लेख

“मध्यमवर्गी युवा और पश्चिमी सभ्यता का द्वंद्व: भाषा-संकट में उलझा नई पीढ़ी का आत्मसंघर्ष”

डॉ प्रमोद कुमार

भारत विविधताओं से भरा हुआ राष्ट्र है जिसमें वर्गभेद प्रमुख समस्याओं में से एक है। अमीर और गरीब अपनी जगह स्थिर हैं ना पाने का संघर्ष ना खाने का भय वहीं मध्यमवर्ग पाने-खाने के जिद्दोजहद में पिसा हुआ है। आज मध्यमवर्गीय युवा भारतीय समाज के सबसे जटिल और तेजी से बदलते हुए वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस वर्ग में मौजूद युवा न तो पूरी तरह पारंपरिक सामाजिक ढाँचे के अनुरूप जीवन जी पा रहे हैं और न ही पूरे आत्मविश्वास के साथ पश्चिमी सभ्यता के मॉडल को अपनाकर सहज रह पा रहे हैं। उनकी पहचान, उनकी भाषा, उनके विचार और उनकी आकांक्षाएँ—सब एक ऐसे संक्रमण से गुजर रहे हैं, जिसने उन्हें आत्मसंघर्ष के एक अनवरत दौर में डाल दिया है। विशेष रूप से भाषा का संकट उनके जीवन में एक गहरे मनोवैज्ञानिक और सांस्कृतिक द्वंद्व का कारण बना हुआ है। वे अंग्रेजी सीखना चाहते हैं क्योंकि यह अवसर, रोजगार, प्रतिष्ठा और आधुनिकता की भाषा बन चुकी है; लेकिन वे इसे सहजता से सीख नहीं पाते। दूसरी ओर वे अपनी मातृभाषा—विशेषकर हिंदी—को भी उसी आत्मविश्वास और स्वाभाविक गर्व के साथ नहीं बोल पाते, जैसे पहले की पीढ़ियाँ बोलती थीं। परिणाम यह कि युवा वर्ग के भीतर एक ऐसी खाई बनती जा रही है जिसमें वे न तो पश्चिमी दुनिया का हिस्सा बन पा रहे हैं और न ही अपनी स्वयं की भारतीय पहचान का संरक्षण कर पा रहे हैं। यह द्वंद्व केवल भाषाई समस्या नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक असंतुलन का वह दर्पण है जो हमारी शिक्षा प्रणाली, सामाजिक अपेक्षाओं, आर्थिक दबावों और वैश्वीकरण की तेज़ रफ़्तार से उपजा है।

भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार में पले-बढ़े युवाओं की भाषा पर सबसे पहला नियंत्रण उनके परिवार और उनके आसपास की सामाजिक संरचना का होता है। बचपन से ही परिवार उन्हें हिंदी, उर्दू, पंजाबी, मराठी, बंगाली जैसी मातृभाषाएँ सिखाता है, लेकिन जैसे ही बच्चा विद्यालय जाने की उम्र में आता है, पूरा सामाजिक दबाव अंग्रेजी माध्यम पर स्थानांतरित हो जाता है। यह दबाव इतना अधिक बढ़ चुका है कि अंग्रेजी न जानना आज अकुशलता, पिछड़ेपन और असफलता का प्रतीक समझा जाने लगा है। मध्यमवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में इसलिए भेजते हैं ताकि उनके भविष्य में आर्थिक और सामाजिक प्रतिष्ठा की संभावनाएँ खुलें। लेकिन यही निर्णय आगे चलकर युवा के आत्मविश्वास के संतुलन को हिला देता है। अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ने वाला बच्चा अक्सर अपने घर की भाषा के साथ तालमेल बिठाने में कठिनाई महसूस करता है, जबकि घर में मातृभाषा बोलने वाला बच्चा स्कूल में अंग्रेजी की अपेक्षाओं से भयभीत रहता है। यह द्वंद्व बचपन से ही एक मानसिक दबाव का निर्माण कर देता है, जिसका असर उनके संपूर्ण व्यक्तित्व पर पड़ता है।

