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जनसंख्या के विचारणीय पहलु 

डॉ बृजेन्द्र पाण्डेय

जिस यूरो-अमेरिकी विकास के सापेक्ष हमें अपनी जनसंख्या बोझ लगती है, उस विकास की वैश्विक लागत का भी अनुमान लगाने की आवश्यकता है। 

ध्यान रहे, इस यूरो-अमेरिकी विकास की बहुत बड़ी पर्यावरणीय और सांस्कृतिक लागत एशिया और अफ्रीका के देशों ने अदा की है; तथा इस प्रकार का तथाकथित विकास पूरे विश्व को उपलब्ध कराने के लिए एक नहीं, वरन् पांच-पांच पृथ्वियों के बराबर संसाधनों की एकमुश्त आवश्यकता पड़ेगी; फिर इस विकास को लगातार बनाए रखने के संसाधन कहां से आयेंगे?

यह अनायास नहीं है कि अमेरिका, जिसकी जनसंख्या भारत की जनसंख्या के एक-चौथाई के बराबर है, ने अपनी जनसंख्या की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को बीमारी, मृत्यु और युद्ध के सहारे टिका रखा है। बीसवीं शताब्दी के लगभग प्रत्येक दशक में विश्व के किसी न किसी भाग में युद्ध की परिस्थितियां उत्पन्न करने, उसमें शामिल होने और उसे पोषित करने में अमेरिका की भूमिका को नहीं भूलना चाहिए। 

इसी प्रकार, आज के थके-हारे यूरोप के भी उस औपनिवेशिक महाप्रकल्प को नहीं भूलना चाहिए जिसके अनवरत और सघन शोषण से आज तक तीसरी दुनियां के देश उबर नहीं पाए हैं। 

बावजूद इसके, यूरो-अमेरिकी समाज इतनी बुरी तरह बिखर चुका है कि आज यूरोप और अमेरिका में पचास फीसदी बच्चों का जन्म परिवार व्यवस्था के बाहर हो रहा है। 

इसी प्रकार, चीन को देखना चाहिए, जिसके विकास की बहुत बड़ी लागत दक्षिण एशिया के देशों सहित स्वयं चीनी समाज और पर्यावरण को भुगतनी पड़ी है। चीनी समाज में अविश्वास का संकट इतना बढ़ गया है कि लगभग दो-तिहाई पिता अपने बच्चों का डीएनए टेस्ट कराने लगे हैं। उस चीन की आक्रामकता से उत्पन्न कोरोना संकट के तो हम आज साक्षी हैं ही। 

दूसरी ओर, भारत की स्थिति देखिए। भारत ने, और विशेषतः तथाकथित पिछड़े भारत ने अपने विकास की न्यूनतम पर्यावरणीय, सामाजिक और सांस्कृतिक लागत अदा की है। विकसित शहरों से अपने अभावग्रस्त गावों की तरफ लौटते श्रमिकों के यथार्थ को इसी दृष्टि से देखना चाहिए।

कई दृष्टियों से हम अभावग्रस्त हो सकते हैं, किन्तु हमारे अभावों के निराकरण का मार्ग सदाचार, संयम, स्वावलंबन और स्वदेशी से होकर जाता है। हमारा विश्वास न तो प्रकृति-विरोधी विकास पर होना चाहिए, और न ही प्रकृति-विरोधी जनसंख्या-नियंत्रण पर। 

सही मायने में तो स्वतन्त्र भारत को अपनी मानव-प्रजनन-नीति, पशु-प्रजनन-नीति और फसल-प्रजनन-नीति पर गम्भीरता से पुनर्विचार करने की आवश्यकता है। जन, पशु और फसलों की उत्पादकता की अपेक्षा उनकी गुणात्मकता का प्रश्न अधिक विचारणीय है।

दूसरे शब्दों में, भारत की अपेक्षा जब इतनी कम जनसंख्या का आधुनिक साधनों से पोषण करने के लिए अमेरिका को इतना वैश्विक अत्याचार करना पड़ रहा है तो इन साधनों से भारत जैसे देश का कल्याण कैसे संभव है। वास्तव में जिन संसाधनों के आधार पर लोक-कल्याण की संकल्पना आधुनिक विश्व कर रहा है, उनकी अनवरत और समतामूलक प्रपूर्ति संभव ही नहीं है। इसलिए जनसंख्या की अपेक्षा 'quality/standard of life' की पूरी अवधारणा पर गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार करने की आवश्यकता है।

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