लेख

“हिंदी-अंग्रेजी का समरस संगम: वैश्विक युग में विकसित भारत की द्विभाषिक रणनीति और प्रगति का पथ”

डॉ प्रमोद कुमार

21वीं सदी के वैश्वीकरण और डिजिटल क्रांति के युग में भारत एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभर रहा है जो पारंपरिक मूल्यों और आधुनिक आवश्यकताओं के बीच संतुलन साधने का प्रयास कर रहा है। इस संतुलन की आधारशिला उसकी भाषाई संरचना में निहित है, जहाँ हिंदी और अंग्रेजी दो प्रमुख भाषाएँ हैं—एक भारत की सांस्कृतिक आत्मा तो दूसरी वैश्विक संपर्क की सेतु। “हिंदी-अंग्रेजी का समरस संगम” न केवल एक भाषाई विचार है, बल्कि यह विकसित भारत के निर्माण की एक रणनीतिक और व्यावहारिक आवश्यकता भी बन चुका है।

हिंदी देश की सबसे बड़ी संपर्क भाषा के रूप में जन-जन की पहचान, भावनाओं और संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम है, जबकि अंग्रेजी शिक्षा, विज्ञान, तकनीक, प्रशासन और अंतरराष्ट्रीय संवाद की भाषा बनकर उभरती रही है। दोनों भाषाओं की सहभागिता भारत को न केवल भाषायी समरसता की ओर ले जाती है, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और बौद्धिक रूप से भी सशक्त बनाती है। द्विभाषिकता की यह नीति भारत के बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक समाज को एकजुट रखने के साथ-साथ उसे वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भी सक्षम बनाती है। यह नीति ग्रामीण-शहरी, पिछड़े-विकसित, और हिंदीभाषी-अंग्रेजीभाषी वर्गों के बीच सेतु बनाकर समावेशी विकास का मार्ग सुगम, सुलभ प्रशस्त करती है।

विकसित भारत की परिकल्पना एक बहुआयामी, बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक भारत की रचना पर आधारित है। जब हम भारत की भाषायी संरचना की बात करते हैं, तो हिंदी और अंग्रेजी दो ऐसी भाषाएं हैं जो भारत के सामाजिक, प्रशासनिक, सांस्कृतिक और वैश्विक संवाद के दो छोरों का प्रतिनिधित्व करती हैं। हिंदी जहाँ देश की आत्मा, जन-जन की जुबान और संस्कृति की वाहक है, वहीं अंग्रेजी वैश्विक संवाद, विज्ञान, प्रौद्योगिकी और आधुनिकता का माध्यम बन चुकी है। भूमंडलीकरण के इस युग में, एक ऐसी द्विभाषिक रणनीति की आवश्यकता है जो न केवल भाषायी संतुलन बनाए, बल्कि भारत को विकसित राष्ट्र की दिशा में ले जाने वाले मार्ग को भी प्रशस्त करे।

इस लेख में हम विश्लेषण करेंगे कि कैसे हिंदी और अंग्रेजी का संतुलित समन्वय एक व्यवहारिक द्विभाषिक रणनीति के रूप में कार्य करता है, जो विकसित भारत की आकांक्षाओं को न केवल दिशा देता है, बल्कि उसे साकार करने में भी निर्णायक भूमिका निभाता है। यही समरस संगम भारत की भाषायी और बौद्धिक समृद्धि का प्रतीक बन सकता है।

1. भारत की भाषायी संरचना: विविधता में एकता की मिसाल
भारत में 22 अनुसूचित भाषाएं, सैकड़ों बोलियाँ और हजारों उपबोलियाँ प्रचलित हैं। यह भाषायी विविधता एक ओर जहाँ भारत की सांस्कृतिक संपन्नता को दर्शाती है, वहीं नीति-निर्धारण, शिक्षा और प्रशासन में भाषायी नीति को जटिल भी बनाती है। हिंदी भारत की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा है, जबकि अंग्रेजी भारत की द्वितीय राजभाषा और वैश्विक संपर्क की भाषा के रूप में कार्य करती है।
2. हिंदी और अंग्रेजी: दो ध्रुव, एक भारत
हिंदी: भारतीयता की आत्मा
हिंदी केवल एक भाषा नहीं, बल्कि भारतीय जनमानस की संवेदना, साहित्य, लोक संस्कृति और परंपरा की वाहक है।
हिंदी सिनेमा, साहित्य, जन-संचार और लोक अभिव्यक्ति का मुख्य माध्यम है।
यह भारत के गैर-अंग्रेजीभाषी समाज के लिए सुलभ और आत्मीय भाषा है।
अंग्रेजी: वैश्विक मंच पर भारत की आवाज
अंग्रेजी ने शिक्षा, प्रशासन, न्याय व्यवस्था, वैज्ञानिक अनुसंधान, सूचना प्रौद्योगिकी और वैश्विक व्यापार में भारत को वैश्विक मंच प्रदान किया है।
अंग्रेजी अंतरराष्ट्रीय साझेदारियों और डिजिटल युग की अनिवार्यता बन चुकी है।

3. द्विभाषिकता की आवश्यकता: क्यों और कैसे?
(i) वैश्वीकरण और भाषायी प्रतिस्पर्धा
21वीं सदी की वैश्विक अर्थव्यवस्था में भाषाएं न केवल संवाद का साधन हैं, बल्कि आर्थिक, रणनीतिक और कूटनीतिक शक्ति के रूप में उभरी हैं।
चीन ने मंदारिन को, फ्रांस ने फ्रेंच को और जापान ने जापानी को तकनीकी विकास के साथ जोड़ा है। भारत भी हिंदी को संस्कृति और अंग्रेजी को प्रौद्योगिकी के साथ जोड़कर अपनी द्विभाषिक शक्ति को वैश्विक मंच पर ला सकता है।
(ii) शिक्षा और रोजगार में द्विभाषिक दक्षता
आज के समय में प्रतियोगी परीक्षाएं, उच्च शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय अवसरों में अंग्रेजी का प्रभुत्व है, वहीं ग्रामीण और पिछड़े क्षेत्रों में हिंदी शिक्षार्थियों की पहली भाषा बनी हुई है।
यदि शिक्षा प्रणाली में द्विभाषिकता का समावेश हो, तो ग्रामीण विद्यार्थी भी वैश्विक प्रतिस्पर्धा में खड़े हो सकते हैं।
(iii) भाषायी समरसता के माध्यम से सामाजिक समावेशन
केवल अंग्रेजी पर निर्भरता भारत के एक बड़े हिंदीभाषी और अन्य क्षेत्रीय भाषाभाषी समाज को हाशिए पर डाल देती है।
हिंदी और अंग्रेजी दोनों को समान महत्व देकर हम भाषायी विषमता को दूर कर सकते हैं और सामाजिक समावेशन को बढ़ावा दे सकते हैं।

4. विकसित भारत की परिकल्पना और भाषायी रणनीति
(i) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का दृष्टिकोण
नई शिक्षा नीति द्विभाषिकता को बढ़ावा देती है, जहाँ प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा/हिंदी को शिक्षा का माध्यम बनाया गया है और अंग्रेजी को एक संवाद भाषा के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
यह नीति न केवल भाषायी समावेश को बढ़ावा देती है, बल्कि भाषायी पहचान और वैश्विक प्रतिस्पर्धा में संतुलन बनाने का प्रयास करती है।
(ii) प्रशासनिक और तकनीकी क्षेत्र में द्विभाषिक अभ्यास
अधिकांश सरकारी दस्तावेज और नीतियाँ द्विभाषिक रूप में (हिंदी-अंग्रेजी) प्रस्तुत की जाती हैं। यह एक उदाहरण है कि कैसे प्रशासन में समरस द्विभाषिकता अपनाई जा सकती है।
डिजिटल इंडिया, ई-गवर्नेंस, स्टार्टअप इंडिया जैसे अभियान भी हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में उपलब्ध हैं।

5. हिंदी-अंग्रेजी का समन्वय: चुनौतियाँ और समाधान
(i) चुनौतियाँ
अंग्रेजी के प्रति बढ़ती सामाजिक प्रतिष्ठा के कारण हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की उपेक्षा।
ग्रामीण और वंचित समुदायों की अंग्रेजी में कमजोर पकड़ के चलते अवसरों की असमानता।
हिंदीभाषी राज्यों में भी अंग्रेजी माध्यम शिक्षा का अंधानुकरण।
(ii) समाधान
द्विभाषिक शिक्षा प्रणाली: सभी छात्रों को हिंदी और अंग्रेजी दोनों में दक्ष बनाना अनिवार्य किया जाए।
भाषायी प्रशिक्षण कार्यक्रम: ग्रामीण क्षेत्रों में अंग्रेजी प्रशिक्षण और शहरी क्षेत्रों में हिंदी संवर्धन हेतु कार्यक्रम चलाना।
हिंदी को तकनीकी भाषा बनाना: कंप्यूटर, विज्ञान, चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि क्षेत्रों में हिंदी शब्दावली और पाठ्य सामग्री विकसित करना।
मीडिया और मनोरंजन का संतुलन: OTT, सोशल मीडिया, समाचार, फिल्में इत्यादि में हिंदी-अंग्रेजी दोनों का संतुलन।

6. हिंदी-अंग्रेजी द्विभाषिकता: आर्थिक और सांस्कृतिक लाभ
(i) आर्थिक दृष्टिकोण से
द्विभाषिक युवा वैश्विक BPO, IT और अंतरराष्ट्रीय कंपनियों में अधिक अवसर प्राप्त कर सकते हैं।
हिंदीभाषी उपभोक्ता वर्ग को समझने के लिए कंपनियाँ हिंदी जानने वाले कर्मचारियों को प्राथमिकता देती हैं।
पर्यटन, अनुवाद, कंटेंट राइटिंग और भाषा-सेवाओं में द्विभाषिकता रोजगार के नए द्वार खोलती है।
(ii) सांस्कृतिक दृष्टिकोण से
हिंदी साहित्य, फिल्म, कला और संस्कृति को वैश्विक मंच पर पहुँचाने में अंग्रेजी एक माध्यम बन सकती है।
अंग्रेजी के ज़रिये हिंदी संस्कृति का अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधित्व किया जा सकता है — जैसे “Gita”, “Ramayana”, “Yoga” आदि विषयों पर अनुवाद और व्याख्यान।

7. भारत की वैश्विक स्थिति और भाषायी भूमिका
भारत आज G20, BRICS, SCO जैसे मंचों पर अहम भूमिका निभा रहा है। यहाँ अंग्रेजी की अनिवार्यता है, लेकिन भारतीय पहचान को बनाए रखने हेतु हिंदी में भी प्रतिनिधित्व आवश्यक है।
भारतीय राजनयिकों, उद्यमियों और सांस्कृतिक दूतों के लिए द्विभाषिकता एक रणनीतिक पूंजी है।

8. डिजिटल युग में द्विभाषिक भारत की संभावना
भारत विश्व का दूसरा सबसे बड़ा इंटरनेट उपयोगकर्ता देश है, जिसमें हिंदीभाषी इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है।
गूगल, फेसबुक, यूट्यूब जैसी कंपनियाँ हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में सेवाएँ दे रही हैं। इससे स्पष्ट है कि डिजिटल मार्केट में द्विभाषिकता आर्थिक लाभ की दृष्टि से भी अनिवार्य है।

9. युवा पीढ़ी और भाषायी संतुलन
युवा वर्ग आज ग्लोबल नेटवर्किंग, स्टार्टअप्स, शोध और प्रतिस्पर्धी परीक्षाओं में सक्रिय है। वहाँ अंग्रेजी की आवश्यकता है, लेकिन वह अपने सांस्कृतिक मूल्यों, साहित्य और सामाजिक जड़ों से हिंदी के माध्यम से ही जुड़ा है।
यदि युवा द्विभाषिक हों, तो वे न केवल अपने भविष्य को बेहतर बना सकते हैं, बल्कि भारतीय संस्कृति का विश्वदूत भी बन सकते हैं।

10. नीति-निर्माताओं की भूमिका

सरकार को द्विभाषिक नीति को मजबूती से लागू करना चाहिए।

हिंदी को तकनीकी, वैज्ञानिक, प्रशासनिक और कानूनी क्षेत्रों में सशक्त करना होगा।

अंग्रेजी को सामाजिक संप्रेषण का माध्यम मानते हुए उसकी श्रेष्ठता के मिथ को तोड़ना आवश्यक है।

“हिंदी-अंग्रेजी का समरस संगम” केवल भाषाई मेल नहीं, बल्कि यह भारत की विविध सांस्कृतिक, सामाजिक और वैश्विक पहचान का प्रतिनिधित्व है। भूमंडलीकरण के वर्तमान युग में जहाँ एक ओर अंग्रेजी वैश्विक संवाद, व्यापार, तकनीक और उच्च शिक्षा का माध्यम बन चुकी है, वहीं हिंदी भारत की आत्मा, संवेदना और सांस्कृतिक चेतना का स्रोत है। दोनों भाषाओं का संतुलित प्रयोग ही विकसित भारत की नींव को सुदृढ़ कर सकता है। द्विभाषिकता न केवल संवाद की क्षमता बढ़ाती है, बल्कि यह समावेश, समानता और अवसरों की व्यापकता भी सुनिश्चित करती है। एक ओर यह ग्रामीण और शहरी, गरीब और संपन्न, शिक्षित और अर्ध-शिक्षित वर्गों के बीच पुल का कार्य करती है, वहीं दूसरी ओर यह भारत को वैश्विक प्रतिस्पर्धा में टिकाए रखने की रणनीति भी बनती है। हिंदी द्वारा भारतीय जनमानस से संवाद और अंग्रेजी द्वारा विश्व से संपर्क—यह द्वैध भूमिका भारत के विकास में निर्णायक बन सकती है।

“हिंदी-अंग्रेजी का समरस संगम: वैश्विक युग में विकसित भारत की द्विभाषिक रणनीति के साथ प्रगति का पथ” विषय केवल भाषाओं की बात नहीं करता, बल्कि यह एक ऐसी समावेशी, सशक्त और संतुलित नीति की माँग करता है, जो भारत को आत्मनिर्भर, वैश्विक और संस्कृति-सम्मत राष्ट्र बना सके। आवश्यकता है कि सरकार, शैक्षणिक संस्थान, मीडिया और समाज मिलकर ऐसी नीतियाँ और प्रयास करें, जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों को समान महत्व दें। तकनीकी क्षेत्र में हिंदी को सक्षम बनाना, अंग्रेजी में अवसर सुनिश्चित करना और दोनों भाषाओं के मध्य सामाजिक सम्मान बनाए रखना समय की मांग है।

अतः, जब भारत की नीति और शिक्षा में हिंदी और अंग्रेजी का समरस संगम नीतिगत रूप से समाहित होगा, तभी विकसित भारत की परिकल्पना वास्तव में साकार हो सकेगी—जहाँ भारत की जड़ें अपनी भाषा से जुड़ी हों और उसके पंख वैश्विक ऊँचाइयों को छू रहे हों। जहाँ एक ओर हिंदी भारत की आत्मा है, वहीं अंग्रेजी भारत की आँखें हैं जिससे वह विश्व को देखता और उससे जुड़ता है। जब आत्मा और आँखें एक दिशा में चलें, तभी भारत विकसित राष्ट्र बन सकता है। यही है प्रगति का पथ, एक संतुलित, सक्षम और समावेशी भारत का मार्ग।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा

Share this post to -

Related Articles

Back to top button