जैसे-जैसे युवा उच्च शिक्षा और नौकरी की ओर बढ़ते हैं, यह भाषा-संकट और गहरा हो जाता है। भारत की बड़ी कंपनियों, निजी संस्थानों, तकनीकी क्षेत्रों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों में अंग्रेजी अनिवार्य भाषा बन चुकी है। इंटरव्यू, समूह चर्चा, प्रेजेंटेशन, ईमेल, रिपोर्ट इत्यादि कुछ भी बिना अंग्रेजी के संभव नहीं है। ऐसे में मध्यमवर्गीय युवा, जिनकी शिक्षा पृष्ठभूमि अक्सर मिश्रित या कमजोर अंग्रेजी आधार वाली होती है, आत्मग्लानि और संकोच का शिकार होने लगते हैं। वे जानते हैं कि अंग्रेजी एक कौशल है, परंतु उसे सीखने के लिए जिस वातावरण और संसाधनों की आवश्यकता होती है, वह हर युवा को समान रूप से उपलब्ध नहीं होता। ग्रामीण पृष्ठभूमि, सरकारी स्कूलों, छोटे कस्बों और सीमित सुविधाओं से आने वाले युवा इस प्रतिस्पर्धी माहौल में स्वयं को पिछड़ा हुआ महसूस करने लगते हैं। यह भावना धीरे-धीरे उनके आत्मविश्वास को खोखला करती है, जिसके कारण वे प्रस्तुतिकरण, वाद-विवाद, समूह चर्चाओं या सार्वजनिक बोलने से कतराने लगते हैं। लेकिन समस्या केवल अंग्रेजी की कमी तक सीमित नहीं है। दूसरी ओर हिंदी—जिस पर कभी गर्व किया जाता था—अब ‘कम-प्रतिष्ठित’ भाषा की श्रेणी में डाल दी गई है। शहरी युवा हिंदी बोलते हुए हल्की-सी शर्म महसूस करते हैं, विशेषकर तब, जब उन्हें लगता है कि हिंदी में बोलना ‘कम पढ़ा-लिखा’ होने की निशानी है। इसका कारण यह नहीं कि हिंदी में कोई कमी है, बल्कि यह है कि आधुनिक शिक्षा प्रणाली और बाज़ार-चालित सांस्कृतिक मॉडल ने अंग्रेजी को सफलता का एकमात्र मानदंड बना दिया है। ऐसे माहौल में युवाओं की मातृभाषाएँ या तो हाशिये पर चली जाती हैं या फिर औपचारिक और पेशेवर जीवन से पूरी तरह बाहर हो जाती हैं। युवा अंग्रेजी सीखना चाहते हैं, लेकिन उनके भीतर मातृभाषा को पूर्णतः छोड़ देने का आत्मविश्वास या स्वीकृति नहीं होता। इसी द्वंद्व में वे न पूरी तरह अंग्रेजी अपनाते हैं और न ही हिंदी को सम्मानित रूप से साध पाते हैं। भाषा का यह तनाव उनकी मौलिकता को प्रभावित करता है, और उनका व्यक्तित्व ‘आधा-अधूरा’ सा रह जाता है।

भाषा-संकट का यह द्वंद्व केवल व्यक्तिगत मनोविज्ञान का विषय नहीं है; यह भारत की सांस्कृतिक बनावट और औपनिवेशिक विरासत से जुड़ा हुआ प्रश्न है। अंग्रेजों के जाने के बाद भी भारत में अंग्रेजी को ज्ञान, बुद्धिमत्ता और आधुनिकता का प्रतीक मान लिया गया। यह मानसिकता इतनी गहरी पैठ कर चुकी है कि आज भी विश्वविद्यालय, न्यायपालिका, प्रशासनिक सेवाएँ और उच्च सरकारी पद अंग्रेजी-केंद्रित बने हुए हैं। इसी कारण मध्यमवर्गीय युवा, जो अपनी पहचान और क्षमता को लेकर पहले से ही संघर्षरत रहते हैं, इस दोहरी व्यवस्था में दिशा खोज नहीं पाते। वे जितना अधिक अंग्रेजी सीखने की कोशिश करते हैं, उतना ही अधिक हिंदी से दूर होते जाते हैं। और जितना हिंदी बोलते हैं, उतना ही अंग्रेजी में आत्मविश्वास खो देते हैं। यह दोहरी उलझन उन्हें सामाजिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से विखंडित कर देती है।

पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव इस भाषा-द्वंद्व को और तीव्र बनाता है। फिल्मों, वेब श्रृंखलाओं, फैशन, संस्कृति, जीवनशैली और विज्ञापनों के माध्यम से पश्चिमी संस्कृति भारतीय युवाओं को आधुनिकता का दर्पण दिखाती है। अंग्रेजी बोलना, अंग्रेजी में सोचना और अंग्रेजी में व्यक्त होना—इन सबको आजकल ‘स्मार्टनेस’ का प्रतीक माना जाने लगा है। सोशल मीडिया पर अंग्रेजी की प्रभुता ने युवाओं में एक मनोवैज्ञानिक दबाव पैदा कर दिया है कि उन्हें अंग्रेजी में पोस्ट लिखनी चाहिए, अंग्रेजी में कैप्शन देने चाहिए, अंग्रेजी में बातचीत करनी चाहिए—अन्यथा वे आधुनिक और सक्षम नहीं माने जाएँगे। यह दबाव विशेष रूप से मध्यमवर्गीय युवाओं को प्रभावित करता है क्योंकि यह वर्ग आधुनिकता अपनाना भी चाहता है और अपनी जड़ों से भी पूरी तरह कटना नहीं चाहता। इसी कारण वे पश्चिमी सभ्यता और भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों के बीच निरंतर झूलते रहते हैं।

इस द्वंद्व का परिणाम यह है कि युवाओं की रचनात्मक सोच, भाषाई अभिव्यक्ति, और आत्म-विश्वास का विकास बाधित होता है। कई युवा बातचीत करते समय ‘हिंग्लिश’ का सहारा लेते हैं—जो किसी भी भाषा में पूर्ण दक्षता नहीं देता। हिंग्लिश का यह प्रयोग कभी-कभी संचार में सहजता लाता तो है, परंतु यह भाषा के मूल स्वरूप और अभिव्यक्ति की क्षमता को कमजोर भी करता है। धीरे-धीरे युवा यह महसूस करने लगते हैं कि वे किसी भी भाषा में पूर्ण अभिव्यक्ति करने में सक्षम नहीं हैं। यह संकट केवल भाषाई नहीं, बल्कि सांस्कृतिक अस्तित्व और आत्म-पहचान का संकट है। क्योंकि भाषा केवल संचार का माध्यम नहीं, बल्कि विचार, भावना, संस्कृति और मूल्य की संरचना है। जब भाषा ही अस्थिर हो जाती है, तो आत्म-परिचय भी अस्थिर होने लगता है। इसके अतिरिक्त, भारत की शिक्षा व्यवस्था इस संकट को हल करने के बजाय और गहरा कर देती है। स्कूलों में बच्चे को अंग्रेजी में बोलने के लिए पुरस्कृत किया जाता है और हिंदी बोलने पर अक्सर उसे ‘अनुशासनहीन’ या ‘कमज़ोर’ समझा जाता है। उच्च शिक्षा में शोध-पत्रों, प्रोजेक्टों और प्रस्तुतियों के लिए अंग्रेजी अनिवार्य कर दी जाती है। ऐसे में युवा न अपनी मातृभाषा में ज्ञान-विकास कर पाते हैं और न अंग्रेजी में इतनी दक्षता अर्जित कर पाते हैं कि वे वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा कर सकें। परिणामतः वे निज़ी संघर्ष, आत्म-संदेह और हीनभावना से घिर जाते हैं।
समाज के स्तर पर भी इस समस्या का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। भाषा को एक सामाजिक-सांस्कृतिक प्रतिष्ठा के रूप में देखा जाने लगा है। अंग्रेजी बोलने वाला व्यक्ति ‘एलिट’ माना जाता है, जबकि हिंदी बोलने वाला ‘सामान्य’। इस सोच ने सामाजिक वर्ग विभाजन को और तीखा कर दिया है, जिससे युवा वर्ग में असमानता का भाव उत्पन्न होता है। मध्यमवर्गीय युवा—जो पहले ही आर्थिक संसाधनों के लिए संघर्षरत होता है—अब भाषा के माध्यम से भी एक नई सामाजिक परीक्षा का सामना कर रहा है। इस स्थिति में सबसे अधिक क्षति युवा के आत्मविश्वास की होती है। आत्मविश्वास किसी भी युवा के लिए भविष्य-निर्माण की सबसे महत्वपूर्ण कुंजी है, और जब वही भाषा-संकट के कारण टूटने लगता है, तो उसका प्रभाव शिक्षा, करियर, व्यक्तित्व और रिश्तों—हर क्षेत्र में दिखाई देता है। कई युवा केवल इसलिए अवसरों से चूक जाते हैं क्योंकि वे अंग्रेजी में सहजता से संवाद नहीं कर पाते। कई युवा इसलिए शर्मिंदगी महसूस करते हैं क्योंकि वे अपनी मातृभाषा को गर्व से बोल नहीं पाते। यह दोहरा भावनात्मक दबाव उन्हें ‘अभिव्यक्ति-विहीन’ बनाता जा रहा है।

हालाँकि इस द्वंद्व का समाधान किसी एक दिशा में नहीं छिपा है। समाधान संतुलन में है—अपनी जड़ों से जुड़े रहकर आधुनिकता को अपनाने में है। अंग्रेजी सीखना गलत नहीं है; गलत है अपनी भाषा, अपनी पहचान और अपनी सांस्कृतिक आत्मा को कमतर समझना। युवा वर्ग को यह समझने की आवश्यकता है कि विश्व में सभी विकसित देश अपनी मातृभाषा के बल पर ही उन्नति कर पाए हैं। भाषा कोई आर्थिक बोझ नहीं, बल्कि मानसिक स्वतंत्रता और सांस्कृतिक आत्मनिर्भरता की नींव है। इसलिए आवश्यकता है उस वातावरण की, जहाँ हिंदी और अंग्रेजी—दोनों का सम्मान बना रहे और युवा बिना किसी संकोच के दोनों भाषाओं में आत्मविश्वास से संवाद कर सकें।

आज का मध्यमवर्गीय युवा एक ऐसी राह पर खड़ा है जहाँ उसे आधुनिक जगत की आवश्यकता और अपनी सांस्कृतिक पहचान के बीच सामंजस्य स्थापित करना है। यह संघर्ष कठिन अवश्य है, लेकिन असंभव नहीं। भाषा का संकट तभी समाप्त होगा जब समाज, शिक्षा प्रणाली और युवा स्वयं भाषा को बोझ नहीं, बल्कि अवसर और अभिव्यक्ति का माध्यम मानेंगे। तभी हमारी नई पीढ़ी इस आत्मसंघर्ष से मुक्त होकर सशक्त, आत्मविश्वासी और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध नागरिक बन सकेगी—जो न केवल अपने राष्ट्र की पहचान को मजबूती देंगे, बल्कि वैश्विक स्तर पर भारत को एक बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक और आत्मगौरवपूर्ण विकसित व अखण्ड राष्ट्र के रूप में स्थापित करेंगे। जय हिंद जय भारत।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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