लेख

“आधुनिक रावणरूपी बुराइयाँ का वध: दहेजप्रथा, रिश्वतखोरी, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा से मुक्ति का पथ”

डॉ प्रमोद कुमार

मानव इतिहास में बुराइयाँ हमेशा अच्छाई को चुनौती देती रही हैं। रामायण का रावण केवल एक व्यक्ति नहीं था, बल्कि वह अहंकार, अन्याय और अत्याचार का प्रतीक था। आज भले ही सोने की लंका वाला रावण अस्तित्व में न हो, लेकिन उसके सिर आधुनिक समाज में नई-नई बुराइयों के रूप में मौजूद हैं। दहेजप्रथा, रिश्वतखोरी, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा वही आधुनिक रावणरूपी विकृतियाँ हैं जो सामाजिक संरचना को खोखला कर रही हैं।

मानव सभ्यता के इतिहास में अच्छाई और बुराई का द्वंद्व हमेशा से रहा है। रावण बुराई का जबकि राम को अच्छाई का प्रतीक माना जाता है जिसे भगवान राम ने अपने पराक्रम और नीति से रावण को परास्त किया। किंतु आज का समाज भी अनेक आधुनिक “रावणों” से जकड़ा हुआ है—दहेजप्रथा, रिश्वतखोरी, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा। ये बुराइयाँ केवल व्यक्तिगत जीवन को ही नहीं, बल्कि पूरे समाज और राष्ट्र की उन्नति को बाधित करती हैं। आज प्रश्न यह है कि इन रावणरूपी बुराइयों का वध कौन करेगा? क्या इसके लिए किसी राम के आगमन की प्रतीक्षा करनी होगी, या समाज स्वयं चेतना और सुधार का मार्ग अपनाएगा? यही विमर्श इस लेख का मूल है।

दहेजप्रथा स्त्री की गरिमा और आत्मसम्मान का हनन करती है, रिश्वतखोरी लोकतंत्र और न्याय व्यवस्था की नींव को कमजोर करती है, नशाखोरी युवा पीढ़ी की ऊर्जा और रचनात्मकता को नष्ट कर देती है, लिंगभेद समाज की आधी आबादी को अवसरों से वंचित कर समानता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है और जातिप्रथा इंसान को इंसान से अलग करके सामाजिक एकता को चकनाचूर करती है। इन बुराइयों का सामूहिक परिणाम यह है कि समाज में असमानता, अन्याय और असुरक्षा का वातावरण पनपता है, जो किसी भी राष्ट्र की प्रगति के लिए घातक है।

आज आवश्यकता इस बात की नहीं है कि हम किसी नए राम के अवतार की प्रतीक्षा करें, बल्कि हमें अपने भीतर के राम को जगाना होगा। शिक्षा, जागरूकता, नैतिक मूल्य, संवेदनशीलता और कठोर कानून के पालन से ही इन बुराइयों का वास्तविक संहार संभव है। प्रत्येक नागरिक यदि जिम्मेदारी के साथ अपने जीवन में ईमानदारी, समानता और करुणा को उतारे तो यह आधुनिक रावणरूपी बुराइयाँ धीरे-धीरे समाप्त हो सकती हैं।

अतः इस विषय का मूल संदेश यही है कि हमें प्रतीक्षा छोड़कर सक्रियता अपनानी होगी और स्वयं रामरूपी चेतना बनकर इन विकृतियों का अंत करना होगा, ताकि समाज को न्यायपूर्ण, समतामूलक और विकसित भविष्य की ओर अग्रसर किया जा सके।

1. दहेजप्रथा: स्त्री के सम्मान का हनन

ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

दहेज का चलन कभी सामाजिक सुरक्षा का साधन माना जाता था। लेकिन समय के साथ यह विकृति का रूप ले चुका है। अब दहेज विवाह का सौदा बन गया है।

