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मन चंगा तो कठौती में गंगा: महान योगी व समाज सुधारक संत शिरोमणि रविदास जी के विचारों की वर्तमान समय में प्रासंगिकता

डॉ प्रमोद कुमार

भारतीय संत परंपरा में संत शिरोमणि रविदास जी का स्थान अत्यंत ऊँचा और सम्माननीय है। वे केवल एक महान संत ही नहीं, बल्कि एक समाज सुधारक, योगी और आध्यात्मिक चिंतक भी थे। उनके विचार आज भी समाज को सही दिशा देने का कार्य कर रहे हैं। उनका प्रसिद्ध कथन “मन चंगा तो कठौती में गंगा” हमें यह सिखाता है कि सच्ची पवित्रता बाहरी साधनों में नहीं, बल्कि हमारे मन की शुद्धता में है। इस विचार का महत्व आज के समय में और भी अधिक बढ़ गया है, जब लोग धार्मिक आडंबरों में उलझकर वास्तविक नैतिकता और आत्म-शुद्धि से दूर हो रहे हैं। यह लेख संत रविदास जी के इस महान विचार की वर्तमान समय में प्रासंगिकता की गहराई से पड़ताल करेगा और यह समझाने का प्रयास करेगा कि कैसे इस संदेश को अपनाकर हम एक बेहतर समाज की स्थापना कर सकते हैं।

संत रविदास जी का जन्म 15वीं शताब्दी में काशी (वर्तमान वाराणसी) में हुआ था। वे एक साधारण परिवार में जन्मे थे और जूते बनाने का कार्य करते थे। बचपन से ही वे आध्यात्मिक झुकाव रखते थे और ईश्वर भक्ति में लीन रहते थे। उन्होंने जाति-पाति, भेदभाव और आडंबरों का विरोध किया और समाज को प्रेम, समानता और भक्ति का संदेश दिया।
उनके उपदेशों का सार था कि मनुष्य का असली धर्म सच्चाई, प्रेम और करुणा में निहित है, न कि बाहरी आडंबरों में। उन्होंने भक्ति आंदोलन को नई दिशा दी और समाज में फैली कुरीतियों के विरुद्ध आवाज उठाई।

“मन चंगा तो कठौती में गंगा” का अर्थ
संत रविदास जी का यह कथन गहरे आध्यात्मिक और सामाजिक अर्थ को संजोए हुए है। इसका अर्थ है कि यदि मन शुद्ध और निर्मल है, तो कोई भी स्थान गंगा के समान पवित्र हो सकता है। इस विचार में कई गहरे पहलू छिपे हैं—
आंतरिक पवित्रता का महत्व: बाहरी स्नान और धार्मिक क्रियाएँ तब तक व्यर्थ हैं जब तक मन स्वच्छ और निष्कलंक न हो।
आडंबरों का खंडन: समाज में फैले अंधविश्वास और बाहरी आडंबरों की आलोचना करते हुए संत रविदास जी का यह कथन हमें सिखाता है कि असली भक्ति और धर्म आचरण में निहित है, न कि बाहरी कर्मकांडों में।
कर्म की प्रधानता: मनुष्य को उसके कर्मों से आंका जाना चाहिए, न कि उसके जाति, संप्रदाय या बाहरी आचरण से।

