“संत, ग्रंथ और पंथ का मार्ग: संस्कृति-संवर्धन और राष्ट्रीय चेतना के नवाचार का आधार”
डॉ प्रमोद कुमार

भारतीय सभ्यता हजारों वर्षों पुरानी, बहुधर्मी, बहुरंगी और अत्यंत समृद्ध संस्कृति का उदाहरण है। इस विशाल सांस्कृतिक धरोहर को समय-समय पर अनेक संतों, ग्रंथों और पंथ परंपराओं ने न केवल संरक्षित किया है, बल्कि समाज में नवचेतना, राष्ट्रीय एकता और मानवता के उच्चतम मूल्यों का प्रसार भी किया है। भारतीय संस्कृति की हर धारा में संतों की वाणी, ग्रंथों का ज्ञान और पंथों की साधना एक ऐसे त्रिवेणी संगम के रूप में दिखाई देती है, जिसने न केवल अतीत को सुव्यवस्थित किया बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए भी एक नवाचार-सम्पन्न मार्ग निर्मित किया। यही त्रयी—संत, ग्रंथ और पंथ—भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान, राष्ट्रीय चेतना के जागरण और आध्यात्मिक-सामाजिक नवाचार की आधारशिला मानी जाती है।
भारतीय समाज में ‘संत’ शब्द केवल आध्यात्मिक गुरु के लिए नहीं, बल्कि समाज-सुधारक, विचारक, दार्शनिक, मार्गदर्शक और मानवता के संवाहक के रूप में देखा जाता है। भारत की संत-परंपरा अत्यंत विस्तृत है—कबीर, तुलसी, नानक, रैदास, चैतन्य महाप्रभु, बसवेश्वर, ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, दयानंद सरस्वती, संत रविदास, बुद्ध, महावीर, गुरु घासीदास, नारायण गुरु, अक्कमहादेवी और अनगिनत संतों ने समाज को दिशा दी। इन संतों ने अपने जीवन, आचरण और उपदेशों के माध्यम से समाज में मानवता, समानता, करुणा, सत्य, धर्म, प्रेम और श्रम की महत्ता को स्थापित किया। वे किसी एक वर्ग या समुदाय के संत नहीं थे; वे सार्वभौमिक विचारों के प्रतिनिधि थे। संतों की वाणी ने न केवल धार्मिक अंधविश्वासों, सामाजिक कुरीतियों, जाति-भेद, भेदभावपूर्ण विचारों और रूढ़ियों का विरोध किया, बल्कि मानव जीवन को सरलता, नैतिकता और विवेकपूर्ण दृष्टि से जीने की प्रेरणा भी दी। उनके उपदेश जीवन की यथार्थ समस्याओं से जुड़े थे और लोगों की आत्मा को छूते थे। इसी कारण भारतीय समाज सदियों तक संतों द्वारा दिए गए नैतिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मार्गदर्शन पर चलता रहा, जिससे राष्ट्रीय चेतना का निर्माण होता गया।
इसी त्रयी का दूसरा स्तंभ है—‘ग्रंथ’। भारतीय ग्रंथ परंपरा दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन, विशाल और विविध साहित्यिक धरोहरों में से एक है। वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, पुराण, जैन आगम, बुद्ध वचन, धम्मपद, गुरुग्रंथ साहिब, तिरुक्कुरल, रामचरितमानस, सुगम साहित्य, भक्ति-काल के दोहे-चौपाइयाँ, नानक बानी, संत-ग्रंथ, योगसूत्र, अर्थशास्त्र, नाट्यशास्त्र, विज्ञान, आयुर्वेद, साहित्य, राजनीति, धर्म, मानवता और संस्कृति पर आधारित अनगिनत ग्रंथ हमारी ज्ञान परंपरा को जीवंत रखते आए हैं। इन ग्रंथों में केवल धार्मिक कथाएँ नहीं हैं, बल्कि मानव-जीवन की समस्याओं का समाधान, चरित्र निर्माण की प्रेरणा, नैतिकता का आधार, समाज-व्यवस्था के सिद्धांत, राजनीति का मार्गदर्शन, सांस्कृतिक व्यवहार के नियम और आध्यात्मिकता की उच्चतम व्याख्या भी मिलती है। भारतीय ग्रंथों का वैशिष्ट्य यह है कि वे केवल पूजा-अर्चना के साधन नहीं, बल्कि जीवन की पाठशाला हैं। वे मनुष्य को आत्मानुशासन, सत्य, अहिंसा, करुणा, तप, विवेक, संयम, त्याग और परोपकार जैसे जीवन-मूल्यों का मार्ग दिखाते हैं। ग्रंथों की यह ज्ञान-परंपरा हर युग में समाज को दिशा देती रही है और हर संकट के समय राष्ट्रीय एकता, नैतिकता और सांस्कृतिक चेतना का आधार बनी।
