“भारतीय ज्ञान परम्परा (ज्ञान, तप और योग की विरासत): विकसित भारत की आत्मिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक आधारशिला”
डॉ प्रमोद कुमार

भारत एक ऐसी भूमि है जिसकी आत्मा उसकी ज्ञान परम्परा में रची-बसी है। भारतीय ज्ञान परम्परा महज एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि जीवन के हर पक्ष—आध्यात्मिक, नैतिक, बौद्धिक और सामाजिक—को समृद्ध और संतुलित करने वाला शाश्वत मार्ग है। यह परम्परा न केवल ऋषियों-मुनियों के तप, योग और चिन्तन का प्रतिफल रही है, बल्कि समस्त मानवता के कल्याण की भावना से परिपूर्ण रही है। भारत की आत्मा उसकी प्राचीन ज्ञान परम्परा में निहित है, जो सहस्त्राब्दियों से मानवता के मार्गदर्शन का स्तंभ रही है। “भारतीय ज्ञान परम्परा व ज्ञान, तप और योग की विरासत” न केवल भारत की सांस्कृतिक पहचान है, बल्कि यह उसके आत्मिक, बौद्धिक और सामाजिक जीवन का मूल आधार भी रही है। यह परम्परा किसी एक धर्म, जाति या संप्रदाय की नहीं, बल्कि संपूर्ण मानव समाज की साझा धरोहर है, जो ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना से पोषित होती रही है।
भारतीय ज्ञान परम्परा में ज्ञान केवल सूचना नहीं, बल्कि आत्मबोध और ब्रह्मबोध का साधन है। तप आत्मविजय की प्रक्रिया है, जो अनुशासन, त्याग और संयम से व्यक्ति को महान बनाती है। वहीं योग शरीर, मन और आत्मा की एकात्मकता का विज्ञान है, जो मानव जीवन को संतुलन, शांति और सृजनात्मक ऊर्जा से भर देता है। यह त्रयी—ज्ञान, तप और योग—भारतीय सभ्यता की वह विरासत है, जो आज भी विश्व के समक्ष जीवनदर्शन का सर्वश्रेष्ठ विकल्प प्रस्तुत करती है।
वर्तमान समय में जब भारत ‘विकसित राष्ट्र’ की संकल्पना की ओर बढ़ रहा है, तब यह आवश्यक है कि वह अपनी इस गौरवशाली परम्परा को केवल स्मरण ही नहीं, बल्कि अपने जीवन, नीति और समाज के केंद्र में पुनः स्थापित करे। आत्मिक बल, बौद्धिक विवेक और सांस्कृतिक चेतना ही वह त्रिसूत्र है जो भारत को न केवल विकसित बनाएगा, बल्कि उसे एक वैश्विक नैतिक नेतृत्व प्रदान करने में भी सक्षम करेगा। अतः यह विषय आधुनिक भारत के निर्माण की मूलभूत नींव को पुनर्परिभाषित करने का सशक्त विचारपथ है। जब हम ‘विकसित भारत’ के सपनों की बात करते हैं, तब यह आवश्यक हो जाता है कि हम भारत की उस आत्मा को पुनः जाग्रत करें जो भारतीय ज्ञान परम्परा के रूप में हमारी सांस्कृतिक चेतना में रची-बसी है। ज्ञान, तप और योग—ये तीनों उस परंपरा की नींव हैं, जिन पर एक समरस, सहिष्णु, सशक्त और विकसित भारत की रचना की जा सकती है।
1. भारतीय ज्ञान परम्परा की अवधारणा
भारतीय ज्ञान परम्परा की शुरुआत वैदिक युग से मानी जाती है। यह परंपरा श्रुति (वेद), स्मृति (धर्मशास्त्र), दर्शन, उपनिषद, महाकाव्य (रामायण, महाभारत), पुराण, लोककथाएं, बौद्ध और जैन साहित्य तथा योगशास्त्र आदि के माध्यम से विकसित हुई। इसमें न केवल अध्यात्म, दर्शन और धर्म के विषयों को स्थान मिला, बल्कि गणित, ज्योतिष, आयुर्वेद, रसायन, ध्वनि विज्ञान, वास्तु, नाट्य और संगीत भी इस ज्ञान परम्परा का अभिन्न हिस्सा रहे।
