देशहित के महानायक सुभाष चन्द्र बोस "राष्ट्रीय पराक्रम दिवस" 23 जनवरी जन्म जयंती विशेष....
प्रो दिग्विजय कुमार शर्मा
तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हे आजादी दूंगा।
सुभाष चन्द्र बोस क्रांतिकारी विचारों के व्यक्ति थे। उनके अन्दर असीम सासह , अनूठे शौर्य और अनूठी संकल्प शक्ति का अनंत प्रवाह विद्यमान था। उन्हें वर्ष 1921 में अपने क्रांतिकारी विचारों और गतिविधियों का संचालन करने के कारण पहली बार छह माह जेल जाना पड़ा। इसके बाद तो जेल यात्राओं , अंग्रेजी अत्याचारों और प्रताड़नाओं को झेलने का सिलसिला चल निकला। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान उन्हें ग्यारह बार जेल जाना पड़ा। इसके साथ ही उन्हें अंग्रेजी सरकार द्वारा कई बार लंबे समय तक नजरबंद भी रखा गया। लेकिन , सुभाष चन्द्र बोस अपने इरादों से कभी भी टस से मस नहीं हुए। इसके लिए , उन्होंने कई बार अंग्रेजों की आँखों में धूल झोंकी और अंग्रेजी शिकंजे से निकल भागे। 1939 में गान्धीजी से मतभेद के कारण सुभाष चंद्र ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। फिर उन्होंने आजाद हिन्द फौज और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
अपने वतन भारत को अंग्रेजी दासता से मुक्त करवाने के लिए असंख्य जाने - अनजाने देशभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया और जीवनभर अनेक असनीय यातनाएं , कष्ट व प्रताड़नाएं झेलीं। देश में ऐसे असंख्य शूरवीर देशभक्त बलिदानी हुए , जिनके अथक संघर्ष , अनंत त्याग , अटूट निश्चय और अनूठे शौर्य की बदौलत स्वतंत्रता का सूर्योदय संभव हो सका। ऐसे ही महान पराक्रमी , सच्चे देशभक्त और स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम इतिहास के पन्नों पर स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा में कटक के एक संपन्न बंगाली परिवार में हुआ था। बोस के पिता का नाम ‘ जानकीनाथ बोस ‘ और माँ का नाम ‘ प्रभावती ‘ था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 संतानें थी , जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष चंद्र उनकी नौवीं संतान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरदचंद्र से था। नेताजी ने अपनी प्रारंभिक पढ़ाई कटक के रेवेंशॉव कॉलेजिएट स्कूल में हुई। तत्पश्चात् उनकी शिक्षा कलकत्ता के प्रेजिडेंसी कॉलेज और स्कॉटिश चर्च कॉलेज से हुई , और बाद में भारतीय प्रशासनिक सेवा ( इण्डियन सिविल सर्विस ) की तैयारी के लिए उनके माता - पिता ने बोस को इंग्लैंड के केंब्रिज विश्वविद्यालय भेज दिया। अँग्रेजी शासन काल में भारतीयों के लिए सिविल सर्विस में जाना बहुत कठिन था किंतु उन्होंने सिविल सर्विस की परीक्षा में चैथा स्थान प्राप्त किया।
1921 में भारत में बढ़ती राजनीतिक गतिविधियों का समाचार पाकर बोस ने अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और शीघ्र भारत लौट आए। सिविल सर्विस छोड़ने के बाद वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ जुड़ गए। सुभाष चंद्र बोस महात्मा गांधी के अहिंसा के विचारों से सहमत नहीं थे। वास्तव में महात्मा गांधी उदार दल का नेतृत्व करते थे , वहीं सुभाष चंद्र बोस जोशीले क्रांतिकारी दल के प्रिय थे। महात्मा गाँधी और सुभाष चंद्र बोस के विचार भिन्न - भिन्न थे लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मकसद एक है , यानी देश की आजादी। सबसे पहले गाँधीजी को राष्ट्रपिता कह कर नेताजी ने ही संबोधित किया था।
1938 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने राष्ट्रीय योजना आयोग का गठन किया। यह नीति गाँधीवादी आर्थिक विचारों के अनुकूल नहीं थी। 1939 में बोस पुन एक गाँधीवादी प्रतिद्वंदी को हराकर विजयी हुए। गांधी ने इसे अपनी हार के रुप में लिया। उनके अध्यक्ष चुने जाने पर गांधी जी ने कहा कि बोस की जीत मेरी हार है और ऐसा लगने लगा कि वह कांग्रेस वर्किंग कमिटी से त्यागपत्र दे देंगे। गाँधी जी के विरोध के चलते इस ‘ विद्रोही अध्यक्ष ‘ ने त्यागपत्र देने की आवश्यकता महसूस की। गांधी के लगातार विरोध को देखते हुए उन्होंने स्वयं कांग्रेस छोड़ दी।