वर्तमान स्थिति

आज भी दहेज के कारण लाखों कन्याएँ अविवाहित रह जाती हैं या विवाहोपरांत प्रताड़ना का शिकार होती हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (NCRB) के अनुसार हर वर्ष हजारों महिलाएँ दहेज उत्पीड़न और हत्या का शिकार होती हैं।

आलोचनात्मक दृष्टि

यह प्रथा न केवल स्त्री की गरिमा को ठेस पहुँचाती है बल्कि स्त्री को वस्तु की तरह प्रस्तुत करती है। यह पुरुषसत्ता की गहरी जड़ें दिखाती है।

2. रिश्वतखोरी: विकास का सबसे बड़ा अवरोध

कारण

त्वरित लाभ की प्रवृत्ति

नैतिक शिक्षा का अभाव

प्रशासनिक तंत्र की कमजोरी

पारदर्शिता की कमी

प्रभाव

रिश्वतखोरी ने लोकतांत्रिक संस्थाओं को खोखला कर दिया है। योजनाएँ भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं और विकास की गति रुक जाती है।

आलोचना

जहाँ रिश्वत आम व्यवहार बन जाए, वहाँ न्याय और समता असंभव हो जाती है। यह आधुनिक रावण का सिर है जिसे काटे बिना समाज की मुक्ति संभव नहीं।

3. नशाखोरी: युवा पीढ़ी का पतन

सामाजिक प्रभाव

नशा परिवारों को तोड़ता है, अपराध को बढ़ावा देता है और स्वास्थ्य व्यवस्था पर बोझ डालता है।

आर्थिक नुकसान

नशाखोरी पर खर्च किया गया धन राष्ट्र की उत्पादकता घटाता है। यह व्यक्ति को श्रम, कौशल और नवाचार से विमुख करता है।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण

नशा मात्र व्यक्तिगत कमजोरी नहीं बल्कि संगठित अपराध और राजनीतिक संरक्षण का हिस्सा है। जब तक शासन और समाज दोनों कठोर कदम न उठाएँ, यह रावण जीवित रहेगा।

4. लिंगभेद: असमानता की जड़

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार

भारतीय समाज में स्त्रियों को देवी का रूप माना गया, लेकिन व्यवहार में उन्हें द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझा गया।

वर्तमान स्थिति

आज भी कार्यक्षेत्र में महिलाओं को समान वेतन नहीं मिलता, घरेलू हिंसा जारी है और शिक्षा एवं रोजगार में भेदभाव होता है।

आलोचना

लिंगभेद केवल महिलाओं का ही प्रश्न नहीं है, यह पूरी मानवता के विकास में बाधक है। आधी आबादी को पीछे धकेलकर कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता।

5. जातिप्रथा: सामाजिक विभाजन की सबसे बड़ी दीवार

ऐतिहासिक जड़ें
वर्ण व्यवस्था का उद्देश्य श्रम विभाजन था, परंतु यह शोषण और असमानता की व्यवस्था में बदल गई।

वर्तमान स्वरूप
आज भी दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्गों के साथ भेदभाव होता है। आरक्षण व्यवस्था इसी असमानता के परिमार्जन का प्रयास है, लेकिन जातिगत राजनीति ने इसे जटिल बना दिया है।

आलोचनात्मक दृष्टिकोण
जातिप्रथा सामाजिक एकता को नष्ट करती है और विकसित भारत के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा है।

6. इन बुराइयों के आपसी संबंध
दहेजप्रथा, रिश्वतखोरी, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा—ये अलग-अलग बुराइयाँ नहीं हैं बल्कि एक-दूसरे को पोषित करती हैं।
रिश्वतखोरी दहेज कानूनों के क्रियान्वयन को कमजोर करती है।
नशाखोरी घरेलू हिंसा और लिंगभेद को बढ़ाती है।
जातिप्रथा और लिंगभेद मिलकर सामाजिक असमानता को स्थायी बना देते हैं।

