लेख

दलित ब्राह्मण: एक सामाजिक आत्मकथा

डॉ. प्रमोद कुमार

प्रिय पाठकों! ब्राह्मण! सुनते ही आपके दिमाग में एक ऐसा चित्र उभरता है – माथे पर तिलक, हाथ में जनेऊ, और मुंह में वेद। और दलित? एक वह वर्ग, जिसे सदियों तक सामाजिक सीढ़ियों के नीचे धकेल दिया गया। अब ज़रा सोचिए, अगर कोई कहे कि वह “दलित ब्राह्मण” है – तो? क्या हो? ब्रह्मांड की धमनियों में ठंडक सी दौड़ जाती है। पर साहब, अब जमाना बदल गया है। अब चाय वाला प्रधानमंत्री बन सकता है, तो दलित ब्राह्मण क्यों नहीं? यह विषय गहरे सामाजिक, सांस्कृतिक और व्यंग्यात्मक संभावनाओं से भरपूर है। यह लेख पूरी तरह व्यंग्य है और इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति, जाति, या समुदाय का अपमान करना नहीं, बल्कि सामाजिक विसंगतियों पर हास्य और कटाक्ष के माध्यम से प्रकाश डालना है।

पहला अध्याय: जब मैंने जन्म लिया और कुल ने सिर पीट लिया
मेरा जन्म उस घर में हुआ जहाँ मेरे दादा ने शुद्धिकरण के लिए गाय के गोबर से घर लीपा था। पर दिक्कत तब हुई जब मां ने मेरे जन्म के साथ ही कहा, “इसका नाम हम गणेश रखेंगे।” तब पंडित जी ने पूछा, “मुंडन कौन करेगा?” मैंने तुरंत (गर्भ से ही) उत्तर दिया – “कोई भी कर ले, लेकिन जाति प्रमाणपत्र कौन देगा?” तभी से मुझे संदेह हुआ कि मैं ब्राह्मण होने के बावजूद कुछ अलग हूँ। मैं ब्राह्मण था, पर समाज में मेरी हालत किसी दलित से कम न थी – कम से कम मैं तो यही मान बैठा था।

दूसरा अध्याय: मेरा जनेऊ और जनून
जनेऊ संस्कार वाले दिन मुझे तीन धागे पहनाए गए – एक संस्कार का, दूसरा उम्मीद का, और तीसरा व्यंग्य का। जब पंडित जी ने मंत्र पढ़ा, तो मेरी आंखों में आंसू आ गए – यह सोचकर कि अब से मुझे रोज़ गायत्री मंत्र पढ़ना होगा। मैं रोया, तो मां बोली – “बेटा, ये ब्राह्मण बनने की पहली परीक्षा है।” और मैं सोचता रहा, अगर मुझे चप्पल पहनने की भी इजाज़त न हो, तो क्या मैं अब भी उच्च जाति का कहलाऊंगा?

तीसरा अध्याय: स्कूल का संघर्ष – एक ब्राह्मण जो ‘क्लास’ में न था
स्कूल में जब ‘जाति’ का कॉलम भरना होता, तो मैं कनफ्यूज़ हो जाता। लिखूं ब्राह्मण तो छात्र हँसते – “अरे! तेरी जेब में तो बस तीन रुपये हैं।” लिखूं दलित तो मास्टरजी डांटते – “तू झूठ बोल रहा है, तेरा नाम तो गणेश शर्मा है!” अब बताओ, मैं किस खांचे में जाऊं? मैं तो बस ‘अगड़े में पिछड़ा’ और ‘पिछड़े में अगड़ा’ बनकर रह गया था।

चौथा अध्याय: प्रतियोगी परीक्षाओं का सत्यनाश
जब मैंने UPSC फॉर्म भरा, तो आरक्षण वाले कॉलम में फिर वही संकट! मेरी योग्यता ब्राह्मणों वाली थी – आत्मविश्वास से लबालब और नौकरी से लाचार। मैंने कहा, “मैं मानसिक रूप से दलित हूँ।” आयोग ने कहा, “मानसिकता की कोई श्रेणी नहीं होती बेटा!” मेरी अर्ज़ी रिजेक्ट हो गई। मुझे समझ आया – इस देश में या तो ब्राह्मण बनो या दलित – बीच में कुछ नहीं!

पाँचवां अध्याय: पंडिताई में पॉलिटिक्स
मैंने ठान लिया – अब मैं पंडिताई करूंगा। लेकिन बाजार में इतनी प्रतिस्पर्धा थी कि लोग अब ‘डिजिटल पंडित’ हो गए थे। एक ने तो WhatsApp पर ही विवाह की सारी रस्में निपटा दीं। और मैं? मैं अब भी पीतल की थाली लिए चावल के दाने गिनता था। कोई मुझसे पूँछता – “पंडित जी, आप किस गौत्र के हैं?” मैं कहता – “गौत्र मेरा दलित है, मन ब्राह्मण है।” तब वह ग्राहक भाग जाता।

छठा अध्याय: प्रेम और परिहास
जब मैंने सवर्ण लड़की से प्रेम किया, तो उसके पापा ने पूछा – “तुम्हारी जाति?” मैंने कहा – “ब्राह्मण।” फिर उन्होंने पूछा – “कमाते क्या हो?” मैंने कहा – “कुछ नहीं।” उन्होंने ठहाका लगाया – “अब समझा, तुम दलित ब्राह्मण हो!” प्रेम भी मेरा व्यंग्य बन गया। वह लड़की अब किसी SC इंजीनियर के साथ विदेश में है, और मैं अब भी गायत्री मंत्र की धुन में प्रेम का शोक मना रहा हूँ।

सातवां अध्याय: सोशल मीडिया का शरणार्थी
मैंने अपनी पहचान Twitter bio में लिखी – “A proud Dalit Brahmin | Woke by soul, broke by wallet.” लोग समझ नहीं पाए – कोई कहता, “जातिवादी है”, कोई कहता, “पाखंडी है।” मैं सोचता रहा – इस देश में नास्तिक को जगह है, मगर दलित ब्राह्मण को नहीं!

आठवां अध्याय: राजनीति में मेरी बेरोजगारी
मैंने एक पार्टी के कार्यालय में जाकर कहा – “मैं दलित ब्राह्मण हूँ, टिकट चाहिए।” उन्होंने मुझे बाहर निकाल दिया। बोले – “भाई, तुम न दलितों को पसंद आओगे, न ब्राह्मणों को। तुम तो एक भ्रम हो। राजनीति भ्रम की नहीं, ध्रुवीकरण की होती है।” मैं बोला – “तो मुझे ही क्यों अलग किया?” वो बोले – “क्योंकि तुम कटाक्ष हो। और कटाक्ष इस देश में सबसे खतरनाक चीज़ है।”

नवां अध्याय: जब मैंने मंदिर में घण्टा बजाया
एक दिन मैं मंदिर गया और घण्टा बजाया। पुजारी बोले – “क्या काम है पंडित जी?”
मैं बोला – “मैं दर्शन करने आया हूँ।”
वो बोले – “कौन से कुल के हो?”
मैं बोला – “दलित ब्राह्मण।”
उन्होंने मुझे देखा और बोले – “जैसे कोई गाय शेर की खाल ओढ़ ले। निकलो यहाँ से!”
तब मुझे समझ आया – मेरी जाति, मेरी पहचान नहीं; मेरी विडंबना बन चुकी थी।

दसवां अध्याय: मेरी आत्मकथा का अंत, जो कभी शुरू न हो सकी
अब मैं एक बूढ़ा हो गया हूँ। ना ब्राह्मणों की सभा में जगह मिली, ना दलित संघ के जुलूस में। मैं दोनों के बीच लटका हूँ – एक ऐसा ब्राह्मण जो दलितों सा संघर्ष करता रहा, और ऐसा दलित जो ब्राह्मणों सी घृणा झेलता रहा।
मेरी आत्मकथा कोई नहीं पढ़ेगा – क्योंकि इस देश को स्पष्टता पसंद है, जटिलता नहीं।
मैं एक दलित ब्राह्मण हूँ –
जो जातियों के इस महान रंगमंच पर एक अदृश्य पात्र बन गया।

उपसंहार:
“दलित ब्राह्मण” कोई जाति नहीं, एक मानसिक अवस्था है – समाज के बीच की दरारों में पड़ा एक चुटकुला, जिस पर कोई हँसता नहीं, बस सोच में पड़ जाता है। यह व्यंग्य उसी सोच की उपज है।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

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