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आज के व्यवसायीकरण के दौर में बाजारवाद का बोलबाला दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। सम्पूर्ण विश्व एक विशाल बाजार में बदलता जा रहा है। अधिकाधिक लाभ कमाने के चक्कर में व्यक्ति स्वार्थ में इतना अंधा हो गया है कि उसमें दूसरों के हित और लोक कल्याण की भावना दिनों दिन तिरोहित जा रही है। जो मानव श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों से भरा हुआ था, आज वह पशुवत आचरण करने की ओर उन्मुख है। शायद, इसीलिए श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी जैसे राजनेता का कवि हृदय यह कहने पर विवश हो उठा –
मनुष्य कितना भी ऊँचा उठे, मनुष्यता के स्तर से न गिरे, अपने धरातल को न छोड़े, अन्तर्यामी से मुँह न मोड़े।
प्राचीन काल में भारतीय मनीषियों ने मनुष्य के सर्वांगीण विकास एवं स्वस्थ समाज के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की कल्पना की थी। उपरोक्त गुणों से मनुष्य लौकिक एवं भौतिक जीवन के साथ-साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से भी समृद्ध होता था। आज अर्थ एवं काम की प्रधानता है, अन्य मूल्य दिनों दिन उपेक्षित होते जा रहे है। अतः ऐसे समय में लोगों का ध्यान मानव मूल्यों की सार्थकता एवं उसकी समााजिक उपयोगिता की तरफ आकृष्ट करना अति आवश्यक है।
मूल्यों का प्रारंभ परिवार से होता है। परिवार के दायरे से निकलकर मनुष्य व्यापक समाज में आता है। श्रेष्ठ मानवीय गुणों एवं मूल्यों के कारण ही मनुष्य को सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है, गोस्वामी तुलसीदास ने भी अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ रामचरितमानस में लिखा है “सबसे दुर्लभ मनुज सरीरा।” कहने का तात्पर्य यह है कि बचपन में ही परिवार से मूल्य मनुष्य जीवन में अंकुरित हो जाते है। इसी कारण मनुष्य में सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय, उचित अनुचित, नैतिक-अनैतिक में भेद करने का विवके आता है। मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है “मनुष्य है वही जो मनुष्य के लिए मरे”। मनुष्य जब मूल्यों से सिंचरित व पोषित होता तब उसका चित्त उदार व दयाशील हो जाता है। उसे सम्पूर्ण संसार का दुख, अपना दुख प्रतीत होता है। गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस की ये पंक्तियाँ अति प्रासंगिक ह-
परहित सरिस धर्म नहीं भाई। पर पीड़ा सम नहि अधमाई ।।
सम्पूर्ण संसार उसे कुटुम्ब के समान प्रतीत होता है। वह किसी भी अन्य मनुष्य को पीडित, शोषित व आतंकित नहीं करता। यही, हमारे ‘हितोपदेश’ में दिया गया ‘बसुधैव कुटुम्बकम की भावना है। जब हम सब एक हैं तो किसी को भी क्षति या दुख पहुंचाने का प्रश्न ही नही उठता।
आज हमें उन्ही सांस्कृतिक व प्राचीन मूल्यों की आवश्यकता है। हमें इन जीवन मूल्यों के मर्म को आत्मसात करना होगा। तभी मानव का मानव से मिलन होगा और नये बेहतर संसार का निर्माण होगा। हमें उस बेहतर सांसारिकता की ओर दृढता के साथ बढ़ना होगा। संस्कारों और मूल्यों से नयी आधारशिला बनानी होगी, जो किसी भी हिंसा, अराजकता व विषमताओं से टक्कर ले सके। किसी ने क्या खूब लिखा है “पांव मजबूत हो तो शत्रु डगमगा ही जाता है” हमारे शत्रु, हमारे अमानवीय गुण हैं जिनसे हमें बचना होगा।
नीति के श्लोकों में सदा हम पढ़ते है-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भागभवेत् ।
यह श्लोक सम्पूर्ण मानवता एवं मानवीय जीवन मूल्यों का सार है। सभी सुखी हो, सभी निर्भय एवं रोग मुक्त हों, सभी कल्याण को प्राप्त हों पर कैसे !!! जी हाँ। जीवन मूल्यों को संरक्षित एवं सुरक्षित करने पर ही यह संभव है। उत्थान एवं पतन दोनों की बीज मानव में ही निहित है। पंडित मदन मोहन मालवीय जी जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्थापक थे, अपनी वैश्विक सोच और विचारों के कारण युगद्रष्टा थे। उनका कहना था “घर में हमारा ब्राह्मण धर्म है, परिवार में सनातन धर्म है, समाज में हिन्दू धर्म है, देश में स्वराज्य धर्म है और विश्व में मानव धर्म है।” अतः आवश्यकता है उन्हीं सार्थक व सात्विक जीवन मूल्यों की जो “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” की भावना को जन्म देता है। दया, सदाचार, दीनता, सत्य, परोपकार, क्षमा, दया, मृदुता, संयम, दीनता आदि हमारे सनातन व शाश्वत मूल्य है। भाई-चारा, सहयोग, प्रेम आदि समाज में एक दूसरे को जोड़ने वाले मानवीय मूल्य हैं। प्रेम मनुष्य के सामाजिकता का मूल आधार है। इसके प्रचार-प्रसार से समाज में फैली कटुता एवं शत्रुता का भाव समाप्त कर शांति एवं सौहार्द स्थापित किया जा सकता है। इनके पालन से मनुष्य पूर्ण विकसित होकर पूर्ण मानव बनता है तथा वास्तविक मानवता का विकास होता है। लौकिक से पारलौकिक तक जाने का यही एक सुगम रास्ता है जो अद्धितीय व अलौकिक है। कबीर दास जी का कथन है-
“जल में कुम्भ है कुम्भ में जल है, बाहर भीतर पानी फूटा कुम्भ जल जलहीं सामना, यह तथ कथौ गियानी !!”
जी हां! एक हल्का सा आवरण है जो हमें अनायास ही अंधकार व अनैतिकता की ओर ले जाता है। सच्चा ज्ञान वही है जो सदकर्म को प्रेरित करे। इन्ही सदकर्मों का करते हुए हम उस अथाह सागर व जल में एकाकार हो जाते हैं।
तो आइये ! हम संकल्प लें कि परिवार, समाज, विद्यालय या अन्य किसी भी स्थान में अनैतिकता, अनाचार का साथ न देकर अपने स्वच्छ व नैतिक आचरण से एक मिसाल कायम करेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को मूल्य निष्ठ जीवन जीने का प्रण करना होगा, तभी स्वस्थ समाज, मानव एकता व विश्व शांति के लक्ष्य को प्राप्त कर सकेंगें। साथ ही आने वाली पीढी जीवन के सनातन मूल्यों को समझ कर उनको अपने जीवन में आत्मसात कर पायेगी। मानवता को बचाने का यह एक सच्चा प्रयास है।
अंत में यह कहना प्रासंगिक होगा कि “कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती”।