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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सफलता के मायने: समाज-सेवा, राष्ट्रवाद व राजनीतिक प्रभाव का त्रिवेणी संगम के साथ-साथ सामाजिक जड़ों से सत्ता के शिखर तक की यात्रा

डॉ प्रमोद कुमार

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का वह संगठन है, जिसने स्वतंत्रता-उत्तर भारत की वैचारिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दिशा को गहराई से प्रभावित किया है। इसकी सफलता के मायने मात्र राजनीतिक प्रभुत्व तक सीमित नहीं हैं, बल्कि यह संगठनात्मक अनुशासन, वैचारिक स्थिरता, सामाजिक विस्तार और सांस्कृतिक पुनरुत्थान की एक दीर्घकालीन यात्रा का परिणाम है। आज संघ न केवल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के वैचारिक स्तंभ के रूप में देखा जाता है, बल्कि समाज के अनेक क्षेत्रों—शिक्षा, सेवा, संस्कृति, ग्रामविकास, पर्यावरण, और राष्ट्रवाद—में अपनी व्यापक उपस्थिति दर्ज कर चुका है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर 1925 को नागपुर में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। उस समय भारत ब्रिटिश उपनिवेश था और स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम की ओर अग्रसर था। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, क्रांतिकारी संगठन और समाज सुधारक अपने-अपने मार्ग से स्वतंत्रता का स्वप्न देख रहे थे।

हेडगेवार ने उस दौर में ‘हिंदू समाज की एकता’ को राष्ट्रनिर्माण का केंद्रीय सूत्र माना। उनका मानना था कि हिंदू समाज में जातिगत, प्रांतीय और धार्मिक विभाजन के कारण राष्ट्र कमजोर हुआ है। इसलिए, उन्होंने एक ऐसे संगठन की कल्पना की, जो “संघटन” के माध्यम से “राष्ट्र पुनरुत्थान” का कार्य करे। संघ का आरंभिक उद्देश्य राजनीतिक नहीं बल्कि सांस्कृतिक बताया गया—“भारत को एक संगठित, आत्मनिर्भर, नैतिक और अनुशासित राष्ट्र के रूप में पुनर्स्थापित करना।” इसी विचार के तहत ‘शाखा’ पद्धति, गणवेश, प्रार्थना और अनुशासन का ढांचा तैयार हुआ, जो आगे चलकर संघ की पहचान बना। परंतु, इसकी इस “कामयाबी” का अर्थ केवल विजयगाथा नहीं है; यह भारत के सामाजिक ताने-बाने, बहुलतावादी परंपरा और लोकतांत्रिक आदर्शों के साथ एक निरंतर संवाद और संघर्ष की कहानी भी है। यह लेख उसी द्वंद्वात्मक दृष्टि से संघ की यात्रा, विचार, संगठन और प्रभाव का विश्लेषण करता है—जहाँ प्रशंसा और आलोचना, दोनों को समान स्थान दिया गया है।

RSS का सबसे बड़ा बल उसका संगठनात्मक ढांचा है। यह ‘शाखा’ प्रणाली के माध्यम से जमीनी स्तर पर कार्य करता है। शाखाओं में शारीरिक व्यायाम, देशभक्ति गीत, वैचारिक चर्चा और सामूहिक अनुशासन का अभ्यास कराया जाता है। संघ की कार्यपद्धति ‘स्वयंसेवक से समाज-निर्माता’ की अवधारणा पर आधारित है। प्रत्येक स्वयंसेवक को राष्ट्र की सेवा को सर्वोच्च कर्तव्य माना गया है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा को नकारते हुए संघ ने स्वयं को प्रारंभ में गैर-राजनीतिक बताया, किंतु समाज-संगठन के माध्यम से राष्ट्रीय चरित्र निर्माण को अपना ध्येय बनाया। संघ के विस्तार की रणनीति अद्वितीय रही है। शिक्षा, सेवा और ग्रामीण विकास के माध्यम से उसने सामाजिक जड़ों में गहरी पैठ बनाई। आज “विद्या भारती”, “सेवा भारती”, “वनवासी कल्याण आश्रम”, “भारतीय मजदूर संघ”, “विश्व हिंदू परिषद” जैसी सैकड़ों संस्थाएँ RSS की शाखाएँ हैं, जो विविध क्षेत्रों में कार्य कर रही हैं।

RSS की विचारधारा का केंद्र ‘हिंदुत्व’ है, जिसे विनायक दामोदर सावरकर ने 1923 में परिभाषित किया था। सावरकर के अनुसार, हिंदू वह है जो भारत को अपनी पवित्र भूमि (पुण्यभूमि) और पितृभूमि मानता है। संघ इस विचार को “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” के रूप में प्रस्तुत करता है—अर्थात भारत की संस्कृति, परंपरा, आचार-विचार और जीवन-दृष्टि में हिंदू मूल्य निहित हैं। इसलिए भारत को “हिंदू राष्ट्र” कहना किसी धार्मिक आग्रह का प्रतीक नहीं बल्कि सांस्कृतिक एकता का बोध है। हालाँकि आलोचक इसे धार्मिक बहुसंख्यकवाद (majoritarianism) के रूप में देखते हैं। उनके अनुसार, यह विचार भारत की बहुलतावादी और धर्मनिरपेक्ष परंपरा के विपरीत है। मुस्लिम, ईसाई, सिख और अन्य समुदायों के लिए ‘हिंदू राष्ट्र’ की परिकल्पना समावेशी नहीं, बल्कि बहिष्कारी प्रतीत होती है।

संघ ने समय के साथ ‘सेवा’ को अपनी वैचारिक रणनीति का केंद्र बना लिया। शिक्षा, स्वास्थ्य, ग्रामीण विकास, प्राकृतिक आपदाओं में राहत कार्य—इन सबके माध्यम से संघ ने समाज में अपनी उपयोगिता सिद्ध की। 1990 के दशक में भूकंप, बाढ़, सुनामी या कोविड-19 महामारी जैसे संकटों में संघ के स्वयंसेवक सक्रिय रूप से सामने आए। ग्रामीण भारत में स्कूलों, छात्रावासों और सेवा केंद्रों की स्थापना ने संघ को सामाजिक रूप से स्वीकार्य बनाया। यही सेवा-भाव संघ की सबसे बड़ी सफलता का सामाजिक आधार बना। इससे उसे उन वर्गों तक पहुँचने का अवसर मिला, जो कभी उसकी विचारधारा से दूर थे।

यद्यपि संघ ने स्वयं को प्रारंभ में राजनीति से अलग बताया, परंतु 1951 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा भारतीय जनसंघ की स्थापना के साथ इसकी वैचारिक शाखा राजनीति में प्रवेश कर गई। जनसंघ ने बाद में 1980 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का रूप लिया।।भाजपा की वैचारिक दिशा, नीतियाँ और नेतृत्व संरचना संघ के गहरे प्रभाव में रही है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ RSS का राजनीतिक प्रभाव चरम पर पहुँचा।।संघ की यह यात्रा—‘सामाजिक जड़ों से सत्ता के शिखर तक’—भारतीय लोकतंत्र में एक ऐतिहासिक परिवर्तन का प्रतीक है। परंतु इसके साथ कई आलोचनाएँ भी जुड़ीं—जैसे संघ द्वारा सत्ता-केन्द्रित राजनीति में अत्यधिक हस्तक्षेप, संस्थागत स्वतंत्रता पर प्रभाव, और विचारधारात्मक एकरूपता का दबाव।

संघ की सफलता को तीन प्रमुख आयामों में समझा जा सकता है—
1. संगठनात्मक सफलता: अनुशासित, समर्पित और निष्ठावान स्वयंसेवकों का विशाल नेटवर्क—जो ग्राम से महानगर तक कार्यरत है।
2. वैचारिक सफलता: हिंदुत्व को एक सांस्कृतिक विमर्श के रूप में प्रस्तुत कर उसने भारतीय समाज में ‘राष्ट्रवाद’ की नई परिभाषा दी।
3. सामाजिक प्रभाव: सेवा, शिक्षा और संस्कार के माध्यम से उसने अपने विचारों को जन-जन तक पहुँचाया।
इन तीनों धाराओं का संगम ही संघ की ‘त्रिवेणी सफलता’ का आधार है—समाज-सेवा, राष्ट्रवाद और राजनीतिक प्रभाव।

RSS की सफलता के साथ इसकी आलोचनाएँ भी समान रूप से प्रबल हैं।
* संघ पर आरोप है कि वह भारत के संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता की भावना को कमजोर करता है और एक धार्मिक बहुसंख्यक पहचान को राष्ट्रवाद से जोड़ता है।
* मुसलमानों और ईसाइयों के प्रति संघ की ऐतिहासिक दृष्टि को लेकर विवाद रहे हैं। आलोचकों के अनुसार, “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” के नाम पर संघ ने बहुलता की बजाय एकरूपता पर ज़ोर दिया है।
* संघ की संगठनात्मक शक्ति ने राजनीतिक सत्ता पर प्रभाव बढ़ाया है। न्यायपालिका, शिक्षा और नौकरशाही में वैचारिक झुकाव के आरोप अक्सर लगाए जाते हैं।
* इतिहास के पुनर्लेखन और हिंदू गौरव की पुनर्रचना की कोशिशें भी विवाद का विषय बनीं।
इन आलोचनाओं के बावजूद, संघ अपने अनुशासन, स्वदेशी दृष्टिकोण और राष्ट्रसेवा के कारण जनसमर्थन बनाए रखता है।

संघ की सबसे बड़ी विशेषता उसकी अनुकूलन क्षमता रही है। समय के साथ उसने अपनी भाषा और रणनीति बदली है। अब वह ‘हिंदू राष्ट्र’ की जगह ‘भारत माता’, ‘संस्कृति’, ‘विकास’ और ‘राष्ट्रवाद’ जैसे व्यापक शब्दों का प्रयोग करता है। शहरी मध्यमवर्ग, आईटी प्रोफेशनल्स और युवा पीढ़ी में पहुँच बढ़ाने के लिए डिजिटल मीडिया, विचार मंच और युवा संगठनों का निर्माण किया गया है। इसने ‘परंपरा और आधुनिकता के समन्वय’ का एक नया मॉडल प्रस्तुत किया है—जहाँ योग, स्वदेशी, गाय, पर्यावरण और राष्ट्रभक्ति जैसे विषयों को आधुनिक विकासवाद से जोड़ा गया।

संघ की कामयाबी जितनी गहरी है, उतनी ही उसकी सीमाएँ भी स्पष्ट हैं।
* संघ “हिंदू एकता” की बात करता है, परंतु भारतीय समाज में जातिगत विभाजन अब भी विद्यमान हैं। दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के बीच संघ की स्वीकृति आंशिक है।
* संघ में महिलाओं के लिए समानांतर संगठन—“राष्ट्र Sevika समिति”—तो है, परंतु निर्णय-स्तर पर महिलाएँ सीमित हैं।
* संघ का कठोर वैचारिक ढांचा कई बार सामाजिक यथार्थ से मेल नहीं खाता। इससे आधुनिकता, विज्ञान और उदार लोकतंत्र से टकराव उत्पन्न होता है।
संघ की वास्तविक परीक्षा यही है कि क्या वह अपने विचार को समावेशी, आधुनिक व वैश्विक भारत के अनुरूप ढाल सकता है?

संघ की सफलता को कुछ लोग भारत के “सांस्कृतिक पुनरुत्थान” के रूप में देखते हैं—जहाँ भारतीय परंपरा, संस्कार और स्वाभिमान को पुनर्जीवित किया गया है। वहीं आलोचक इसे “वैचारिक वर्चस्व” कहते हैं—जहाँ विविधता को एक एकरूपता के दबाव में ढाला जा रहा है। यह द्वंद्व भारत के भविष्य के लिए निर्णायक है। यदि संघ अपने सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को लोकतंत्र, समानता और मानवता के मूल्यों से जोड़ पाता है, तो वह सकारात्मक परिवर्तन का माध्यम बन सकता है। परंतु यदि वह असहमति को दमन और विविधता को विभाजन समझेगा, तो उसकी सफलता अल्पकालिक सिद्ध होगी।

21वीं सदी में जब वैश्वीकरण ने सीमाएँ धुंधली की हैं, RSS ने “स्थानीय पहचान” को पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया है। यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं है—अमेरिका में ट्रंपवाद, ब्रिटेन में ब्रेग्ज़िट, और यूरोप में दक्षिणपंथी पुनरुत्थान इसके समान उदाहरण हैं। RSS का यह राष्ट्रवाद—यदि समावेशी रूप में विकसित हो—तो भारत को आत्मनिर्भरता, आत्मगौरव और सांस्कृतिक आत्मविश्वास की दिशा दे सकता है। पर यदि यह कट्टरता की ओर झुकता है, तो यह भारत की लोकतांत्रिक आत्मा को चुनौती दे सकता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सफलता को एक ही आयाम में नहीं समझा जा सकता। यह केवल संगठन या राजनीति की सफलता नहीं, बल्कि एक दीर्घ वैचारिक और सामाजिक प्रयोग की परिणति है। संघ ने भारत के समाज में सेवा, अनुशासन, और संगठन की भावना को मजबूत किया है। उसने स्वदेशी विचार, राष्ट्रभक्ति और सामाजिक जिम्मेदारी के मूल्य पुनर्स्थापित किए हैं। साथ ही, उसने भारतीय राजनीति को विचारधारा और सांस्कृतिक विमर्श से जोड़ा है—जो किसी भी लोकतंत्र के लिए आवश्यक है। किन्तु, इसकी यह सफलता तभी टिकाऊ मानी जाएगी जब यह संगठन अपने भीतर विविधता, समानता और असहमति के लिए स्थान बनाए रखे। यदि संघ भारत की “एकता में विविधता” की आत्मा को स्वीकार करता है, तो उसकी सफलता भारत के लोकतांत्रिक भविष्य के लिए वरदान होगी; अन्यथा, यह सफलता अपने ही वैचारिक आग्रहों में सीमित रह जाएगी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की यात्रा—“सामाजिक जड़ों से सत्ता के शिखर तक”—भारतीय समाज की गहराई, उसकी आकांक्षाओं और विरोधाभासों का प्रतिबिंब है। यह संगठन न तो केवल एक राजनीतिक संस्था है, न ही मात्र एक सांस्कृतिक आंदोलन; यह एक वैचारिक प्रयोगशाला है जिसने भारतीय मानस को नए सिरे से परिभाषित किया है। इसकी सफलता के मायने इस बात में निहित हैं कि संघ भारतीय लोकतंत्र के भीतर अपनी विचारधारा को कितनी समावेशिता, संवादशीलता और संवेदनशीलता के साथ आगे बढ़ाता है। यदि वह राष्ट्रवाद को मानवता और सेवा से जोड़ता है, तो निस्संदेह उसकी कामयाबी भारत की भी कामयाबी होगी।


डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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