मुख्य विशेषताएं:
सत्य की खोज और आत्मा के बोध की प्रवृत्ति
शाश्वत नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा
धर्म और विज्ञान का समन्वय
योग और साधना के माध्यम से आत्मशुद्धि
2. ज्ञान, तप और योग: भारतीय परंपरा की त्रयी
(क) ज्ञान: जिज्ञासा से आत्मज्ञान तक
भारतीय परंपरा में ज्ञान को मोक्ष का साधन माना गया है। यहाँ ज्ञान केवल सूचनाओं या तथ्यात्मक जानकारियों का संग्रह नहीं है, बल्कि आत्मा, ब्रह्म और संसार के यथार्थ स्वरूप को जानने की प्रक्रिया है।
वेदों और उपनिषदों में ज्ञान: वेदों में ब्रह्मविद्या को सर्वोच्च ज्ञान बताया गया है। उपनिषदों में आत्मा और ब्रह्म के एकत्व को जानने को ही परम ज्ञान कहा गया है।
बुद्ध और जैन परंपरा में ज्ञान: तथागत बुद्ध ने ‘प्रज्ञा’ (ज्ञान) को निर्वाण के तीन प्रमुख साधनों (शील, समाधि, प्रज्ञा) में से एक बताया। जैन दर्शन में भी सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र को मोक्ष का मार्ग कहा गया।
नालंदा-तक्षशिला से आधुनिक शिक्षण तक: प्राचीन भारत के विश्वविद्यालय ज्ञान के वैश्विक केंद्र थे, जहाँ विश्वभर से विद्यार्थी आते थे।
(ख) तप: आत्मविजय की प्रक्रिया
तप भारतीय परम्परा का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है। इसका अर्थ केवल शरीर को कष्ट देना नहीं, बल्कि इन्द्रियों पर नियंत्रण, आचरण की शुद्धता, और जीवन में आत्मानुशासन को अपनाना है।
ऋषियों का तप: अरण्यों में ऋषियों का तप ही वह बीज था जिससे वेदों और उपनिषदों का निर्माण हुआ।
गृहस्थ जीवन में तप: महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों में तप का अर्थ केवल सन्यास नहीं, अपितु कर्तव्यनिष्ठ, संयमित और विवेकशील जीवन जीना बताया गया है।
तप और आधुनिक भारत: गांधी जी का जीवन तपस्वी जीवन का आधुनिक रूप था—सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य उनके आत्मानुशासन के रूप थे।
(ग) योग: एकात्मता की साधना
योग भारतीय जीवनदृष्टि का वह आधार है जो शरीर, मन और आत्मा को संतुलन प्रदान करता है। पतंजलि योगसूत्र, भगवद्गीता, और उपनिषद योग के सिद्धांतों से परिपूर्ण हैं।
अष्टांग योग: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—ये आठ अंग शरीर और मन को अनुशासित करते हैं।
भगवद्गीता का कर्मयोग: श्रीकृष्ण ने योग को केवल साधना नहीं, कर्तव्य की भावना से जोड़कर कर्मयोग का सिद्धांत दिया।
आधुनिक संदर्भ: आज योग विश्वभर में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य का एक प्रामाणिक साधन बन चुका है।
3. भारतीय ज्ञान परम्परा का आत्मिक पक्ष
भारत की आत्मा उसकी आध्यात्मिकता में निहित है, जो जाति, भाषा, धर्म, सीमा से परे समस्त मानवता को जोड़ती है। आत्मा, ब्रह्म और पुनर्जन्म जैसे सिद्धांतों ने व्यक्ति को जीवन के गूढ़तम प्रश्नों से जोड़ने का कार्य किया।
‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना: संपूर्ण विश्व को एक परिवार मानने का विचार भारतीय आत्मिक दृष्टिकोण की गहराई को दर्शाता है।
सर्वधर्म समभाव: किसी एक मत या संप्रदाय की श्रेष्ठता नहीं, बल्कि सहअस्तित्व की भावना ज्ञान परम्परा की आत्मा है।
4. भारतीय ज्ञान परम्परा का बौद्धिक पक्ष
प्राचीन भारत गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, तर्कशास्त्र और व्याकरण के क्षेत्र में अग्रणी रहा है।
गणित और ज्योतिष: आर्यभट, भास्कराचार्य, वराहमिहिर जैसे विद्वानों ने भारत को बौद्धिक महाशक्ति बनाया।
तर्कशास्त्र और मीमांसा: न्याय, वैशेषिक और मीमांसा जैसे दर्शनों में तार्किकता और तर्कप्रधान विमर्श की परंपरा थी।
साहित्य और दर्शन: कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट जैसे रचनाकारों ने साहित्य को आध्यात्म और तात्त्विक चिंतन से जोड़ा।
5. भारतीय ज्ञान परम्परा का सांस्कृतिक पक्ष
भारतीय संस्कृति केवल रीति-रिवाजों का संकलन नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक कला है। इसकी जड़ें ज्ञान, तप और योग से पोषित होती हैं।
नाट्यशास्त्र और संगीतशास्त्र: भरतमुनि के नाट्यशास्त्र और संगीत की राग-रागिनियों में दर्शन और भावनात्मक गहराई का समन्वय है।
कला, मूर्तिकला, चित्रकला: अजंता-एलोरा की गुफाएं, खजुराहो के मंदिर, और कांचीपुरम की स्थापत्यकला ज्ञान और साधना की सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्ति हैं।
लोक परंपराएं और त्योहार: भारतीय त्योहारों और परंपराओं में ऋतु, ज्योतिष, प्रकृति और लोकजीवन के साथ गहरी संगति है।
6. समकालीन भारत में ज्ञान परम्परा की पुनर्स्थापना
भारत यदि 2047 तक ‘विकसित राष्ट्र’ बनना चाहता है, तो केवल आर्थिक उन्नति पर्याप्त नहीं होगी। आत्मिक और बौद्धिक उन्नति ही दीर्घकालिक विकास की कुंजी है।
नई शिक्षा नीति (NEP): भारतीय ज्ञान प्रणाली को पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करने का प्रयास सकारात्मक पहल है।
योग और आयुर्वेद का पुनरुत्थान: योग दिवस और आयुर्वेद मिशन भारत के मूल ज्ञान को वैश्विक पहचान दिला रहे हैं।
वसुधैव कुटुम्बकम् से वैश्विक नेतृत्व: भारत का G20 में ‘वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर’ का नारा भारतीय दर्शन का प्रत्यक्ष उदाहरण है।
7. विकसित भारत की दिशा में भारतीय ज्ञान परम्परा का योगदान
(क) आत्मनिर्भरता और स्वदेशी विचारधारा:
भारतीय ज्ञान परम्परा आत्मनिर्भरता की शिक्षा देती है। चरखा हो या कृषि आधारित जीवन, यह परंपरा श्रम को सम्मान देती है।
(ख) सामाजिक समरसता और न्याय:
ज्ञान परम्परा व्यक्ति को उसके कर्मों से परखने का दृष्टिकोण देती है, न कि जन्म से। यह समरस और न्यायपूर्ण समाज की आधारशिला है।
(ग) वैश्विक नेतृत्व क्षमता:
भारत अपने ज्ञान की विरासत के बल पर विश्वगुरु बनने की राह पर अग्रसर है। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् का त्रिवेणी सिद्धांत इस पथ की दिशा है।
“भारतीय ज्ञान परम्परा व ज्ञान, तप और योग की विरासत: विकसित भारत की आत्मिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक आधारशिला” विषय में निहित गूढ़ार्थ यही संकेत करता है कि भारत का वास्तविक विकास केवल आर्थिक संसाधनों या तकनीकी प्रगति से नहीं, बल्कि उसकी आत्मा में रचे-बसे उस प्राचीन ज्ञान से संभव है जो समग्र मानव जीवन को दिशा देता है। यह परंपरा किसी एक धर्म, जाति या संप्रदाय की नहीं, बल्कि समस्त मानवता के कल्याण के लिए सार्वभौमिक दर्शन, वैज्ञानिक विवेक और नैतिक अनुशासन का संगम है। ज्ञान हमें विवेक और बोध की ओर ले जाता है, तप हमें आत्मसंयम और साधना की शक्ति देता है, जबकि योग शरीर, मन और आत्मा को संतुलित कर जीवन को समरसता प्रदान करता है। यह त्रयी केवल आध्यात्मिक उन्नति का ही नहीं, बल्कि समरस सामाजिक व्यवस्था, सतत विकास और सार्वभौमिक शांति का मूल आधार है।
आज जब भारत ‘विकसित राष्ट्र’ बनने की ओर अग्रसर है, तब यह अत्यंत आवश्यक हो जाता है कि वह अपनी इस विरासत को पुनर्स्मरण और पुनःस्थापित करे। केवल भौतिक संरचनाएं ही राष्ट्र को विकसित नहीं बनातीं, बल्कि उसकी बौद्धिक, सांस्कृतिक और नैतिक चेतना उसे महान बनाती है। भारतीय ज्ञान परम्परा वह दीपशिखा है जो अंधकार में प्रकाश की राह दिखाती है। यदि भारत अपने इस दिव्य अतीत को वर्तमान की नीतियों, शिक्षा, आचरण और विचारधारा से जोड़ सके, तो वह न केवल विकसित, बल्कि विश्वगुरु भारत के रूप में पुनः प्रतिष्ठित हो सकता है — एक ऐसा भारत जो आत्मनिर्भर हो, आत्मजागरूक हो और आत्मकल्याण के साथ समस्त विश्व के कल्याण का पथ प्रदर्शक हो। भारतीय ज्ञान परम्परा कोई स्थिर या जड़ प्रणाली नहीं है, बल्कि एक निरंतर प्रवाहमान धारा है जो समय, समाज और संदर्भ के अनुसार अपना स्वरूप बदलती रही है। ज्ञान, तप और योग की यह विरासत भारत की आत्मा है, और यही आत्मा यदि आज के भारत के विकास के केंद्र में स्थापित होती है, तो ‘विकसित भारत’ केवल एक आर्थिक संकल्प नहीं, बल्कि एक आत्मिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का यथार्थ बन जाएगा।
अतः आवश्यकता इस बात की है कि भारत अपने मौलिक ज्ञान, परंपराओं और साधनाओं को पुनः आत्मसात करे, उन्हें आधुनिक संदर्भों से जोड़े, और अपने विकास के मार्ग को केवल भौतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक एवं नैतिक उन्नयन के साथ संवारें। यही मार्ग विकसित भारत की वास्तविक नींव है। भारतीय ज्ञान परम्परा को अपनाते हुए और सर्वधर्म समभाव वसुधैव कुटुम्बकम की प्रेरणा से प्रेरित होते हुए भारत को अखंड, विकसित और समृद्ध राष्ट्र बनाने की दिशा में हम सभी भारतीयों को सम्मिलित होकर निरंतर प्रयत्नशील रहना चाहिए तभी भारत एक विकसित, समृद्ध और अखंड राष्ट्र के रूप में सर्वविद्मान होगा।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा