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विषय- नववर्ष

पं रामजस त्रिपाठी नारायण

प्रकृति सकल ठिठुरी ठिठुरी है, ठिठुरा है दिनमान।
ठिठुर रहा है सकल जमाना, ठिठुर रहा प्रतिमान।।
नहीं कहीं उत्कर्ष दिखे जग, नहीं कहीं भी हर्ष।
फिर भी भारत कहता दिखता,  मंगलमय नववर्ष।।

बिना तर्क की बातें सारी, बिना तर्क त्योहार।
नहीं कहीं कुछ अपना इसमें,सब कुछ मात्र उधार।।
अजब -गजब की परंपरा यह, अंग्रेजों की चाल।
अपना नववर्ष भूल गए हम, इसीलिए बदहाल।।

जब तक नहीं स्वयं पर होगा, अपनों का विश्वास।
कहो कहां फिर रात्रि बितेगी, होगा भोर उजास।।
भारतीय नववर्ष सुनहला, नव वसंत दर-म्यान।
चना मटर अरहर मसुरी से जब भरते खलिहान।।

कटहल लीची आम संग में, खिलते सारे फूल।
पक जाती हैं रवि की फसलें, पा मौसम अनुकूल।।
नवल अन्न से नवल रात्रि जब, नवल शक्ति हों पूज्य।
तब समझें नव वर्ष हमारा, रामनवमि सायुज्य।।

 

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