इस त्रयी का तीसरा और अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्तंभ है—‘पंथ’। भारत में पंथ शब्द का अर्थ मात्र धर्म-मत या किसी संप्रदाय से नहीं है; यहाँ पंथ का अर्थ एक मार्ग, एक जीवन-दृष्टि, एक विरासत और एक आध्यात्मिक साधना-पद्धति है। पंथों ने समाज में विविधता को समृद्धि के रूप में स्वीकार किया है। वैदिक पंथ, बौद्ध पंथ, जैन पंथ, नाथ पंथ, शैव-पंथ, वैष्णव पंथ, सूफी पंथ, सिद्ध पंथ, नानक पंथ, कबीर पंथ, रैदास पंथ, दास्य पंथ, शाक्त पंथ आदि ने अपने-अपने विचारों के माध्यम से भारतीय समाज में सहिष्णुता, संवाद, आध्यात्मिकता, समरसता और एकता की परंपरा को मजबूत किया है। पंथों का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने अनगिनत विविधताओं के बावजूद समाज को जोड़ने का कार्य किया। भारत जैसे विशाल देश में जीवन-दृष्टियों की इतनी विविधता होते हुए भी पंथों ने सदैव यह संदेश दिया कि मार्ग भिन्न हो सकते हैं, लेकिन लक्ष्य एक ही है—मानव कल्याण, आत्मोन्नति और सत्य की प्राप्ति।
संतों की वाणी, ग्रंथों का ज्ञान और पंथों की साधना—ये तीनों मिलकर ‘संस्कृति-संवर्धन’ का एक जीवंत तंत्र बनाते हैं। संस्कृति कोई स्थिर वस्तु नहीं, बल्कि एक निरंतन विकसित होने वाली प्रक्रिया है। इसकी जड़ें अतीत में होती हैं, लेकिन इसका शरीर वर्तमान में और विस्तार भविष्य में होता है। संतों ने संस्कृति को रूढ़ियों से मुक्त किया, ग्रंथों ने उसे ज्ञान और विवेक प्रदान किया, जबकि पंथों ने उसे व्यवहारिक और सामाजिक रूप से जीवित रखा। इन तीनों का संगम राष्ट्रीय चेतना का आधार बना। संस्कृति-संवर्धन तभी संभव होता है जब समाज अपने मूल्यों के प्रति जागरूक हो, अपने अतीत के प्रति सम्मान रखे, अपने वर्तमान को अनुशासित बनाए और अपने भविष्य के लिए मार्ग सुनिश्चित करे। यह प्रक्रिया संतों की शिक्षा, ग्रंथों के संदेश और पंथ परंपराओं की जीवंत साधना के माध्यम से ही संभव होती है।
राष्ट्रीय चेतना का उदय राष्ट्र की आत्मा में जागृत उस ऊर्जा से होता है जो उसे एकता, समरसता, बंधुत्व, संस्कृति-गौरव, कर्तव्य-बोध और मानवता के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है। भारत की राष्ट्रीय चेतना धार्मिक सीमाओं से परे जाती है। यह चेतना किसी एक संप्रदाय या एक जाति की नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत की है। जब भी भारत में सामाजिक विघटन, विभाजन, भेदभाव, अन्याय या अराजकता बढ़ी, संतों ने जनता को जागरूक किया और सही मार्ग दिखाया। चाहे स्वामी विवेकानंद का राष्ट्रवाद हो, संत-कवियों का सामाजिक सुधार हो या गुरु नानक का समरसता संदेश—हर युग में संतों की वाणी ने भारतीय समाज को जोड़ने का कार्य किया। इसी प्रकार ग्रंथों ने मनुष्य को कर्तव्य, धर्म, प्रेम, सत्य, कार्य-निष्ठा और राष्ट्रीय समर्पण का मार्ग दिखाया। ग्रंथों में वर्णित धर्म का अर्थ राष्ट्र-निर्माण, समाज-सेवा, नैतिकता और मानव कल्याण के कार्य से जुड़ा है। इसीलिए भगवद्गीता ‘नैतिक साहस’, गुरु ग्रंथ साहिब ‘समानता’, धम्मपद ‘अहिंसा’, वेद ‘ज्ञान’, उपनिषद ‘आत्म-बोध’ और रामायण ‘कर्तव्य’ का संदेश देती है। यही संदेश राष्ट्रीय चेतना का निर्माण करते हैं।
पंथों ने राष्ट्र के सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को एकजुट रखा है। पंथ चाहे किसी भी परंपरा से जुड़े हों, वे सभी मानव कल्याण, एकता और समरसता की बात करते हैं। उन्होंने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्रीय चेतना को मजबूत किया है। भारत की पंथ परंपराएँ दुनिया को यह संदेश देती हैं कि विविधता संघर्ष का नहीं, बल्कि समृद्धि का आधार है। यही विविधता राष्ट्र को अधिक सशक्त, अधिक संतुलित और अधिक विशाल बनाती है। यह पंथ परंपरा भारत में सह-अस्तित्व, संवाद, स्वीकार्यता और आध्यात्मिक लोकतंत्र की नींव रखती है।
