लेख

“विश्व साइकिल दिवस”

डॉ दिग्विजय कुमार शर्मा

हम जीवन की या काल की संकल्पना चक्र के रूप में ही करते आए हैं। जीवन- मृत्यु या दिन- रात रूपी द्विचक्रों पर सवारी और अपने हाथों में उसका नियंत्रण मनुष्य की सुप्त कामना रही है। सुनते भी आये है कि जीवन दो पहियों पर चलने वाली गाड़ी है। प्रतीक रूप में द्विचक्रों पर सवारी और नियंत्रण शायद उसी अचेतन प्यास की भौतिक अभिव्यक्ति के साथ तृप्ति का उपाय भी देती है।

हम जीवन में संतुलन चाहते हैं, गति चाहते हैं, दाएं- बाएं कदमों से विखंडित गति नहीं; बहाव रूप में समग्रता और अखंडता के साथ गति। साइकिल वह अवसर देती है जब थिर बैठ कर भी पेडल चलाने रूपी क्रिया को हम दृष्टा रूप में देख पाते हैं तो कभी बगैर पेडल चलाएं खुद को बहाव रूप उर्जा में बहता छोड़ पाते हैं। यहाँ ध्यान का आनंद है, श्रम और विश्रांति का एक ही समय में समाहार है।

साइकिल बचपन में सपना होती है जब नन्हे कदम इस पर सवार हो नाप लेना चाहते हैं अपनी दुनिया, सीखते हैं सबक जीवन के संतुलन को साधने का कि जब एक तरफ गिरने लगो तो दूसरी तरफ झुक जाओ। तब संघर्ष खेलपूर्ण होता है। साइकिल की ऊंचाई ज्यादा होने पर सीखते हैं समायोजन और बगल से टांग घुसा दौड़ा ही लेते हैं इसे जिंदगी की सड़क पर। हमने साइकिल के साथ ही सीखा है समवेत सहयोग का सबक , जब छोटी साइकिल पर बैठा , दोस्त दौड़ते थे साथ और इसी दौड़ में संतुलन सध गया द्विचक्रों पर। बचपन की दौड़ में सीखा साथ दौड़ना , किसी से आगे निकलने को नहीं , साथ लेकर बढ़ने को।

डंडे पर कसी छोटी सीट पर बैठ जब हेंडल थामे पिता के साथ साइकिल पर घूमते तो अक्सर समझ बैठते साइकिल का नियंत्रक खुद को, जीवन के कठिन समय में यह स्मृति आश्वस्ति देती है, हमारे हेंडल का नियंत्रण परम के हाथों में होने की।

अब वक़्त के साथ ये साइकिल भी बदल रही है , रंगबिरंगी हो रही है। अब सीखने के लिए साथ दौड़ते दोस्तों की जगह दोनो तरफ गार्डरूपी पहिये हैं। सर्वहारा का ये वाहन अब अभिजात्य भी उपयोग कर लेता है , व्यायाम के लिए ही सही।

यह साइकिल बचपन का सपना है और पंद्रह वर्षीय धरतीपुत्री का साधन, जो रूग्ण पिता को बैठा बारह सौ किलोमीटर दूर अपने गाँव की छाँह में ले ही आती है और है बुढ़ापे की साथी भी जो झोलों का बोझ अपने कांधो पर लिए कदमों की शिथिल गति को चक्रों का सहारा देती चलती रहती है, कभी पीठ पर लादे तो कभी हाथ से हाथ थामे।यही जीवन के दो पहिये हैं जिनसे जीवन चलता है। चलती का नान जिंदगी है।

डॉ दिग्विजय कुमार शर्मा
शिक्षाविद, साहित्यकार
आगरा

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