सुभाष चन्द्र बोस को महात्मा गाँधी ने नेताजी को देशभक्तों का देशभक्त कहा था। विवेकानंद को अपना आर्दश मानने वाले सुभाष चन्द्र बोस जब भारत आए तो रविन्द्रनाथ टैगोर के कहने पर सबसे पहले गाँधी जी से मिले थे । गाँधी जी से पहली मुलाकात मुम्बई में 20 जुलाई 1921 को हुई थी। गाँधी जी की सलाह पर सुभाष कोलकता में दासबाबू के साथ मिलकर आजादी के लिये प्रयास करने लगे। जब दासबाबू कोलकता के महापौर थे , तब उन्होने सुभाष चन्द्र बोस को महापालिका का प्रमुख कार्यकारी अधिकारी बनाया था। अपने कार्यकाल के दौरान सुभाष बाबु ने कोलकता के रास्तों का अंग्रेजी नाम बदलकर भारतीय नाम कर दिया था। संभ्रात परिवार के होने के बावजूद भी उनका झुकाव सांसारिक धन , वैभव या पदवी की ओर नही था। मित्रगणं उन्हे सन्यासी पुकारते थे। सुभाष चन्द्र बोस को उनके घर वाले विलायत पढने के लिये इस आशा से भेज था कि सुभाष आई . सी . एस . की उच्च परिक्षा पास करके बङी सरकारी नौकरी करेंगे और परिवार की समृद्धि एवं यश की रक्षा करेंगे किन्तु जिस समय वे विलायत में थे , उसी समय अंग्रेजी सरकार के अन्यायपूर्ण नियमों के विरुद्ध गाँधी जी ने सत्याग्रह संग्राम छेङ हुआ था। सरकार के साथ असहयोग करके उसका संचालन कठिन बनाना , इस संग्राम की अपील थी। गाँधी जी से प्रभावित होकर सुभाष अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोङकर असहयोग आंदोलन में शामिल हो गये। आई . सी . एस . की परिक्षा पास करके भी सरकारी नौकरी छोङ देने वाले सबसे पहले व्यक्ति सुभाष चन्द्र बोस थे। अनेक इष्ट - मित्रों ने और स्वयं ब्रिटिश सरकार के भारत मंत्री ने उनको ऐसा न करने के लिये बहुत समझाया , किन्तु कलेक्टर और कमिश्नर बनने के बजाय सुभाष चन्द्र बोस को मातृ भूमि का सेवक बनना ज्यादा श्रेष्ठ लगा।
बंगाल के श्रेष्ठ नेता चितरंजन दास गाँधी जी के आह्वान पर अपनी लाखों की बैरस्टरी का मातृ भूमि के लिये त्याग कर चुके थे। सुभाष बाबु के त्याग को सुनकर उन्हे बहुत खुशी हुई। चितरंजन दास देशबन्धु के त्याग से सुभाष भी बहुत प्रभावित हुए थे। सुभाष बाबु देशबन्धु को अपना राजनीतिक गुरू मानते थे और उनके प्रति अत्यंत आदर और श्रद्धा का भाव रखते थे। सुभाष चन्द्र बोस के ओजस्वी भाषणों से हजारों विद्यार्थी , वकील , सरकारी नौकर गाँधी जी के आंदोलन में शामिल हो गये। सुभाष बाबु के तेज प्रवाह से डर कर अंग्रेज सरकार ने चितरंजन दास और सुभाष को 6 महीने कैद की सजा सुनाई। सुभाष , भारत माँ की आजादी के साथ ही अनेक सामाजिक कार्यों में दिल से जुङे थे। बंगाल की भयंकर बाढ में घिरे लोगों को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाना , उनके लिये भोजन वस्त्र आदि का प्रबंध स्वयं करते थे। उनके परिश्रम को देखकर सरकारी अघिकारी भी प्रशंसा किये बिना न रह सके। समाज - सेवा का कार्य नियमित रूप से चलता रहे इसलिये उन्होने “ युवक - दल ” की स्थापना की थी। कुछ समय पश्चात युवक दल ने किसानों के हित में कार्य आरंभ किया जिसका लक्ष्य , किसानो को उनका हक दिलाना था।
सुभाष बाबु के प्रभाव से अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गई। अंग्रेजों ने उन पर आरोप लगाया कि वे बम और पिस्तौल बनाने वाले क्रांतिकारियों के साथ हैं। उन्हे कुछ दिन कोलकता की जेल में रखने के बाद मांडले ( वर्मा ) की जेल में भेज दिया गया , जहाँ लगभग 16, 17 वर्ष पहले लाला लाजपत को एवं लोकमान्य बाल गंगाधर को रखा गया। अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष बाबू को कुल ग्यारह बार कारावास हुआ था। राजनीतिक प्रेरणास्रोत देशबन्धु चितरंजन दास के निधन का समाचार , सुभाष बाबु को मांडले जेल मे मिला , ये उनके लिये बहुत ही दुखःदायी समाचार था। 11 महिने की कारावास में उनको इतनी तकलीफ नही हुई थी , जितनी इस खबर से हुई। देशबंधु चितरंजन दास की कही बात “ बंगाल के जल , बंगाल की मिट्टी , में एक चितरंजन सत्य निहित है। ” से सुभाष चन्द्र बोस को कोलकता से दूरी का एहसास होने लगा था। फिर भी जेल में रहने का उनको दुःख नही था , उनका मानना था कि भारत माता के लिये कष्ट सहना गौरव की बात है। मांडले जेल में अधिक बीमार हो जाने के कारण सरकार ने उनको छोङने का हुक्म दे दिया।
कोलकता में वापस भारत की आजादी के लिये कार्य करने लगे। इसी दौरान क्रांतिकारी नेता यतींद्रनाथ ने लाहौर जेल में 63 दिन के भूख हङताल करके प्राण त्याग दिये । शहीद यतींद्रनाथ की शव यात्रा को पूरे जोश के साथ निकाला गया। इस अवसर पर सुभाष बाबु अंग्रेजों को खिलाफ बहुत ही जोशिला भांषण दिया , जिस वजह से उनको पुनः गिरफ्तार कर लिया गया। इस प्रकार जब कई बार जेल भेज कर सरकार थक गई तो उनको नजरबंद कर दिया गया। इस हालत में सुभाष बाबु का स्वास्थ पुनः खराब हो गया। जेल से रिहा करने के बजाय उनको इलाज के लिये स्वीट्जरलैंड भेज दिया गया। विदेश में रह कर भी देश की स्वाधीनता के लिये कार्य करते रहे। पिता की बिमारी की खबर मिलने पर सरकार के मना करने पर भी भारत आये लेकिन जहाज से उतरते ही उन्हे गिरफ्तार कर लिया गया और इस शर्त पर छोङे गये कि जब तक भारत में रहेंगे किसी राजनीतिक गतिविधी में भाग नही लेंगे। पिता के अंतिम क्रियाकर्मों के बाद उन्हे विदेश वापस जाना पङा। दो वर्ष बाद वापस भारत आये किन्तु पुनः पकङ लिये गये और जब सभी प्रान्तों में कांग्रेसी सरकार बन गई तब जेल से रिहा हो पाये। 1938 में कांग्रेस के सभापति बनाये गये। रविन्द्रनाथ टैगोर , प्रफुलचन्द्र राय , मेधनाद साह जैसे वैज्ञानिक भी सुभाष की कार्यशैली के साथ थे। 1938 में गाँधी जी ने कांग्रेस अध्यक्षपद के लिए सुभाष को चुना, मगर गाँधी जी को सुभाष बाबू की कार्यपद्धती पसंद नहीं आयी। इसी दौरान युरोप में द्वितीय विश्वयुद्ध के बादल छा गए। सुभाष बाबू चाहते थे कि इंग्लैंड की इस कठिनाई का लाभ उठाकर , भारत का स्वतंत्रता संग्राम अधिक तेज कर दिया जाए। उन्होने अपने अध्यक्षपद के कार्यकाल में इस तरफ कदम उठाना भी शुरू कर दिया था। गाँधी जी इस विचारधारा से सहमत नहीं थे।भगत सिहं को फासी से न बचा पाने पर भी सुभाष , गाँधी जी एवं कांग्रेस से नाखुश थे। इन मतभेदों के कारण आखिरकार सुभाष चन्द्र बोस ने कांग्रेस पार्टी छोङ दी।
1940 में रामगढ कांग्रेस के अधिवेशन के अवसर पर सुभाष बाबू ने “ समझौता विरोधी कॉनफ्रेस ” का आयोजन किया और उसमें बहुत जोशीला भांषण दिया। “ ब्लैक - हॉल ” स्मारक को देश के लिये अपमानजनक बतला कर उसके विरुद्ध आन्दोलन छेङ दिये। इससे अंग्रेज सरकार ने उन्हे गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। जहाँ उन्होने भूख हङताल कर दी आखिर अंग्रेजों को उन्हे छोङना पङा और उनकी माँग के आगे झुकना पङा , जिससे “ ब्लैक - हॉल स्मारक ” को हटाना स्वीकार किया गया। सन् 1941 में जब कोलकता की अदालत में मुकदमा पेश होना था , तो पता चला कि वह घर छोङ कर कहीं चले गये हैं। दरअसल सुभाष बाबु वेष बदल कर पहरेदारों के सामने से ही निकल गये थे। भारत छोङकर वह सबसे पहले काबुल गये तद्पश्चात जर्मनी में हिटलर से मिले। उन्होने जर्मनी में “ भारतीय स्वतंत्रता संगठन ” और “ आजाद हिंद रेडिओ ” की स्थापना की थी। जर्मनी से गोताखोर नाव द्वारा जापान पहुँचे। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिये , उन्होंने जापान के सहयोग से आजाद हिन्द फौज का गठन किया और युवाओं का आह्वान करते हुए कहा “ तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हे आजादी दूंगा। ”
बोस का मानना था कि अंग्रेजों के दुश्मनों से मिलकर आजादी हासिल की जा सकती है। उनके विचारों के देखते हुए उन्हें ब्रिटिश सरकार ने कोलकाता में नजरबंद कर लिया लेकिन वह अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से वहां से भाग निकले। वह अफगानिस्तान और सोवियत संघ होते हुए जर्मनी जा पहुंचे। सक्रिय राजनीति में आने से पहले नेताजी ने पूरी दुनिया का भ्रमण किया। वह 1933 से 36 तक यूरोप में रहे। यूरोप में यह दौर था हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद का। नाजीवाद और फासीवाद का निशाना इंग्लैंड था , जिसने पहले विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर एकतरफा समझौते थोपे थे। वे उसका बदला इंग्लैंड से लेना चाहते थे। भारत पर भी अँग्रेजों का कब्जा था और इंग्लैंड के खिलाफ लड़ाई में नेताजी को हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य का मित्र दिखाई पड़ रहा था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है। उनका मानना था कि स्वतंत्रता हासिल करने के लिए राजनीतिक गतिविधियों के साथ - साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग की भी जरूरत पड़ती है। नेताजी हिटलर से मिले। उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत और देश की आजादी के लिए कई काम किए। ‘ नेताजी ’ के नाम से प्रसिद्ध सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर , 1943 को ‘ आजाद हिन्द सरकार ‘ की स्थापना की तथा ‘ आजाद हिन्द फौज ’ का गठन किया इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था। नेताजी अपनी आजाद हिंद फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को बर्मा पहुँचे। यहीं पर उन्होंने अपना प्रसिद्ध नारा , ‘‘ तुम मुझे खून दो , मैं तुम्हें आजादी दूंगा ” दिया। 18 अगस्त 1945 को टोक्यो ( जापान ) जाते समय ताइवान के पास नेताजी का एक हवाई दुर्घटना में निधन हुआ बताया जाता है , लेकिन उनका शव नहीं मिल पाया। नेताजी की मौत के कारणों पर आज भी विवाद बना हुआ है। द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद , नेताजी को नया रास्ता ढूँढना जरूरी था। उन्होने रूस से सहायता माँगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। 23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई , पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गये। नेताजी गम्भीर रूप से जल गये थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहाँ उन्होंने दम तोड़ दिया।
कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियाँ संचित करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं।
भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से प्राप्त दस्तावेज के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात्रि 21.00 बजे हुई थी। लेकिन जिस ताइवान की भूमि पर यह दुर्घटना होने की खबर थी उस ताइवान देश की सरकार से इन दोनों आयोगों ने कोई बात ही नहीं की। 1999 में मनोज कुमार मुखर्जी के नेतृत्व में तीसरा आयोग बनाया गया। 2005 में ताइवान सरकार ने मुखर्जी आयोग को बता दिया कि 1945 में ताइवान की भूमि पर कोई हवाई जहाज दुर्घटनाग्रस्त हुआ ही नहीं था। 2005 में मुखर्जी आयोग ने भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें उन्होंने कहा कि नेताजी की मृत्यु उस विमान दुर्घटना में होने का कोई सबूत नहीं हैं। लेकिन भारत सरकार ने मुखर्जी आयोग की रिपोर्ट को अस्वीकार कर दिया। 18 अगस्त 1945 के दिन नेताजी कहाँ लापता हो गये और उनका आगे क्या हुआ यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा अनुत्तरित रहस्य बन गया हैं। देश के अलग - अलग हिस्सों में आज भी नेताजी को देखने और मिलने का दावा करने वाले लोगों की कमी नहीं है। फैजाबाद के गुमनामी बाबा से लेकर छत्तीसगढ़ राज्य में जिला रायगढ़ तक में नेताजी के होने को लेकर कई दावे पेश किये गये लेकिन इन सभी की प्रामाणिकता संदिग्ध है। ऐसे महान देशभक्त को कोटिश नमन।
प्रो दिग्विजय कुमार शर्मा
शिक्षाविद, साहित्यकार