संतों-ग्रंथों-पंथों की त्रयी केवल आध्यात्मिक या धार्मिक स्तर पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भी नवाचार प्रस्तुत करती है। सामाजिक स्तर पर इस त्रयी ने बराबरी, न्याय, मानवाधिकार, स्त्री-मानवाधिकार, दलित-उद्धार, शिक्षा-सुलभता, श्रम-मूल्य, करुणा, सहिष्णुता और सेवा को जीवन का आधार बनाया। यह त्रयी समाज को एक ऐसी दिशा प्रदान करती है जो वर्ग, जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्रीय सीमाओं से परे जाती है। इसने समाज में मानवता की वह ऊँचाई स्थापित की है जहाँ हर व्यक्ति को सम्मान, प्रेम और समान अवसर प्राप्त हो। राजनीतिक स्तर पर यह त्रयी लोकतांत्रिक मूल्यों, सहिष्णुता, सत्य, नैतिकता, आत्म-नियंत्रण और राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखने की प्रेरणा देती है। भारत जैसे लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए यह चेतना अत्यंत आवश्यक है।
इन सबके केंद्र में ‘नवाचार’ का विचार है। नवाचार केवल तकनीक या विज्ञान का विषय नहीं है; यह एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। नवाचार का अर्थ है—नए विचारों को स्वीकार करना, पुराने विचारों को सुधारना और समाज को एक नई दिशा देना। संतों ने नवाचार इसलिए किया क्योंकि उन्होंने रूढ़ियों को चुनौती दी, पाखंड को तोड़ा, समाज की समस्याओं को समझा और उन्हें मानवतावादी समाधान दिए। ग्रंथों ने नवाचार इसलिए किया क्योंकि उन्होंने हर युग के अनुकूल विचारों का प्रसार किया, आत्मा की स्वतंत्रता को मान्यता दी और ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाया। पंथों ने नवाचार इसलिए किया क्योंकि उन्होंने विविधता को अपनाया, लचीला मार्ग दिया और मनुष्य को आत्म-अन्वेषण की स्वतंत्रता प्रदान की।
आज का भारत तेजी से बदल रहा है। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अर्थव्यवस्था, शिक्षा, राजनीति और सामाजिक संरचना में बड़े परिवर्तन हो रहे हैं। ऐसे समय में संस्कृति-संवर्धन केवल अतीत की पूजा का विषय नहीं, बल्कि यह एक सक्रिय और जागरूक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया को सफल बनाने के लिए संतों की दृष्टि, ग्रंथों का ज्ञान और पंथों की सरल साधना आवश्यक है। यह त्रयी आज भी हमें मार्ग दिखाती है, यह समझाती है कि आधुनिकता का अर्थ अपनी जड़ों से कट जाना नहीं, बल्कि अपनी जड़ों को पोषित करके भविष्य की ओर बढ़ना है। आज आवश्यक है कि समाज संतों की नैतिकता को अपनाए, ग्रंथों के ज्ञान को व्यवहार में लाए और पंथों की समरसता परंपरा का पालन करे। यही मार्ग भारत को एक समृद्ध, विकसित, संवेदनशील और सांस्कृतिक रूप से शक्तिशाली राष्ट्र बनाता है।
अंततः कहा जा सकता है कि संत, ग्रंथ और पंथ का मार्ग केवल धार्मिक या आध्यात्मिक साधना का मार्ग नहीं है, बल्कि यह संस्कृति-संवर्धन और राष्ट्रीय चेतना के जागरण का व्यावहारिक, सामाजिक और नैतिक मार्ग भी है। यह मार्ग हमें बताता है कि संस्कृति तभी जीवित रहती है जब उसमें मानवता, करुणा, सत्य, न्याय, सहिष्णुता और कर्तव्य-भावना होती है। राष्ट्र तभी सशक्त बनता है जब उसके नागरिक इन मूल्यों को अपनाते हैं। इन तीनों का संगम—संतों की करुणा, ग्रंथों का ज्ञान और पंथों की समरसता—ही भारत की सांस्कृतिक शक्ति, राष्ट्रीय चेतना का आधार और सतत् नवाचार का स्रोत है। यही वह मार्ग है जो भारत को न केवल अतीत की गौरवशाली परंपरा से जोड़ता है, बल्कि भविष्य की वैश्विक समृद्धि और मानव कल्याण के नेतृत्व की दिशा में आगे बढ़ाता है।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा



