“ग्लास सीलिंग सिंड्रोम: नेतृत्व के शिखर तक की ओर बढ़ते क़दम और अदृश्य बाधाओं रूपी छत की कैद”
डॉ प्रमोद कुमार

21वीं सदी की सामाजिक और आर्थिक प्रगति के बीच जब हम लैंगिक समानता की बात करते हैं, तब “ग्लास सीलिंग सिंड्रोम” (Glass Ceiling Syndrome) की अवधारणा हमें यह सोचने पर विवश कर देती है कि क्यों आज भी महिलाओं और वंचित वर्गों को नेतृत्व के उच्चतम पदों तक पहुँचने में अदृश्य, लेकिन सशक्त बाधाओं का सामना करना पड़ता है। यह ‘ग्लास सीलिंग’ एक पारदर्शी दीवार की तरह होती है जो दिखाई नहीं देती, लेकिन महसूस होती है — एक ऐसी अवरोधक जो प्रतिभा, योग्यता और मेहनत के बावजूद व्यक्ति को शीर्ष स्थान तक पहुँचने से रोकती है।
विकासशील और लोकतांत्रिक समाजों में समानता, अवसर और योग्यता आधारित नेतृत्व की अवधारणा जितनी आदर्श प्रतीत होती है, व्यवहार में उतनी ही जटिल भी है। विशेषकर जब नेतृत्व के शिखर की ओर बढ़ते प्रतिभाशाली व्यक्तियों को अदृश्य, लेकिन सशक्त अवरोधों का सामना करना पड़ता है। इन्हीं अदृश्य अवरोधों को “ग्लास सीलिंग” कहा जाता है—एक ऐसी पारदर्शी छत जो दिखती नहीं, लेकिन रोकती जरूर है। “ग्लास सीलिंग सिंड्रोम” उस मानसिक, सामाजिक और संस्थागत संरचना का प्रतिनिधित्व करता है, जो विशेषकर महिलाओं, दलितों, पिछड़े वर्गों, अल्पसंख्यकों और ट्रांसजेंडर समुदाय को नेतृत्व के उच्चतम पदों तक पहुँचने से रोकती है। यह सिंड्रोम कार्यस्थलों, प्रशासनिक संस्थानों, कॉर्पोरेट जगत, शैक्षणिक संरचनाओं और राजनीतिक क्षेत्रों में व्यापक रूप से देखने को मिलता है, जहाँ योग्य और प्रतिबद्ध व्यक्तियों को केवल उनकी सामाजिक पहचान के आधार पर अवसरों से वंचित किया जाता है। यह सामाजिक पूर्वग्रह, पितृसत्तात्मक सोच, जातिगत भेदभाव और सांस्कृतिक रूढ़ियों का सम्मिलित परिणाम है।
यह लेख इस विषय के सामाजिक, संस्थागत, मनोवैज्ञानिक और व्यावसायिक पहलुओं की विस्तृत व्याख्या करता है। साथ ही, यह भी विश्लेषण करेगा कि किस प्रकार ये बाधाएं उत्पन्न होती हैं, किस रूप में सामने आती हैं, और इनके निराकरण हेतु किन प्रभावी उपायों को अपनाया जाना चाहिए। इस लेख का उद्देश्य है—ग्लास सीलिंग सिंड्रोम की परतों को खोलना, इसके प्रमुख कारणों और प्रभावों का विश्लेषण करना, और ऐसे ठोस समाधान प्रस्तुत करना जो एक समावेशी, न्यायपूर्ण और नेतृत्वपरक समाज के निर्माण की दिशा में सहायक बन सकें। क्योंकि जब तक समाज की हर प्रतिभा को नेतृत्व का मंच नहीं मिलेगा, तब तक सच्चे अर्थों में प्रगति, समानता और लोकतंत्र की परिकल्पना अधूरी ही रहेगी।
1. ग्लास सीलिंग सिंड्रोम की अवधारणा और उत्पत्ति
‘ग्लास सीलिंग’ शब्द पहली बार 1978 में मैरिलिन लॉडेन द्वारा प्रयोग में लाया गया। उन्होंने यह शब्द उस समय इस्तेमाल किया जब वे एक पैनल में महिलाओं के करियर विकास पर चर्चा कर रही थीं। यह शब्दबोध आज एक प्रतीक बन चुका है उन अदृश्य सामाजिक व संस्थागत अवरोधों का, जो विशेषकर महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, ट्रांसजेंडर्स और अन्य हाशिए पर खड़े समुदायों को ऊँचे पदों और निर्णयात्मक भूमिकाओं तक पहुँचने से रोकते हैं। WEF वैश्विक स्तर सर्वे के अनुसार 20% से कम महिलाएं व अन्य हाशिए पर बैठे हुए लोग समाज की मुख्य भूमिका में सर्वोच्च्य पदों पर आसीन है। महिलाओं को उनके योग्यता कौशल और दक्षता होने के बावजूद भी उनको मुख्य पदों तक पहुंचने में सामाजिक, सांस्कृतिक और संस्थागत भेदभाव की वजह से शीर्ष पदों तक पहुंचने में बाधा व रुकावट होती है।
2. ग्लास सीलिंग के प्रमुख आयाम
2.1 लैंगिक अवरोध
महिलाओं के प्रति पारंपरिक सोच जैसे “महिलाएं नेतृत्व के लिए नहीं बनीं”, “महिलाएं भावनात्मक होती हैं”, या “परिवार और करियर में से एक को चुनना होगा” — ये सभी सोच ग्लास सीलिंग का हिस्सा हैं।
2.2 जातीय और वर्गीय सीमाएं
भारत जैसे देश में जाति व्यवस्था भी ग्लास सीलिंग का बड़ा आयाम है। अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़े वर्ग और दलित समुदायों के प्रतिभाशाली लोग अक्सर उच्च पदों तक पहुँचने में बाधित रहते हैं।
2.3 धार्मिक व सांस्कृतिक पूर्वग्रह
कुछ समुदायों के प्रति सांस्कृतिक दृष्टिकोण और धार्मिक पहचान के आधार पर पूर्वग्रह उन्हें मुख्यधारा की निर्णयकारी भूमिकाओं से बाहर रखते हैं।
2.4 एलजीबीटीक्यू+ समुदाय की चुनौतियाँ
जेंडर और यौनिकता के आधार पर भेदभाव के कारण एलजीबीटीक्यू+ समुदाय के लोग उच्च प्रशासनिक और औद्योगिक शीर्ष पदों पर पहुंचने से वंचित रह जाते हैं।
2.5 भौगोलिक अवरोध
ग्रामीण, आदिवासी या पिछड़े क्षेत्रों से आने वाले लोग भी शहरी केंद्रित अवसरों और संसाधनों तक पहुँच में पिछड़ जाते हैं।
3. ग्लास सीलिंग के पीछे छिपी मानसिकता
3.1 पितृसत्तात्मक सोच
यह विचारधारा मानती है कि नेतृत्व, अधिकार और निर्णय पुरुषों का विशेषाधिकार है। यह महिलाओं को परंपरागत भूमिकाओं (जैसे पत्नी, माँ, गृहिणी) में ही देखने का आग्रह करती है।
3.2 सामाजिक भूमिकाओं की पूर्वनिर्धारित धारणा
यदि कोई महिला नौकरी करती है, तो उससे अपेक्षा की जाती है कि वह घर की जिम्मेदारियाँ भी बिना शिकायत निभाए। यह दोहरा मापदंड महिलाओं को नेतृत्व भूमिकाओं से दूर करता है।
3.3 आत्मविश्वास और आत्म-संशय की समस्या
जब लगातार किसी वर्ग को यह बताया जाए कि वह नेतृत्व के योग्य नहीं है, तो वह स्वयं भी यह मानने लगता है। यही आत्म-संशय ग्लास सीलिंग को भीतर से भी सशक्त बनाता है।
4. कार्यस्थलों पर ग्लास सीलिंग की उपस्थिति
4.1 वेतन असमानता
समान कार्य के लिए महिलाओं और पुरुषों को भिन्न वेतन दिया जाना एक प्रमुख उदाहरण है।
4.2 प्रमोशन में भेदभाव
निचले और मध्यम स्तरों तक तो महिलाएं प्रगति करती हैं, लेकिन शीर्ष नेतृत्व (C-suite, बोर्ड सदस्य, CEO) तक पहुँचने में उन्हें रोका जाता है।
4.3 अनौपचारिक नेटवर्किंग से बहिष्कार
कॉर्पोरेट संस्कृति में जो ‘ऑफिस नेटवर्किंग’, ‘गोल्फ क्लब’, ‘बॉय्स क्लब’ जैसे अनौपचारिक नेटवर्क हैं, उनसे महिलाओं या वंचित वर्ग को बाहर रखा जाता है।
4.4 मातृत्व और परिवार की जिम्मेदारी
प्रेगनेंसी, मैटरनिटी लीव और बच्चों की देखभाल के कारण महिलाएं कम ‘उपलब्ध’ मानी जाती हैं, जिससे उनकी व्यावसायिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठता है।
5. समाज में ग्लास सीलिंग के प्रभाव
5.1 प्रतिभा की बर्बादी
ग्लास सीलिंग के कारण समाज को उस पूरी प्रतिभा का लाभ नहीं मिल पाता जो किसी महिला या दलित, अल्पसंख्यक व्यक्ति के भीतर होती है।
5.2 मनुष्यता और समानता पर आघात
जब सामाजिक संरचना किसी वर्ग को लगातार सीमित करती है, तो यह मानवाधिकार और समानता की भावना को आघात पहुँचाती है।
5.3 संगठनात्मक क्षमताओं में कमी
प्रतिभाशाली लेकिन वंचित वर्गों को नजरअंदाज करना संगठनों की उत्पादकता और रचनात्मकता को सीमित कर देता है।
6. प्रमुख बाधाएं (Root Causes)
संस्कृतिक पूर्वग्रह महिलाओं और वंचित वर्गों को “कम योग्य” या “कम प्रतिबद्ध” समझना, नीतिगत असमानता प्रमोशन, वेतनमान और लीडरशिप में भागीदारी के स्पष्ट मानकों की कमी शिक्षा और अवसरों में असमानता ग्रामीण और पिछड़े इलाकों की लड़कियाँ उच्च शिक्षा और कॉर्पोरेट क्षेत्र में पहुँचने से वंचित रह जाती हैं प्रेरणा और रोल मॉडल्स की कमी नेतृत्व में अपने जैसे लोगों की कमी, जिससे प्रेरणा नहीं मिलती
7. संभावित उपाय और समाधान
7.1 नीतिगत सुधार
Gender Diversity Policy: सभी संस्थानों में स्पष्ट लैंगिक प्रतिनिधित्व नीति हो।
Equal Pay for Equal Work: वेतन संरचना में पारदर्शिता और समानता हो।
अधिकारिता आधारित भर्ती: जाति, लिंग या धर्म के बजाय योग्यता आधारित चयन।
7.2 शैक्षणिक और कौशल विकास
महिलाओं, दलितों और वंचित वर्गों के लिए नेतृत्व प्रशिक्षण कार्यक्रम, स्कॉलरशिप, और इंटरनशिप कार्यक्रम शुरू किए जाएं।
7.3 प्रेरक वातावरण और रोल मॉडल्स
महिला CEO, दलित IAS अधिकारी, ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता जैसे उदाहरणों को मीडिया और शिक्षा में प्रमुखता दी जाए।
7.4 सकारात्मक कार्रवाई (Affirmative Action)
उच्च पदों में प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए कोटा प्रणाली, प्रोत्साहन नीति, और Mentorship Programs चलाए जाएं।
7.5 कार्यक्षेत्र में लचीलापन (Work-Life Balance)
Remote Work, Childcare Support, और Parental Leave जैसी सुविधाओं से महिलाओं की भागीदारी बढ़ाई जा सकती है।
8. भारत में कुछ प्रेरणादायी उदाहरण
कल्पना चावला अंतरिक्ष महिला वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा, किरण वेदी पहली महिला IPS, किरण मजूमदार शॉ बायोटेक महिला नेतृत्व की मिसाल, डॉ भीमराव अंबेडकर संविधान निर्माता जाति-विरोधी चेतना के पुरोधा, तस्लीमा नसरीन सुप्रसिद्ध लेखिका व नारीवादी, सुश्री मायावती सुप्रसिद्ध राजनेता, बसपा सुप्रीमो व चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री जो प्रदेश की कानून (लॉ एंड ऑर्डर) व्यवस्था व समाजिक न्याय को सुव्यवस्थित कर प्रदेश को समालकर बनाए रखने को जानी जाती है, गौरी सावंत ट्रांसजेंडर कार्यकर्ता तीसरे लिंग के अधिकारों के लिए संघर्ष, आरती मित्तल (IAS) प्रशासन दलित वर्ग की बेटी जो प्रशासनिक शिखर पर पहुँची, प्रो निशी पांडेय सुप्रसिद्ध विख्यात शिक्षाविद व प्रशासनिक जो भारतीय विश्वविद्यालय इतिहास में महिला चीफ प्रॉक्टर के रूप में जानी जाती है जो लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ की पहली महिला चीफ प्रॉक्टर बनी जिन्होंने विश्वविद्यालय से असामाजिक तत्त्वों को खदेड़ कर बाहर का रास्ता दिखाया और वहां शांति, सुरक्षित व शैक्षणिक माहौल बनाया और डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय, आगरा के उच्च पद पर आसीन कुलपति महोदया जिन्होंने अपने मात्र दो वर्ष के कार्यकाल में विश्वविद्यालय की बुनियादी जरूरतों (इंफ्रास्ट्रक्चर और शैक्षणिक माहौल) को सुद्रण किया अराजकता खत्म की अकादमिक सत्र को सुचारूप