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हिंदी का मुकाबला अंग्रेजी से नहीं, खुद हिंदी से ही है: प्रभात रंजन

हिंदी बोल्ड और ब्यूटीफुल हो गई है. हिंदी का नया पाठक कथेतर साहित्य पढ़ना चाहता है. आप अगर ध्यान दें तो हाल के वर्षों उपन्यासों के साथ साथ बड़ी तादाद में कथेतर साहित्य लिखा गया है, अलग अलग तरह के विषयों पर लिखा गया है और उनको पाठकों ने बहुत पसंद किया.

नई दिल्ली: 

हमारे वक्त के सबसे चर्चित और स्थापित लेखकों में से एक हैं प्रभात रंजन. मगर वह महज एक लेखक भर नहीं है, बल्कि एक यात्री, संस्मरणकार और अनुवादक भी है. काफी अरसा पहले उन्होंने 'कोठागोई' नाम की एक किताब लिखी थी, जो काफी चर्चा में रही थी. इसके कई सालों बाद संस्मरण विधा पर उनकी दूसरी किताब आई. विषय थे- मनोहर श्याम जोशी. अपने जमाने के मशहूर और चर्चित लेखक, स्क्रिप्टराइट और संपादक. लेखन के अलावा प्रभात रंजन जानकीपुल.कॉम नाम का ब्लॉग भी चलाते हैं और दिल्ली यूनिवर्सिटी के जाकिर हुसैन कॉलेज में प्रोफेसर भी है. आज-कल की नई चलन की हिंदी पर उनकी काफी अच्छी पकड़ है और वह नए लेखकों को सराहते भी खूब हैं. इसके अलावा बातचीत भी बहुत अच्छी कर लेते हैं. हाल ही में उनसे हिंदी, उसके लेखक और उन लेखकों की भूमिका को लेकर बातचीत हुई, जिसके कुछ अंश आप यहां पढ़ सकते हैं. 

प्रश्न- पहली किताब कोठागोई और उसके बाद पालतू बोहेमियन के बीच आपने काफी लंबा ब्रेक लिया. इस बीच क्या करते रहे?

उत्तर- कोठागोई मुज़फ़्फ़रपुर के तवायफ़ों की संगीत परम्परा पर एक शोधपरक पुस्तक थी, जिसको लोगों ने ख़ूब पसंद किया. मेरी उम्मीद से अधिक. इसलिए लेखक के रूप में मुझे लगने लगा कि अगली किताब भी ऐसी लिखूं जो पढ़ने वालों को न सिर्फ़ पसंद आए बल्कि उनको उस किताब से कुछ नया जानने को भी मिले. तब मनोहर श्याम जोशी के ऊपर संस्मरण-पुस्तक लिखना शुरू किया. वे साहित्य की विभूति तो थे ही, टीवी-धारावाहिकों के स्टार लेखक थे, साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी अपने ज़माने की अत्यंत लोकप्रिय पत्रिका के संपादक रहे. वे मेरे गुरु थे और मेरे कैरियर-लेखन को दिशा देने में उनकी बड़ी भूमिका थी. लेकिन मैं बार बार लिखकर यह प्रयास करता रहा कि उनके जीवन को, उनके काम को इस प्रकार से प्रस्तुत करूं जो आज की पीढ़ी के लेखकों के लिए प्रेरक हो. इसके अलावा, मैं अनुवादक हूं और इस दौरान मैंने कई अच्छी किताबों के अनुवाद किए, जैसे सत्य नडेला की किताब ‘हिट रिफ़्रेश', रघुराम आर राजन की किताब ‘आई डु व्हाट आई डु' आदि. 

प्रश्न- आपकी दोनों किताबें हिंदी के प्रचलित दायरे से अलग मुद्दों पर है, तो क्या यह माना जाना चाहिए कि हिंदी बोल्ड और ब्यूटीफुल हो रही है?

उत्तर- हिंदी बोल्ड और ब्यूटीफुल हो गई है. हिंदी का नया पाठक कथेतर साहित्य पढ़ना चाहता है. आप अगर ध्यान दें तो हाल के वर्षों उपन्यासों के साथ साथ बड़ी तादाद में कथेतर साहित्य लिखा गया है, अलग अलग तरह के विषयों पर लिखा गया है और उनको पाठकों ने बहुत पसंद किया. ‘पालतू बोहेमियन' संस्मरण विधा की पुस्तक है. मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि संस्मरण की एक पुस्तक को लेखकों-पाठकों का इतना प्यार मिलेगा. यह बताता है कि हिंदी का नया पाठक अलग-अलग विधाओं की पुस्तकों में पहले से अधिक दिलचस्पी लेने लगा है. 

प्रश्न- हिंदी के कई ओरवरेडेट लेखक रहे हैं. कोई ऐसा अंडररेटेड लेखक जिसे समय रहते समझा न गया हो? और बाद में काफी प्रसिद्धि हुआ हो?

उत्तर- आप सही कह रहे हैं कि हिंदी में ओवररेटेड बहुत हुए. मुझे लगता है कि राजकमल चौधरी एक ऐसे लेखक थे जिनको महज़ 37 साल का जीवन मिला. उनके जीवन काल में और उनके निधन के बाद भी साहित्य के एक बड़े वर्ग में उनके जीवन को लेकर तरह तरह की किंवदंतियाँ कही-सुनाई जाती रही, उनके साहित्य की बहुत कम चर्चा हुई, लेकिन समय के साथ एक ऐसी पीढ़ी आई जो उनसे प्रभावित हुई. उनके लेखन का महत्व समझा जाने लगा. मेरा ऐसा मानना है कि स्वातंत्र्योत्तर हिंदी लेखकों में थे जिन्होंने समस्त परम्पराओं से विद्रोह किया. 

प्रश्न- कहा जा रहा है कि हिंदी में छपने के लिए 'गॉड फादर' का होना जरूरी है. आपके पास भी थे (हंसते हुए). क्या आज के लेखकों के लिए भी किसी 'गॉड फादर' का होना जरूरी है?

उत्तर- हाहाहा... मेरे गॉडफादर मनोहर श्याम जोशी थे, आपने सही कहा. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि उनके कारण मुझे नौकरियां तो अनेक मिली लेकिन साहित्य में, लेखन में उनके होने का मुझे ख़ास लाभ नहीं मिला. जब मैं उनके संपर्क में आया तब न तो वे किसी पत्रिका के संपादक थे, न ही किसी संस्था में थे. इसलिए वे चाहकर भी मेरे लिए कुछ कर नहीं सकते थे. आज गॉडफादर का होना ज़रूरी तो नहीं रह गया है, सोशल मीडिया के कारण लेखकों की पहचान बन जा रही है. लेकिन आज गॉडफादर का स्थान प्रकाशकों ने ले लिया है. अच्छे से अच्छे लेखन को अगर अच्छा प्रकाशक न मिले, तो उसको बड़ा पाठक वर्ग नहीं मिल सकता. 

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