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वास्तविक होली और होलाष्टक

पं रामजस त्रिपाठी नारायण 

प्राचीन काल में रवि की फसल पकने की खुशी में 8 दिन तक यज्ञ होता था, जिसे होलाष्टक नाम से जाना जाता था।जो फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से प्रारंभ होकर फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक चलता था । यज्ञ की पूर्णाहुति भद्रा रहित फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा को सायंकाल  संपूर्ण समाज की उपस्थिति में हुआ करता था। उस दिन यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित करने वाला समाज के सबसे निचले वर्ग का व्यक्ति हुआ करता था और उस दिन की मुख्य समिधा पतझड़ में झड़े हुए सूखे हुए पत्ते, घास फूस की पुरानी झोपड़ियां, हमारे इर्द-गिर्द की ऐसी चीजें जो उपयोग में नहीं आ रही होती थीं वह और प्रत्येक घर से कम से कम पांच पांच उपली साथ में  पूरे परिवार के शरीर में लगाए हुए सरसों के उबटन का मैल इस कामना से समर्पित किया जाता था कि हमारे जीवन की सभी आधि- व्याधि होलिका की अग्नि में जलकर भस्म हो जाए और हममें देवत्व का विकास हो।

अंत में जब अग्नि शांत होने लगती थी तो रवि की फसल को अग्नि में समर्पित किया जाता था और झुलसे हुए फसल को प्रसाद रूप में अपने घर ले आकर वर्षपर्यंत रखा जाता था । जिसको होला होरहा कहते थे, वह हमारे धन -धान्य की वृद्धि का प्रतीक होता था। तत्पश्चात अगले दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा को) उसी यज्ञ के भस्म को उड़ा -उड़ा कर हर्षोल्लास पूर्वक होली धूलंडी खेली जाती थी, जिसमें समाज का प्रत्येक वर्ग एक दूसरे से मिलकर एक हो जाया करते थे, हमारे मन के सारे खेद, सारे भेद विविध प्राकृतिक रंगों के साथ बह जाया करते थे। एक दूसरे से मिल जाने की ऐसी कटिबद्धता  होती थी कि, जो व्यक्ति कभी किसी से बात नहीं करता था वह होली के दिन उसको अबीर जरूर लगाता था, गले जरूर मिलता था उसके घर जाकर गुझिया पूरी पकवान जरूर खाता था। खासकर देवर भौजाई के बीच प्रेम भरे रंग लगाने की अद्भुत ही परंपरा थी जिसका स्मरण अगली होली आने का इंतजार करवाती थी। गुरुजनों एवं माता-पिता के पांव पर अबीर चढ़ाया जाता था देवताओं के चौखट पर चढ़ाया जाता था और हमजोलियों तथा मित्रों के साथ अखबार भर भर के रंग लगाते मुख्यतया माथे और गाल का उपयोग होता था।
मुख्य रूप से ऐसा था हमारा होली और होलाष्टक  पर आज  न वैसी होली है न होलिका।

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