से सुव्यवस्थित कर विश्वविद्यालय परिवार को एक धागे में पिरोकर NAAC सर्वेक्षण में विश्वविद्यालय को A+ ग्रेड दिलवाकर विश्वविद्यालय का नाम देश व विदेश में रोशन किया जैसे उत्कृष्ट काम कर शहर, समाज, देश व राष्ट्र का नाम रोशन कर रही है। इत्यादि महिलाओं ने ग्लास सीलिंग सिंड्रोम जैसी बाधाओं को तोड़कर समाज की मुख्य भूमिका में अपना किरदार आदा किया और सर्वोच्च्य पदों पर बैठकर अपनी योग्यता कौशल और दक्षता साबित की है जिनके लिए भारतीय समाज और राष्ट्र उनको हमेशा स्मरण रखेगा।
9. तकनीक और डिजिटल प्लेटफॉर्म की भूमिका
फ्रीलांसिंग और स्टार्टअप संस्कृति ने ग्लास सीलिंग को तोड़ने के नए द्वार खोले हैं।
सोशल मीडिया ने marginalized communities को सार्वजनिक रूप से अपनी आवाज़ बुलंद करने का मंच दिया है।
ई-लर्निंग और स्किलिंग प्लेटफॉर्म ने अवसरों की समानता को बढ़ावा दिया है।
“ग्लास सीलिंग सिंड्रोम” केवल एक व्याख्यात्मक शब्द नहीं, बल्कि एक सामाजिक यथार्थ है जो महिलाओं, दलितों, अल्पसंख्यकों, ट्रांसजेंडर्स और अन्य वंचित वर्गों के जीवन में व्याप्त अदृश्य असमानताओं का प्रतीक है। यह उन तमाम बाधाओं की ओर संकेत करता है जो योग्य और प्रतिभाशाली व्यक्तियों को केवल उनके लिंग, जाति, धर्म, या सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण नेतृत्व के सर्वोच्च पदों तक पहुँचने से रोकती हैं। इन अवरोधों का स्वरूप भले ही स्पष्ट न हो, पर उनका प्रभाव गहरा और व्यापक होता है। इस सिंड्रोम का सबसे बड़ा खतरा यह है कि यह न केवल व्यक्तिगत प्रतिभाओं का दमन करता है, बल्कि समाज को भी समावेशी, विविधतापूर्ण और न्यायसंगत नेतृत्व से वंचित करता है। यह नवाचार, न्याय और प्रगति की राह में दीवार बन जाता है। इस दीवार को तोड़ने के लिए नीति-निर्माण, संस्थागत सुधार, सामाजिक जागरूकता, नेतृत्व में विविधता और संवेदनशील शिक्षा अनिवार्य है।
ग्लास सीलिंग सिंड्रोम न तो केवल महिलाओं की समस्या है, न ही केवल कार्यालयों की—यह समाज की गहराई में छिपा हुआ एक ऐसा ढाँचा है जो समानता, स्वतंत्रता और प्रगति की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है। यह एक ऐसी अदृश्य दीवार है जिसे तोड़ना केवल महिलाओं या दलितों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे समाज की नैतिक जिम्मेदारी है। इसके लिए जागरूकता, शिक्षा, नीति, नेतृत्व और मानसिकता—इन सभी स्तरों पर परिवर्तन की आवश्यकता है। अंततः, जब तक हम समाज में नेतृत्व को केवल विशेष वर्गों तक सीमित मानते रहेंगे, तब तक समावेशी लोकतंत्र और समानता की भावना अधूरी रहेगी। ‘ग्लास सीलिंग’ को तोड़ना मात्र एक लैंगिक या वर्गीय संघर्ष नहीं, बल्कि एक नैतिक, वैचारिक और मानवीय क्रांति है — जो एक ऐसे भविष्य की ओर ले जाती है जहाँ नेतृत्व किसी की पहचान से नहीं, उसकी योग्यता, दृष्टि और कर्तव्यपरायणता से तय होगा। यह समय है कि हम मिलकर उस अदृश्य छत को चकनाचूर करें और एक न्यायपूर्ण, समतामूलक और विकसित भारत की दिशा में आगे बढ़ें। नेतृत्व के शिखर तक पहुँचने की राह तब ही आसान होगी जब हम मिलकर उस अदृश्य छत को तोड़ने का साहस दिखाएँ। ‘ग्लास सीलिंग’ के टूटने का अर्थ होगा—एक समरस, न्यायपूर्ण और समतावादी समाज की ओर सशक्त कदम।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा