समाज उनकी परिधान-चॉइस को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में माने, न कि ‘मर्यादा’ और ‘इज़्ज़त’ का पैमाना।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा



