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“रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी साहित्यिक पाठ के अर्थ निर्माण में पाठक की केंद्रीय भूमिका”

डॉ प्रमोद कुमार

साहित्य मात्र लेखन की कलात्मक अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि लेखक, पाठ और पाठक के मध्य एक जीवंत संवाद है। लंबे समय तक साहित्यिक आलोचना में लेखक की मंशा और पाठ की संरचना को प्रमुख माना गया, जबकि पाठक की भूमिका गौण रही। पारंपरिक आलोचना में लेखक और उसके उद्देश्य को केंद्र में रखा गया, वहीं रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी ने इस अवधारणा को चुनौती दी और पाठक को साहित्यिक अर्थ निर्माण की धुरी बनाया। यह सिद्धांत कहता है कि कोई भी रचना तब तक पूर्ण नहीं होती जब तक पाठक उसे पढ़कर अपने अनुभवों, ज्ञान और संवेदनाओं के साथ अर्थ नहीं देता। परंतु 20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में साहित्यिक अध्ययन में एक मौलिक परिवर्तन आया, जिसने पाठक को आलोचना की धुरी पर प्रतिष्ठित किया। यह परिवर्तन रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी के रूप में सामने आया, जिसके अनुसार किसी भी पाठ का अर्थ पाठक की अनुभूति, संवेदना और बौद्धिक सहभागिता से ही निर्मित होता है।

लुईस रोज़ेनब्लाट इस सिद्धांत की संस्थापक मानी जाती हैं। उन्होंने यह स्थापित किया कि साहित्यिक पाठ एक निश्चित और स्थायी अर्थ नहीं देता, बल्कि पाठक के साथ जुड़कर ही वह अर्थ ग्रहण करता है। यह सिद्धांत मानता है कि हर पाठक अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, मनोवैज्ञानिक और वैयक्तिक पृष्ठभूमि के अनुसार पाठ की व्याख्या करता है, जिससे अर्थ की बहुलता संभव होती है।

रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी ने साहित्य को एकतरफा संप्रेषण की प्रक्रिया से मुक्त कर बहुस्तरीय संवाद का माध्यम बनाया है। यह पाठक को मात्र ग्रहणकर्ता नहीं, बल्कि सह-निर्माता की भूमिका प्रदान करती है। आज के बहुलतावादी, उत्तर-आधुनिक और डिजिटल युग में यह दृष्टिकोण और अधिक प्रासंगिक हो गया है, जहाँ हर पाठक अपनी व्याख्या के माध्यम से साहित्य को नया जीवन और नई दिशा दे सकता है।

इस आलेख में हम रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी के सिद्धांत, विकास, प्रमुख विचारकों और इसकी साहित्यिक आलोचना में भूमिका का समग्र विश्लेषण करेंगे।

1. रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी की उत्पत्ति और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

20वीं सदी के पूर्वार्ध में जब औपचारिकतावाद, संरचनावाद और वस्तुनिष्ठ आलोचना का बोलबाला था, तब साहित्यिक आलोचना में पाठ के ‘स्वतंत्र अर्थ’ की तलाश हो रही थी। लेकिन यह विश्लेषण पाठक के अनुभव को नजरअंदाज करता था। इसी प्रतिक्रिया में रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी का जन्म हुआ।

2. लुईस रोज़ेनब्लाट: रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी के जनक

लुईस रोज़ेनब्लाट (Louise Rosenblatt) को रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी की संस्थापक माना जाता है। उनकी पुस्तकें Literature as Exploration (1938) और The Reader, the Text, the Poem (1978) में उन्होंने यह स्थापित किया कि किसी कविता या कहानी का कोई ‘नियत’ अर्थ नहीं होता; बल्कि पाठक जब पाठ से जुड़ता है, तभी अर्थ का निर्माण होता है। वे पाठक के अनुभव, भावनाओं और सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को अत्यंत महत्व देती हैं।

3. रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी का मूल सिद्धांत

पाठ और पाठक के बीच संबंध: पाठ अर्थ की संभावना प्रदान करता है, लेकिन वास्तविक अर्थ पाठक द्वारा अनुभव किया जाता है।