वर्तमान समय में इस विचार की प्रासंगिकता
1. आडंबरों और दिखावे की भक्ति का बढ़ता प्रभाव
आज के समय में धर्म को कर्मकांड और बाहरी आडंबरों तक सीमित कर दिया गया है। लोग मंदिरों, मस्जिदों, गिरिजाघरों और गुरुद्वारों में जाकर पूजा तो करते हैं, लेकिन उनका मन छल-कपट, ईर्ष्या और स्वार्थ से भरा होता है। संत रविदास जी का यह विचार हमें सिखाता है कि सच्ची भक्ति केवल बाहरी पूजा से नहीं, बल्कि मन की शुद्धता से आती है। यदि हमारा मन निर्मल है तो हमें कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं, ईश्वर को हम अपने ही हृदय में पा सकते हैं।
2. जाति और भेदभाव की समस्या
आज भी समाज में जाति और धर्म के नाम पर भेदभाव व्याप्त है। संत रविदास जी ने अपने जीवन में जातिवाद के विरुद्ध संघर्ष किया और सभी को एक समान बताया। उनका यह संदेश कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” हमें यह सिखाता है कि किसी व्यक्ति की पवित्रता उसकी जाति से नहीं, बल्कि उसके विचारों और कर्मों से आंकी जानी चाहिए।
3. नैतिकता और ईमानदारी की गिरती स्थिति
आज के समय में भ्रष्टाचार, बेईमानी और अनैतिकता बहुत बढ़ गई है। लोग धर्म के नाम पर ठगते हैं, पर स्वयं नैतिकता का पालन नहीं करते। रविदास जी का यह विचार हमें आत्म-परीक्षण करने के लिए प्रेरित करता है कि सच्ची धार्मिकता मन की पवित्रता में निहित है, न कि बाहरी आडंबरों में। यदि मन शुद्ध है तो व्यक्ति कहीं भी रहकर धर्म का पालन कर सकता है।
4. पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छता का संदेश
संत रविदास जी का यह विचार पर्यावरण और स्वच्छता के प्रति भी महत्वपूर्ण संदेश देता है। आज लोग गंगा और अन्य नदियों में स्नान को पवित्र मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर उन्हीं नदियों को प्रदूषित भी करते हैं। उनका संदेश हमें सिखाता है कि असली पवित्रता बाहरी वस्तुओं को स्वच्छ रखने से अधिक हमारे मन की शुद्धता में निहित है। यदि मन चंगा होगा, तो हम अपने परिवेश को भी स्वच्छ और पवित्र बनाएंगे।
5. आंतरिक शांति और मानसिक स्वास्थ्य
आज की भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मानसिक तनाव, अवसाद और चिंता जैसी समस्याएँ बहुत बढ़ गई हैं। लोग बाहरी सुख-सुविधाओं में शांति खोज रहे हैं, लेकिन असली शांति हमारे मन की स्थिति पर निर्भर करती है। रविदास जी का यह कथन हमें यह समझने में मदद करता है कि यदि हमारा मन शांत और संतुष्ट है, तो हमें बाहरी चीजों की आवश्यकता नहीं होती।

कैसे अपनाएँ संत शिरोमणि रविदास जी विचारों को
1. आत्म-जागरूकता विकसित करें
हर दिन अपने विचारों और कर्मों का विश्लेषण करें। क्या हम सच में अच्छे इंसान हैं, या केवल दिखावे के लिए धार्मिक हैं?
2. दूसरों के प्रति दया और प्रेम बढ़ाएँ
सच्ची भक्ति ईश्वर की पूजा में नहीं, बल्कि उनके बनाए हुए प्राणियों की सेवा में है। जाति, धर्म, संप्रदाय से ऊपर उठकर सभी के साथ समान व्यवहार करें।
3. नैतिकता और ईमानदारी को अपनाएँ
अपने जीवन में सच्चाई और ईमानदारी को अपनाएँ। केवल मंदिर, मस्जिद जाने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि हमारे कर्म सच्चे न हों।
4. बाहरी आडंबरों से बचें
धर्म को कर्मकांड तक सीमित न रखें। यह समझें कि असली पवित्रता और शुद्धता हमारे विचारों में होती है, न कि बाहरी स्नान या पूजा-पाठ में।
5. पर्यावरण और स्वच्छता का ध्यान रखें
यदि मन स्वच्छ होगा, तो हम अपने आस-पास के वातावरण को भी स्वच्छ रखेंगे। गंगा जैसी नदियों की सफाई के लिए सबसे पहले हमें अपने मन को शुद्ध करना होगा।

संत रविदास जी का यह अमर विचार “मन चंगा तो कठौती में गंगा” केवल एक धार्मिक उपदेश नहीं, बल्कि एक संपूर्ण जीवन-दर्शन है। यह हमें सिखाता है कि असली धर्म और पवित्रता बाहरी कर्मकांडों में नहीं, बल्कि हमारे मन की शुद्धता, नैतिकता और करुणा में निहित है।
आज के समय में, जब लोग धर्म के नाम पर विभाजन और भेदभाव कर रहे हैं, जब नैतिकता का पतन हो रहा है और लोग बाहरी आडंबरों में उलझकर असली भक्ति से दूर हो रहे हैं, तब संत रविदास जी के इस विचार की प्रासंगिकता पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। यदि हम वास्तव में एक बेहतर समाज और एक सच्चे धार्मिक जीवन की ओर बढ़ना चाहते हैं, तो हमें इस विचार को अपनाना होगा और अपने मन को शुद्ध बनाना होगा। जब मन चंगा होगा, तो वास्तव में हमारे लिए हर स्थान एक पवित्र तीर्थ बन जाएगा। इसलिए, रविदास जी का कथन ‘मन चंगा तो कटौती में गंगा’ आज भी हमारे लिए एक महत्वपूर्ण संदेश है जो हमें सकारात्मकता और अच्छाई की ओर बढ़ने के लिए प्रेरित करता है।


डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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