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देशहित के महानायक सुभाष चन्द्र बोस "राष्ट्रीय पराक्रम दिवस" 23 जनवरी जन्म जयंती विशेष....

प्रो दिग्विजय कुमार शर्मा

तुम   मुझे   खून   दो ,  मैं   तुम्हे   आजादी   दूंगा।
सुभाष   चन्द्र   बोस   क्रांतिकारी   विचारों   के   व्यक्ति   थे।   उनके   अन्दर   असीम   सासह ,  अनूठे   शौर्य   और   अनूठी   संकल्प   शक्ति   का   अनंत   प्रवाह   विद्यमान   था।   उन्हें   वर्ष   1921   में   अपने   क्रांतिकारी   विचारों   और   गतिविधियों   का   संचालन   करने   के   कारण   पहली   बार   छह   माह   जेल   जाना   पड़ा।   इसके   बाद   तो   जेल   यात्राओं ,  अंग्रेजी   अत्याचारों   और   प्रताड़नाओं   को   झेलने   का   सिलसिला   चल   निकला।   स्वतंत्रता   आन्दोलन   के   दौरान   उन्हें   ग्यारह   बार   जेल   जाना   पड़ा।   इसके   साथ   ही   उन्हें   अंग्रेजी   सरकार   द्वारा   कई   बार   लंबे   समय   तक   नजरबंद   भी   रखा   गया।   लेकिन ,  सुभाष   चन्द्र   बोस   अपने   इरादों   से   कभी   भी   टस   से   मस   नहीं   हुए।   इसके   लिए ,  उन्होंने   कई   बार   अंग्रेजों   की   आँखों   में   धूल   झोंकी   और   अंग्रेजी   शिकंजे   से   निकल   भागे।   1939   में   गान्धीजी   से   मतभेद   के   कारण   सुभाष   चंद्र   ने   कांग्रेस   अध्यक्ष   पद   से   इस्तीफा   दे   दिया।   फिर   उन्होंने   आजाद   हिन्द   फौज   और   फॉरवर्ड   ब्लॉक   की   स्थापना   की।   

अपने   वतन   भारत   को   अंग्रेजी   दासता   से   मुक्त   करवाने   के   लिए   असंख्य   जाने - अनजाने   देशभक्तों   ने   अपना   सर्वस्व   न्यौछावर   कर   दिया   और   जीवनभर   अनेक   असनीय   यातनाएं ,  कष्ट   व   प्रताड़नाएं   झेलीं।   देश   में   ऐसे   असंख्य   शूरवीर   देशभक्त   बलिदानी   हुए ,  जिनके   अथक   संघर्ष ,  अनंत   त्याग ,  अटूट   निश्चय   और   अनूठे   शौर्य   की   बदौलत   स्वतंत्रता   का   सूर्योदय   संभव   हो   सका।   ऐसे   ही   महान   पराक्रमी ,  सच्चे   देशभक्त   और   स्वतंत्रता   संग्राम   के   अमर   सेनानी   के   रूप   में   नेताजी   सुभाष   चन्द्र   बोस   का   नाम   इतिहास   के   पन्नों   पर   स्वर्णिम   अक्षरों   में   अंकित   है।
नेताजी   सुभाष   चंद्र   बोस   का   जन्म   23   जनवरी   1897   को   उड़ीसा   में   कटक   के   एक   संपन्न   बंगाली   परिवार   में   हुआ   था।   बोस   के   पिता   का   नाम   ‘ जानकीनाथ   बोस ‘  और   माँ   का   नाम   ‘ प्रभावती ‘  था।   जानकीनाथ   बोस   कटक   शहर   के   मशहूर   वकील   थे।   प्रभावती   और   जानकीनाथ   बोस   की   कुल   मिलाकर   14   संतानें   थी ,  जिसमें   6   बेटियाँ   और   8   बेटे   थे।   सुभाष   चंद्र   उनकी   नौवीं   संतान   और   पाँचवें   बेटे   थे।   अपने   सभी   भाइयों   में   से   सुभाष   को   सबसे   अधिक   लगाव   शरदचंद्र   से   था।   नेताजी   ने   अपनी   प्रारंभिक   पढ़ाई   कटक   के   रेवेंशॉव   कॉलेजिएट   स्कूल   में   हुई।   तत्पश्चात्   उनकी   शिक्षा   कलकत्ता   के   प्रेजिडेंसी   कॉलेज   और   स्कॉटिश   चर्च   कॉलेज   से   हुई ,  और   बाद   में   भारतीय   प्रशासनिक   सेवा  ( इण्डियन   सिविल   सर्विस )  की   तैयारी   के   लिए   उनके   माता - पिता   ने   बोस   को   इंग्लैंड   के   केंब्रिज   विश्वविद्यालय   भेज   दिया।   अँग्रेजी   शासन   काल   में   भारतीयों   के   लिए   सिविल   सर्विस   में   जाना   बहुत   कठिन   था   किंतु   उन्होंने   सिविल   सर्विस   की   परीक्षा   में   चैथा   स्थान   प्राप्त   किया।
1921   में   भारत   में   बढ़ती   राजनीतिक   गतिविधियों   का   समाचार   पाकर   बोस   ने   अपनी   उम्मीदवारी   वापस   ले   ली   और   शीघ्र   भारत   लौट   आए।   सिविल   सर्विस   छोड़ने   के   बाद   वे   भारतीय   राष्ट्रीय   कांग्रेस   के   साथ   जुड़   गए।   सुभाष   चंद्र   बोस   महात्मा   गांधी   के   अहिंसा   के   विचारों   से   सहमत   नहीं   थे।   वास्तव   में   महात्मा   गांधी   उदार   दल   का   नेतृत्व   करते   थे ,  वहीं   सुभाष   चंद्र   बोस   जोशीले   क्रांतिकारी   दल   के   प्रिय   थे।   महात्मा   गाँधी   और   सुभाष   चंद्र   बोस   के   विचार   भिन्न - भिन्न   थे   लेकिन   वे   यह   अच्छी   तरह   जानते   थे   कि   महात्मा   गाँधी   और   उनका   मकसद   एक   है ,  यानी   देश   की   आजादी।   सबसे   पहले   गाँधीजी   को   राष्ट्रपिता   कह   कर   नेताजी   ने   ही   संबोधित   किया   था।

1938   में   भारतीय   राष्ट्रीय   कांग्रेस   का   अध्यक्ष   निर्वाचित   होने   के   बाद   उन्होंने   राष्ट्रीय   योजना   आयोग   का   गठन   किया।   यह   नीति   गाँधीवादी   आर्थिक   विचारों   के   अनुकूल   नहीं   थी।   1939   में   बोस   पुन   एक   गाँधीवादी   प्रतिद्वंदी   को   हराकर   विजयी   हुए।   गांधी   ने   इसे   अपनी   हार   के   रुप   में   लिया।   उनके   अध्यक्ष   चुने   जाने   पर   गांधी   जी   ने   कहा   कि   बोस   की   जीत   मेरी   हार   है   और   ऐसा   लगने   लगा   कि   वह   कांग्रेस   वर्किंग   कमिटी   से   त्यागपत्र   दे   देंगे।   गाँधी   जी   के   विरोध   के   चलते   इस   ‘ विद्रोही   अध्यक्ष ‘  ने   त्यागपत्र   देने   की   आवश्यकता   महसूस   की।   गांधी   के   लगातार   विरोध   को   देखते   हुए   उन्होंने   स्वयं   कांग्रेस   छोड़   दी।
सुभाष   चन्द्र   बोस को  महात्मा   गाँधी   ने   नेताजी   को   देशभक्तों   का   देशभक्त   कहा   था।   विवेकानंद   को   अपना   आर्दश   मानने   वाले   सुभाष   चन्द्र   बोस   जब   भारत   आए   तो   रविन्द्रनाथ   टैगोर   के   कहने   पर   सबसे   पहले   गाँधी   जी   से   मिले   थे   ।   गाँधी   जी   से   पहली   मुलाकात   मुम्बई   में   20   जुलाई   1921   को   हुई   थी।   गाँधी   जी   की   सलाह   पर   सुभाष   कोलकता   में   दासबाबू   के   साथ   मिलकर   आजादी   के   लिये   प्रयास   करने   लगे।   जब   दासबाबू   कोलकता   के   महापौर   थे ,  तब   उन्होने   सुभाष   चन्द्र   बोस   को   महापालिका   का   प्रमुख   कार्यकारी   अधिकारी   बनाया   था।   अपने   कार्यकाल   के   दौरान   सुभाष   बाबु   ने   कोलकता   के   रास्तों   का   अंग्रेजी   नाम   बदलकर   भारतीय   नाम   कर   दिया   था।   संभ्रात   परिवार   के   होने   के   बावजूद   भी   उनका   झुकाव   सांसारिक   धन ,  वैभव   या   पदवी   की   ओर   नही   था।   मित्रगणं   उन्हे   सन्यासी   पुकारते   थे।   सुभाष   चन्द्र   बोस   को   उनके   घर   वाले   विलायत   पढने   के   लिये   इस   आशा   से   भेज   था   कि   सुभाष   आई .  सी .  एस .  की   उच्च   परिक्षा   पास   करके   बङी   सरकारी   नौकरी   करेंगे   और   परिवार   की   समृद्धि   एवं   यश   की   रक्षा   करेंगे   किन्तु   जिस   समय   वे   विलायत   में   थे ,  उसी   समय   अंग्रेजी   सरकार   के   अन्यायपूर्ण   नियमों   के   विरुद्ध   गाँधी   जी   ने   सत्याग्रह   संग्राम   छेङ   हुआ   था।   सरकार   के   साथ   असहयोग   करके   उसका   संचालन   कठिन   बनाना ,  इस   संग्राम   की   अपील   थी।   गाँधी   जी   से   प्रभावित   होकर   सुभाष   अपनी   प्रतिष्ठित   नौकरी   छोङकर   असहयोग   आंदोलन   में   शामिल   हो   गये।   आई .  सी .  एस .  की   परिक्षा   पास   करके   भी   सरकारी   नौकरी   छोङ   देने   वाले   सबसे   पहले   व्यक्ति   सुभाष   चन्द्र   बोस   थे।   अनेक   इष्ट - मित्रों   ने   और   स्वयं   ब्रिटिश   सरकार   के   भारत   मंत्री   ने   उनको   ऐसा   न   करने   के   लिये   बहुत   समझाया ,  किन्तु   कलेक्टर   और   कमिश्नर   बनने   के   बजाय   सुभाष   चन्द्र   बोस   को   मातृ   भूमि   का   सेवक   बनना   ज्यादा   श्रेष्ठ   लगा।
बंगाल   के   श्रेष्ठ   नेता   चितरंजन   दास   गाँधी   जी   के   आह्वान   पर   अपनी   लाखों   की   बैरस्टरी   का   मातृ   भूमि   के   लिये   त्याग   कर   चुके   थे।   सुभाष   बाबु   के   त्याग   को   सुनकर   उन्हे   बहुत   खुशी   हुई।   चितरंजन   दास   देशबन्धु   के   त्याग   से   सुभाष   भी   बहुत   प्रभावित   हुए   थे।   सुभाष   बाबु   देशबन्धु   को   अपना   राजनीतिक   गुरू   मानते   थे   और   उनके   प्रति   अत्यंत   आदर   और   श्रद्धा   का   भाव   रखते   थे।   सुभाष   चन्द्र   बोस   के   ओजस्वी   भाषणों   से   हजारों   विद्यार्थी ,  वकील ,  सरकारी   नौकर   गाँधी   जी   के   आंदोलन   में   शामिल   हो   गये।   सुभाष   बाबु   के   तेज   प्रवाह   से   डर   कर   अंग्रेज   सरकार   ने   चितरंजन   दास   और   सुभाष   को   6   महीने   कैद   की   सजा   सुनाई।   सुभाष ,  भारत   माँ   की   आजादी   के   साथ   ही   अनेक   सामाजिक   कार्यों   में   दिल   से   जुङे   थे।   बंगाल   की   भयंकर   बाढ   में   घिरे   लोगों   को   सुरक्षित   स्थान   पर   पहुँचाना ,  उनके   लिये   भोजन   वस्त्र   आदि   का   प्रबंध   स्वयं   करते   थे।   उनके   परिश्रम   को   देखकर   सरकारी   अघिकारी   भी   प्रशंसा   किये   बिना   न   रह   सके।   समाज - सेवा   का   कार्य   नियमित   रूप   से   चलता   रहे   इसलिये   उन्होने   “ युवक - दल ”  की   स्थापना   की   थी।   कुछ   समय   पश्चात   युवक   दल   ने   किसानों   के   हित   में   कार्य   आरंभ   किया   जिसका   लक्ष्य ,  किसानो   को   उनका   हक   दिलाना   था।
सुभाष   बाबु   के   प्रभाव   से   अंग्रेजी   सरकार   भयभीत   हो   गई।   अंग्रेजों   ने   उन   पर   आरोप   लगाया   कि   वे   बम   और   पिस्तौल   बनाने   वाले   क्रांतिकारियों   के   साथ   हैं।   उन्हे   कुछ   दिन   कोलकता   की   जेल   में   रखने   के   बाद   मांडले ( वर्मा )  की   जेल   में   भेज   दिया   गया ,  जहाँ   लगभग   16, 17   वर्ष   पहले   लाला   लाजपत   को   एवं   लोकमान्य   बाल   गंगाधर   को   रखा   गया।   अपने   सार्वजनिक   जीवन   में   सुभाष   बाबू   को   कुल   ग्यारह   बार   कारावास   हुआ   था।   राजनीतिक   प्रेरणास्रोत   देशबन्धु   चितरंजन   दास   के   निधन   का   समाचार ,  सुभाष   बाबु   को   मांडले   जेल   मे   मिला ,  ये   उनके   लिये   बहुत   ही   दुखःदायी   समाचार   था।   11   महिने   की   कारावास   में   उनको   इतनी   तकलीफ   नही   हुई   थी ,  जितनी   इस   खबर   से   हुई।   देशबंधु   चितरंजन   दास   की   कही   बात   “ बंगाल   के   जल ,  बंगाल   की   मिट्टी ,  में   एक   चितरंजन   सत्य   निहित   है। ”  से   सुभाष   चन्द्र   बोस   को   कोलकता   से   दूरी   का   एहसास   होने   लगा   था।   फिर   भी   जेल   में   रहने   का   उनको   दुःख   नही   था ,  उनका   मानना   था   कि   भारत   माता   के   लिये   कष्ट   सहना   गौरव   की   बात   है।   मांडले   जेल   में   अधिक   बीमार   हो   जाने   के   कारण   सरकार   ने   उनको   छोङने   का   हुक्म   दे   दिया।

कोलकता   में   वापस   भारत   की   आजादी   के   लिये   कार्य   करने   लगे।   इसी   दौरान   क्रांतिकारी   नेता   यतींद्रनाथ   ने   लाहौर   जेल   में   63   दिन   के   भूख   हङताल   करके   प्राण   त्याग   दिये   ।   शहीद   यतींद्रनाथ   की   शव   यात्रा   को   पूरे   जोश   के   साथ   निकाला   गया।   इस   अवसर   पर   सुभाष   बाबु   अंग्रेजों   को   खिलाफ   बहुत   ही   जोशिला   भांषण   दिया ,  जिस   वजह   से   उनको   पुनः   गिरफ्तार   कर   लिया   गया।   इस   प्रकार   जब   कई   बार   जेल   भेज   कर   सरकार   थक   गई   तो   उनको   नजरबंद   कर   दिया   गया।   इस   हालत   में   सुभाष   बाबु   का   स्वास्थ   पुनः   खराब   हो   गया।   जेल   से   रिहा   करने   के   बजाय   उनको   इलाज   के   लिये   स्वीट्जरलैंड   भेज   दिया   गया।   विदेश   में   रह   कर   भी   देश   की   स्वाधीनता   के   लिये   कार्य   करते   रहे।   पिता   की   बिमारी   की   खबर   मिलने   पर   सरकार   के   मना   करने   पर   भी   भारत   आये   लेकिन   जहाज   से   उतरते   ही   उन्हे   गिरफ्तार   कर   लिया   गया   और   इस   शर्त   पर   छोङे   गये   कि   जब   तक   भारत   में   रहेंगे   किसी   राजनीतिक   गतिविधी   में   भाग   नही   लेंगे।   पिता   के   अंतिम   क्रियाकर्मों   के   बाद   उन्हे   विदेश   वापस   जाना   पङा।   दो   वर्ष   बाद   वापस   भारत   आये   किन्तु   पुनः   पकङ   लिये   गये   और   जब   सभी   प्रान्तों   में   कांग्रेसी   सरकार   बन   गई   तब   जेल   से   रिहा   हो   पाये।   1938   में   कांग्रेस   के   सभापति   बनाये   गये।   रविन्द्रनाथ   टैगोर ,  प्रफुलचन्द्र   राय ,  मेधनाद   साह   जैसे   वैज्ञानिक   भी   सुभाष   की   कार्यशैली   के   साथ   थे।   1938   में   गाँधी   जी   ने   कांग्रेस   अध्यक्षपद   के   लिए   सुभाष   को   चुना,  मगर   गाँधी   जी   को   सुभाष   बाबू   की   कार्यपद्धती   पसंद   नहीं   आयी।   इसी   दौरान   युरोप   में   द्वितीय   विश्वयुद्ध   के   बादल   छा   गए।   सुभाष   बाबू   चाहते   थे   कि   इंग्लैंड   की   इस   कठिनाई   का   लाभ   उठाकर ,  भारत   का   स्वतंत्रता   संग्राम   अधिक   तेज   कर   दिया   जाए।   उन्होने   अपने   अध्यक्षपद   के   कार्यकाल   में   इस   तरफ   कदम   उठाना   भी   शुरू   कर   दिया   था।   गाँधी   जी   इस   विचारधारा   से   सहमत   नहीं   थे।भगत   सिहं   को   फासी   से   न   बचा   पाने   पर   भी   सुभाष ,  गाँधी   जी   एवं   कांग्रेस   से   नाखुश   थे।   इन   मतभेदों   के   कारण   आखिरकार   सुभाष   चन्द्र   बोस   ने   कांग्रेस   पार्टी   छोङ   दी।

1940   में   रामगढ   कांग्रेस   के   अधिवेशन   के   अवसर   पर   सुभाष   बाबू   ने   “ समझौता   विरोधी   कॉनफ्रेस ”  का   आयोजन   किया   और   उसमें   बहुत   जोशीला   भांषण   दिया।   “ ब्लैक - हॉल ”  स्मारक   को   देश   के   लिये   अपमानजनक   बतला   कर   उसके   विरुद्ध   आन्दोलन   छेङ   दिये।   इससे   अंग्रेज   सरकार   ने   उन्हे   गिरफ्तार   कर   जेल   भेज   दिया।   जहाँ   उन्होने   भूख   हङताल   कर   दी   आखिर   अंग्रेजों   को   उन्हे   छोङना   पङा   और   उनकी   माँग   के   आगे   झुकना   पङा ,  जिससे   “ ब्लैक - हॉल   स्मारक ”  को   हटाना   स्वीकार   किया   गया।   सन्   1941   में   जब   कोलकता   की   अदालत   में   मुकदमा   पेश   होना   था ,  तो   पता   चला   कि   वह   घर   छोङ   कर   कहीं   चले   गये   हैं।   दरअसल   सुभाष   बाबु   वेष   बदल   कर   पहरेदारों   के   सामने   से   ही   निकल   गये   थे।   भारत   छोङकर   वह   सबसे   पहले   काबुल   गये   तद्पश्चात   जर्मनी   में   हिटलर   से   मिले।   उन्होने   जर्मनी   में   “ भारतीय   स्वतंत्रता   संगठन ”  और   “ आजाद   हिंद   रेडिओ ”  की   स्थापना   की   थी।   जर्मनी   से   गोताखोर   नाव   द्वारा   जापान   पहुँचे।   अंग्रेजों   के   खिलाफ   लड़ने   के   लिये ,  उन्होंने   जापान   के   सहयोग   से आजाद   हिन्द   फौज   का   गठन   किया   और   युवाओं   का   आह्वान   करते   हुए   कहा   “ तुम   मुझे   खून   दो ,  मैं   तुम्हे   आजादी   दूंगा। ”
बोस   का   मानना   था   कि   अंग्रेजों   के   दुश्मनों   से   मिलकर   आजादी   हासिल   की   जा   सकती   है।   उनके   विचारों   के   देखते   हुए   उन्हें   ब्रिटिश   सरकार   ने   कोलकाता   में   नजरबंद   कर   लिया   लेकिन   वह   अपने   भतीजे   शिशिर   कुमार   बोस   की   सहायता   से   वहां   से   भाग   निकले।   वह   अफगानिस्तान   और   सोवियत   संघ   होते   हुए   जर्मनी   जा   पहुंचे।   सक्रिय   राजनीति   में   आने   से   पहले   नेताजी   ने   पूरी   दुनिया   का   भ्रमण   किया।   वह   1933   से   36   तक   यूरोप   में   रहे।   यूरोप   में   यह   दौर   था   हिटलर   के   नाजीवाद   और   मुसोलिनी   के   फासीवाद   का।   नाजीवाद   और   फासीवाद   का   निशाना   इंग्लैंड   था ,  जिसने   पहले   विश्वयुद्ध   के   बाद   जर्मनी   पर   एकतरफा   समझौते   थोपे   थे।   वे   उसका   बदला   इंग्लैंड   से   लेना   चाहते   थे।   भारत   पर   भी   अँग्रेजों   का   कब्जा   था   और   इंग्लैंड   के   खिलाफ   लड़ाई   में   नेताजी   को   हिटलर   और   मुसोलिनी   में   भविष्य   का   मित्र   दिखाई   पड़   रहा   था।   दुश्मन   का   दुश्मन   दोस्त   होता   है।   उनका   मानना   था   कि   स्वतंत्रता   हासिल   करने   के   लिए   राजनीतिक   गतिविधियों   के   साथ - साथ   कूटनीतिक   और   सैन्य   सहयोग   की   भी   जरूरत   पड़ती   है।   नेताजी   हिटलर   से   मिले।   उन्होंने   ब्रिटिश   हुकूमत   और   देश   की   आजादी   के   लिए   कई   काम   किए।   ‘ नेताजी ’   के   नाम   से   प्रसिद्ध   सुभाष   चन्द्र   ने   सशक्त   क्रान्ति   द्वारा   भारत   को   स्वतंत्र   कराने   के   उद्देश्य   से   21   अक्टूबर , 1943   को   ‘ आजाद   हिन्द   सरकार ‘  की   स्थापना   की   तथा   ‘ आजाद   हिन्द   फौज ’  का   गठन   किया   इस   संगठन   के   प्रतीक   चिह्न   पर   एक   झंडे   पर   दहाड़ते   हुए   बाघ   का   चित्र   बना   होता   था।   नेताजी   अपनी   आजाद   हिंद   फौज   के   साथ   4   जुलाई   1944   को   बर्मा   पहुँचे।   यहीं   पर   उन्होंने   अपना   प्रसिद्ध   नारा , ‘‘ तुम   मुझे   खून   दो ,  मैं   तुम्हें   आजादी   दूंगा ”  दिया।   18   अगस्त   1945   को   टोक्यो  ( जापान )  जाते   समय   ताइवान   के   पास   नेताजी   का   एक   हवाई   दुर्घटना   में   निधन   हुआ   बताया   जाता   है ,  लेकिन   उनका   शव   नहीं   मिल   पाया।   नेताजी   की   मौत   के   कारणों   पर   आज   भी   विवाद   बना   हुआ   है।   द्वितीय   विश्वयुद्ध   में   जापान   की   हार   के   बाद ,  नेताजी   को   नया   रास्ता   ढूँढना   जरूरी   था।   उन्होने   रूस   से   सहायता   माँगने   का   निश्चय   किया   था।   18   अगस्त   1945   को   नेताजी   हवाई   जहाज   से   मंचूरिया   की   तरफ   जा   रहे   थे।   इस   सफर   के   दौरान   वे   लापता   हो   गये। 23   अगस्त   1945   को   टोकियो   रेडियो   ने   बताया   कि   सैगोन   में   नेताजी   एक   बड़े   बमवर्षक   विमान   से   आ   रहे   थे   कि   18   अगस्त   को   ताइहोकू   हवाई   अड्डे   के   पास   उनका   विमान   दुर्घटनाग्रस्त   हो   गया।   विमान   में   उनके   साथ   सवार   जापानी   जनरल   शोदेई ,  पाइलेट   तथा   कुछ   अन्य   लोग   मारे   गये।   नेताजी   गम्भीर   रूप   से   जल   गये   थे।   उन्हें   ताइहोकू   सैनिक   अस्पताल   ले   जाया   गया   जहाँ   उन्होंने   दम   तोड़   दिया।   
कर्नल   हबीबुर्रहमान   के   अनुसार   उनका   अन्तिम   संस्कार   ताइहोकू   में   ही   कर   दिया   गया।   सितम्बर   के   मध्य   में   उनकी   अस्थियाँ   संचित   करके   जापान   की   राजधानी   टोकियो   के   रैंकोजी   मन्दिर   में   रख   दी   गयीं।

भारतीय   राष्ट्रीय   अभिलेखागार   से   प्राप्त   दस्तावेज   के   अनुसार   नेताजी   की   मृत्यु   18   अगस्त   1945   को   ताइहोकू   के   सैनिक   अस्पताल   में   रात्रि   21.00   बजे   हुई   थी।  लेकिन   जिस   ताइवान   की   भूमि   पर   यह   दुर्घटना   होने   की   खबर   थी   उस   ताइवान   देश   की   सरकार   से   इन   दोनों   आयोगों   ने   कोई   बात   ही   नहीं   की।   1999   में   मनोज   कुमार   मुखर्जी   के   नेतृत्व   में   तीसरा   आयोग   बनाया   गया।   2005   में   ताइवान   सरकार   ने   मुखर्जी   आयोग   को   बता   दिया   कि   1945   में   ताइवान   की   भूमि   पर   कोई   हवाई   जहाज   दुर्घटनाग्रस्त   हुआ   ही   नहीं   था।   2005   में   मुखर्जी   आयोग   ने   भारत   सरकार   को   अपनी   रिपोर्ट   पेश   की   जिसमें   उन्होंने   कहा   कि   नेताजी   की   मृत्यु   उस   विमान   दुर्घटना   में   होने   का   कोई   सबूत   नहीं   हैं।   लेकिन   भारत   सरकार   ने   मुखर्जी   आयोग   की   रिपोर्ट   को   अस्वीकार   कर   दिया।   18   अगस्त   1945   के   दिन   नेताजी   कहाँ   लापता   हो   गये   और   उनका   आगे   क्या   हुआ   यह   भारतीय   इतिहास   का   सबसे   बड़ा   अनुत्तरित   रहस्य   बन   गया   हैं।   देश   के   अलग - अलग   हिस्सों   में   आज   भी   नेताजी   को   देखने   और   मिलने   का   दावा   करने   वाले   लोगों   की   कमी   नहीं   है।   फैजाबाद   के   गुमनामी   बाबा   से   लेकर   छत्तीसगढ़   राज्य   में   जिला   रायगढ़   तक   में   नेताजी   के   होने   को   लेकर   कई   दावे   पेश   किये   गये   लेकिन   इन   सभी   की   प्रामाणिकता   संदिग्ध   है।  ऐसे महान देशभक्त को कोटिश नमन।

प्रो दिग्विजय कुमार शर्मा
शिक्षाविद, साहित्यकार

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