सक्रिय पाठक की अवधारणा: पाठक निष्क्रिय ग्रहणकर्ता नहीं बल्कि रचनात्मक सर्जक होता है।

प्रत्येक पाठन एक नया अनुभव है: एक ही पाठ को दो पाठक भिन्न अर्थ दे सकते हैं, और वही पाठक भी समयानुसार अर्थ बदल सकता है।

4. प्रमुख विचारक और उनके दृष्टिकोण

(1) लुईस रोज़ेनब्लाट

दो प्रकार के पाठ: ऐस्थेटिक (सौंदर्यपरक) और इफरमैटिव (सूचनात्मक)

पाठक के उद्देश्यानुसार अर्थ का निर्माण

(2) वोल्फगैंग आइज़र (Wolfgang Iser)

“Implied Reader” की संकल्पना

पाठ में रिक्त स्थान (gaps) होते हैं जिन्हें पाठक भरता है।

(3) स्टेनली फिश (Stanley Fish)

अर्थ का निर्माण interpretive community में होता है, यानी पाठक समूह की सांस्कृतिक मान्यताएं अर्थ निर्माण को प्रभावित करती हैं।

5. रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी के विभिन्न रूप

1. Transactional Reader Response (Rosenblatt) – पाठ और पाठक के बीच द्विपक्षीय लेन-देन

2. Subjective Reader Response (David Bleich) – अर्थ पूर्णतः पाठक की भावना और प्रतिक्रिया पर निर्भर

3. Psychological Reader Response (Norman Holland) – पाठक के मनोविश्लेषण द्वारा अर्थ का निर्माण

4. Social Reader Response – सामाजिक अनुभवों के आधार पर व्याख्या

6. पाठ और पाठक के बीच संवाद

रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी यह मानती है कि पाठ एक ‘निर्देशात्मक ढांचा’ है, जिसे पाठक अपने अनुभवों से भरता है। यह संवाद किसी वाचिक वार्ता जैसा होता है, जहाँ लेखक के संकेतों पर पाठक अपनी व्याख्या प्रस्तुत करता है।

7. साहित्यिक आलोचना में पाठक की भूमिका

परंपरागत आलोचना में पाठक की भूमिका गौण मानी जाती थी, लेकिन इस सिद्धांत ने पाठक को “अर्थनिर्माता” के रूप में प्रतिष्ठा दी। अब पाठक न केवल आलोचक है, बल्कि वह पाठ के पुनर्निर्माता भी है।

8. पारंपरिक आलोचना बनाम रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी

तत्व पारंपरिक आलोचना रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी

केंद्र लेखक या पाठ पाठक
उद्देश्य लेखक की मंशा जानना पाठक के अनुभव को समझना
अर्थ निश्चित और स्थायी परिवर्तनीय और संदर्भ-आधारित

9. कक्षा शिक्षण और रीडर रिस्पॉन्स

शिक्षण में जब विद्यार्थियों को अपनी राय, अनुभव और प्रतिक्रियाएँ साझा करने का अवसर मिलता है, तो पाठ की व्याख्या अधिक जीवंत बन जाती है। रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी पर आधारित शिक्षण विद्यार्थियों की आलोचनात्मक एवं सृजनात्मक क्षमता को प्रोत्साहित करता है।

10. रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी के लाभ

पाठक की सक्रिय भागीदारी

साहित्य का जनतंत्रीकरण

व्याख्या की बहुलता को मान्यता

पाठक की सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को महत्त्व

11. आलोचनाएँ और सीमाएँ

अत्यधिक व्यक्तिपरकता: इससे साहित्यिक मूल्यांकन कठिन हो सकता है।

पाठ के महत्व की उपेक्षा: कुछ आलोचक मानते हैं कि यह सिद्धांत लेखक और पाठ की उपेक्षा करता है।

समीक्षा की सार्वभौमिकता में बाधा: पाठक-विशेष की प्रतिक्रिया को मान्यता देना समीक्षा की वस्तुनिष्ठता को चुनौती देता है।

12. हिंदी साहित्य में रीडर रिस्पॉन्स की प्रासंगिकता

हिंदी आलोचना पर अब तक लेखक-केंद्रित दृष्टिकोण का वर्चस्व रहा है, जैसे रामचंद्र शुक्ल और नगेन्द्र का साहित्यिक मूल्यांकन। लेकिन आज के लोकतांत्रिक साहित्यिक परिदृश्य में रीडर रिस्पॉन्स का दृष्टिकोण अधिक प्रासंगिक हो गया है।

उदाहरण: प्रेमचंद की कहानियों को एक दलित पाठक भिन्न दृष्टिकोण से पढ़ सकता है। नारीवादी पाठक किसी भी रचना में स्त्री-छवि पर विशेष ध्यान दे सकती है।

13. डिजिटल युग में रीडर रिस्पॉन्स

ऑनलाइन मंचों, ब्लॉग्स, रिव्यू और सोशल मीडिया पर पाठक लगातार साहित्य पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। यह सिद्ध करता है कि रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी आज भी जीवंत और विकसित हो रही है। अब अर्थ केवल आलोचकों द्वारा नहीं, बल्कि आम पाठकों द्वारा भी निर्मित हो रहा है।

रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी ने साहित्यिक आलोचना की दुनिया में एक क्रांति लाई। इसने साहित्य को केवल लेखक और उसके उद्देश्य तक सीमित नहीं रखा, बल्कि पाठक को सक्रिय भागीदार बनाकर साहित्य को लोकतांत्रिक बना दिया। आज जब पाठक विविध पृष्ठभूमियों से आते हैं, तब यह सिद्धांत और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी ने साहित्यिक आलोचना की पारंपरिक धारणाओं को एक नई दिशा दी, जहाँ लेखक और पाठ की प्रभुता के स्थान पर पाठक को केंद्रीय भूमिका प्रदान की गई। यह सिद्धांत मानता है कि कोई भी साहित्यिक पाठ तब तक पूर्ण नहीं होता जब तक वह पाठक की चेतना, अनुभव और संवेदनाओं से न गुजरे। लेखक भले ही अपनी रचना में अनेक सांकेतिक संकेत दे, लेकिन उस रचना का अर्थ तभी जागृत होता है जब पाठक उसे सक्रिय रूप से पढ़ता, समझता और उसमें निहित विचारों को अपनी पृष्ठभूमि के आलोक में पुनर्सृजित करता है।

लुईस रोज़ेनब्लाट, वोल्फगैंग आइज़र और स्टेनली फिश जैसे विद्वानों ने यह स्पष्ट किया कि अर्थ एक स्थिर, निश्चित और सार्वभौमिक इकाई नहीं है, बल्कि वह बहुलतावादी और संदर्भ-निर्भर होता है। पाठक की सामाजिक, सांस्कृतिक, लिंग, वर्ग और जातिगत पृष्ठभूमियाँ उसकी व्याख्या को प्रभावित करती हैं। यही कारण है कि एक ही पाठक अलग-अलग समय पर एक ही पाठ को विभिन्न अर्थों में देख सकता है, और विभिन्न पाठक अपनी-अपनी दृष्टि से उसकी व्याख्या कर सकते हैं। डिजिटल युग में यह दृष्टिकोण और अधिक प्रासंगिक हो गया है, जहाँ पाठक ऑनलाइन प्लेटफ़ॉर्म्स के माध्यम से निरंतर संवाद कर रहे हैं, अपनी प्रतिक्रियाएँ साझा कर रहे हैं और साहित्य को एक जीवंत सामाजिक विमर्श का विषय बना रहे हैं। अतः रीडर रिस्पॉन्स थ्योरी न केवल साहित्य को जनसंवादी बनाती है, बल्कि यह पाठक को उसकी संवेदनात्मक और बौद्धिक भूमिका में प्रतिष्ठित करती है — जो किसी भी साहित्यिक प्रक्रिया की आत्मा है। यह हमें सिखाता है कि हर पाठक का अनुभव महत्वपूर्ण है, और साहित्य तभी सार्थक होता है जब वह अपने पाठक को संवाद और सोचने की स्वतंत्रता देता है।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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