7. मुक्ति का पथ: रामरूपी चेतना की खोज
शिक्षा और जागरूकता
नैतिक शिक्षा, मूल्य-आधारित पाठ्यक्रम और जागरूकता अभियान आवश्यक हैं।
कानून और कठोर क्रियान्वयन
सिर्फ कानून बनाने से नहीं, उन्हें ईमानदारी से लागू करने से ही बदलाव संभव होगा।

युवाओं की भूमिका
युवा समाज के वास्तविक “राम” हैं। वे ही नई चेतना और संघर्ष का नेतृत्व कर सकते हैं।

बौद्धिक व आध्यात्मिक दृष्टि
डॉ. भीमराव आंबेडकर, महात्मा ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी और बुद्ध जैसे चिंतकों ने हमेशा समानता और करुणा का संदेश दिया। उनके विचार ही रामरूपी चेतना के आधार हो सकते हैं।

8. आलोचनात्मक निष्कर्ष

आज का समाज आधुनिक रावणों की जकड़न में है। दहेज, रिश्वत, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा किसी एक वर्ग या व्यक्ति की समस्या नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र की प्रगति में बाधा हैं। हमें किसी अलौकिक राम की प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए। हर व्यक्ति में राम बनने की क्षमता है। यदि समाज के हर नागरिक ने अपने भीतर के राम को जाग्रत किया, तभी इन बुराइयों का अंत संभव होगा।

आधुनिक समाज जिस तेजी से प्रगति कर रहा है, उसी तेजी से वह अनेक बुराइयों की जकड़न में भी फँसता जा रहा है। दहेजप्रथा, रिश्वतखोरी, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा वे पाँच प्रमुख विकृतियाँ हैं, जो हमारे सामाजिक, नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को खोखला बना रही हैं। ये आधुनिक रावणरूपी सिर न केवल व्यक्ति के जीवन को दुखमय बनाते हैं, बल्कि राष्ट्र के विकास मार्ग में सबसे बड़ी बाधा खड़ी करते हैं। दहेज स्त्री के सम्मान का अपमान है, रिश्वत लोकतंत्र और समान अवसर की हत्या है, नशाखोरी युवा पीढ़ी के भविष्य को अंधकारमय बनाती है, लिंगभेद समाज के आधे हिस्से को पीछे धकेल देता है और जातिप्रथा सामाजिक एकता को तोड़कर असमानता को गहरी व स्थायी बना देती है। रामायण का रावण दस सिरों वाला था, लेकिन आधुनिक समाज का रावण हजार सिरों वाला है। जब तक शिक्षा, जागरूकता, संवेदनशीलता और कठोर नीति-नियंत्रण का संगम नहीं होगा, तब तक यह रावण जिंदा रहेगा। हमें प्रतीक्षा नहीं करनी, बल्कि स्वयं राम बनना होगा। यही दहेजप्रथा, रिश्वतखोरी, नशाखोरी, लिंगभेद और जातिप्रथा के संहार का सच्चा पथ है।
आज आवश्यकता है कि हम किसी अलौकिक राम की प्रतीक्षा न करें, बल्कि अपने भीतर के राम को जगाएँ। हर नागरिक यदि ईमानदारी, समानता, करुणा और साहस को जीवन का आधार बनाए तो ये बुराइयाँ स्वयं नष्ट हो जाएँगी। शिक्षा, संवेदनशीलता, कानून का कठोर क्रियान्वयन और नैतिक चेतना ही वे अस्त्र हैं जिनसे इन रावणरूपी विकृतियों का वध संभव है। समाज का हर व्यक्ति यदि अपनी जिम्मेदारी निभाए और अपने घर-परिवार से शुरुआत करे, तो सामूहिक रूप से परिवर्तन लाया जा सकता है। अतः सच्चा समाधान यही है कि हम प्रतीक्षा छोड़ें और सक्रियता अपनाएँ। प्रत्येक नागरिक राम बनकर समाज से इन बुराइयों का अंत करे। यही आधुनिक रावणरूपी बुराइयों के वध और एक समतामूलक, न्यायपूर्ण तथा विकसित भारत के निर्माण का सच्चा पथ है।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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