“संविधान दिवस 2025: न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की मूल्य-व्यवस्था का वर्तमान संदर्भ”
डॉ प्रमोद कुमार

भारत का संविधान केवल एक विधिक दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक जीवंत सामाजिक अनुबंध है, जो करोड़ों भारतीयों की आकांक्षाओं, संघर्षों, सपनों और संकल्पों का सार है। 26 नवंबर 1949 को जिस संविधान को अंगीकृत किया गया था, वह आज 2025 में भी उतनी ही प्रासंगिकता, प्रेरणा और मार्गदर्शन प्रदान करता है, जितना स्वतंत्र भारत के प्रारंभिक दिनों में करता था। संविधान दिवस 2025 केवल उस ऐतिहासिक क्षण का स्मरण भर नहीं है जब एक राष्ट्र ने आधुनिकता, लोकतंत्र और मानव गरिमा के पथ पर चलने की प्रतिज्ञा की थी, बल्कि यह उन आधारभूत मूल्यों का पुनर्पाठ भी है जिन पर यह राष्ट्र खड़ा है—न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व। ये मूल्य मात्र शब्द नहीं हैं, बल्कि भारतीय जीवन की दिशा तय करने वाले सार्वकालिक सिद्धांत हैं। वर्तमान भारत जिन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलावों से गुजर रहा है, उनमें इन मूल्यों की परीक्षा भी हो रही है और इनका महत्व और बढ़ गया है। अतः 2025 के संदर्भ में संविधान की मूल भावना को समझना, उसके आदर्शों को जीना और उन्हें व्यवहार में लागू करना समय की कठोर मांग बन चुकी है।
आज का भारत एक ऐसे संक्रमणकाल से गुजर रहा है जहाँ एक ओर अभूतपूर्व तकनीकी प्रगति, वैश्वीकरण, डिजिटलीकरण और नवाचार ने जीवन को असाधारण रूप से बदल दिया है, वहीं दूसरी ओर असमानता, ध्रुवीकरण, सामाजिक तनाव, आर्थिक संकुचन, युवाओं की चुनौतियाँ, नैतिक मूल्यों का ह्रास, संस्थागत विश्वसनीयता पर प्रश्न और लोकतांत्रिक संवाद का क्षरण समानांतर रूप से बढ़ा है। यह द्वंद्वात्मक परिस्थिति भारतीय संविधान को फिर से केंद्र में लाती है और याद दिलाती है कि किसी भी राष्ट्र की वास्तविक प्रगति उसके नागरिकों की चेतना, शासन की पारदर्शिता, समाज की संवेदनशीलता और अधिकार-कर्तव्य संतुलन पर निर्भर करती है। इसलिए संविधान दिवस 2025 का महत्व केवल औपचारिक आयोजन तक सीमित नहीं है; यह एक राष्ट्रीय आत्म-मन्थन का अवसर है कि क्या हम न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व की उस पथ-दीप को अब भी जलाए हुए हैं जिसका वादा बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर और संविधान-निर्माताओं ने देशवासियों से किया था।
न्याय भारत के संविधान की आत्मा है—चाहे वह सामाजिक न्याय हो, आर्थिक न्याय या राजनीतिक न्याय। 2025 के भारत में न्याय की धारणा अनेक चुनौतियों से टकरा रही है। सामाजिक न्याय के संदर्भ में जातिगत भेदभाव और सामाजिक वंचना अभी भी ऐसे घाव हैं जो हमें बार-बार संविधान की ओर लौटने को मजबूर करते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, भूमि संसाधनों और अवसरों में असमानता इतनी स्पष्ट है कि समाज के कमजोर तबकों को अब भी समान प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण नहीं मिल पाता। राजनीतिक न्याय का वास्तविक अर्थ तभी पूरा होता है जब प्रत्येक नागरिक अपनी आवाज़ को प्रभावपूर्ण तरीके से लोकतांत्रिक तंत्र तक पहुँचा सके, परंतु राजनीति में धनबल, बाहुबल और सांप्रदायिकता का प्रभाव लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करता है। आर्थिक न्याय की चुनौतियाँ और भी गंभीर हैं—आर्थिक असमानता बढ़ी है, बेरोजगारी चिंताजनक है, ग्रामीण-शहरी खाई विस्तारित हुई है, और विकास के लाभ समान रूप से वितरित नहीं हो पा रहे। संविधान दिवस 2025 हमें याद दिलाता है कि न्याय का अर्थ केवल अदालतों में फैसले पाना नहीं, बल्कि समाज की संरचना को इस प्रकार बनाना है कि हर व्यक्ति के साथ आदर, अवसर और समानता का व्यवहार हो। यह तभी संभव है जब शासन व्यवस्थाएँ पारदर्शी हों, नीति-निर्माण लोकहित में हो और नागरिक भी नैतिक संवेग से प्रेरित होकर समानता और न्याय की रक्षा करें।
स्वतंत्रता संविधान की वह धुरी है जिसने भारतीय नागरिकों को भय, भेदभाव, दमन और अधीनता से मुक्त होकर जीने का अधिकार दिया। परंतु स्वतंत्रता का अर्थ अराजकता नहीं, बल्कि संयमित स्वातंत्र्य है जिसमें नागरिक का अधिकार दूसरे नागरिक की गरिमा को आहत न करे। 2025 के संदर्भ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, विचारों की स्वतंत्रता, धर्म की स्वतंत्रता, जीवन और निजता का अधिकार विशेष रूप से विमर्श के केंद्र में हैं। डिजिटल युग ने अभिव्यक्ति को पहले से कहीं ज्यादा विस्तार दिया है, परंतु इसके साथ ही सूचना की विश्वसनीयता, फेक न्यूज, अफवाहों का प्रसार, ट्रोलिंग और साइबर अपराधों ने स्वतंत्रता को एक नए संकट में डाल दिया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन और सामाजिक मीडिया का दुरुपयोग दोनों ही लोकतंत्र की सेहत के लिए खतरा हैं। इसी प्रकार, व्यक्तियों की निजता का अधिकार तकनीकी हस्तक्षेपों और डेटा उपयोग की अनियंत्रित व्यवस्था के कारण चुनौतीपूर्ण हो गया है। संविधान दिवस 2025 स्वतंत्रता की इस जटिलता पर पुनर्विचार का समय है कि स्वतंत्रता तब ही पवित्र रह सकती है जब वह जिम्मेदारी, मर्यादा और सत्य पर आधारित हो। राष्ट्र की स्वतंत्रता तभी सार्थक होती है जब नागरिक स्वतंत्र होकर सोच सकें, प्रश्न पूछ सकें, आलोचना कर सकें और नवाचार कर सकें—बिना किसी भय के, बिना किसी दमन के।
समता भारतीय लोकतंत्र के पवित्रतम स्तंभों में से एक है। संविधान की प्रस्तावना और मूल अधिकार समता को केवल अवसरों तक सीमित नहीं रखते बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में समान गरिमा और समान व्यवहार की मांग करते हैं। 2025 के भारत में समता की अवधारणा अभी भी अनेक क्षेत्रों में चुनौतीग्रस्त है—लिंग असमानता, जाति आधारित भेदभाव, आर्थिक विभाजन, शिक्षा की असमान पहुँच, ग्रामीण-शहरी अंतर और विकलांगजनों के अधिकारों की उपेक्षा समाज को कमजोर करती है। लिंग समानता आज का सबसे बड़ा प्रश्न बनकर सामने है; महिलाएँ शिक्षा और कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ रही हैं, किंतु सुरक्षा, वेतन समानता और प्रतिनिधित्व की कमी आज भी मौजूद है। जातिगत असमानता संविधान के बावजूद आज भी कई रूपों में जीवित है, जो सामाजिक समरसता के मार्ग में बाधा है। आर्थिक असमानता तो इतनी तीव्र है कि समाज दो ध्रुवों में विभाजित होता प्रतीत होता है—एक ओर ऐश्वर्य, दूसरी ओर अभाव। संविधान दिवस 2025 इस विमर्श को आगे बढ़ाने का अवसर है कि जब तक समता व्यवहार, नीति और दृष्टिकोण में वास्तविक रूप से स्थापित नहीं होगी, तब तक भारत के विकास का आधार अधूरा रहेगा। वास्तविक समता वह है जिसमें व्यक्ति किसी भी परिस्थिति, पृष्ठभूमि या पहचान की परवाह किए बिना समान अवसर, समान सम्मान और समान अधिकार का अधिकारी हो।
बंधुत्व भारतीय संविधान का सबसे अनूठा मूल्य है, जो इसे विश्व के अन्य संविधानों से अलग करता है। बंधुत्व केवल प्रेम या भाईचारे की सामान्य अवधारणा नहीं, बल्कि यह सामाजिक एकता, राष्ट्रीय एकात्मता और मानवता की गहरी भावना पर आधारित है। 2025 के भारत में बंधुत्व की परीक्षा लगातार होती रही है। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र और राजनीतिक विचारधाराओं के आधार पर समाज में बढ़ती दूरी, ध्रुवीकरण और वैमनस्य इस मूल्य-व्यवस्था को कमजोर करते हैं। बंधुत्व की वास्तविक चुनौती यह है कि आधुनिक जीवनशैली, प्रतियोगिता और राजनीति के कारण समाज में संवेदना का ह्रास हो रहा है। युवा पीढ़ी अवसरों की दौड़ में आगे बढ़ रही है, परंतु समाज के कमजोर वर्ग पीछे छूटते जा रहे हैं। डिजिटल संसार ने सोशल कनेक्टिविटी को बढ़ाया है, परंतु मानवीय संवेदना को घटाया है। ऐसे समय में संविधान दिवस 2025 हमें यह स्मरण कराता है कि बंधुत्व केवल कानूनी अपेक्षा नहीं, बल्कि यह भारतीय समाज की पहचान और आत्मा है। यदि बंधुत्व मजबूत हो, तो विभाजन, हिंसा, घृणा और भेदभाव स्वतः नष्ट हो जाते हैं। बंधुत्व यह सिखाता है कि राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमा नहीं, बल्कि भावनात्मक एकता से संचालित होता है।
इन चार मूल्यों—न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व—का वर्तमान संदर्भ केवल सैद्धांतिक नहीं है, बल्कि व्यवहारिक है। भारत का भविष्य इन मूल्यों की रक्षा और अनुपालन पर निर्भर करता है। शिक्षा को इन मूल्यों के अनुरूप बनाने की आवश्यकता है ताकि बच्चों में मानवीय संवेदना, नैतिकता, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और लोकतांत्रिक चेतना विकसित हो सके। शासन तंत्र को भी अपने दायित्वों का निर्वाह पारदर्शी एवं जवाबदेह तरीके से करना होगा ताकि नागरिकों का विश्वास मज़बूत हो। मीडिया को अपने नैतिक कर्तव्यों का पालन करना होगा ताकि जनमत निष्पक्ष सूचना पर आधारित हो, न कि भ्रम या सनसनी पर। समाज को भी अपने भीतर मौजूद पूर्वाग्रहों, भेदभावों और संकीर्णताओं को त्यागकर समरसता की ओर बढ़ना होगा।
संविधान दिवस 2025 हमें केवल इतिहास का स्मरण नहीं कराता, बल्कि भविष्य के मार्ग भी दिखाता है। यह दिवस हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम संविधान की आत्मा को बचाए हुए हैं? क्या हम वे नागरिक हैं जिनकी कल्पना संविधान-निर्माताओं ने की थी? क्या हमारे कार्य, विचार और व्यवहार संविधान के आदर्शों को मजबूत करते हैं या कमजोर? इस आत्ममंथन से ही संविधान दिवस सार्थक बनता है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि 2025 का भारत अपने संविधान से दूर नहीं, बल्कि उससे और अधिक करीब आने की आवश्यकता महसूस कर रहा है। न्याय तभी पूर्ण है जब वह सबके लिए सुलभ हो; स्वतंत्रता तभी महान है जब वह सबको समान अवसर दे; समता तभी वास्तविक है जब वह जीवन के हर क्षेत्र में दिखाई दे; और बंधुत्व तभी शाश्वत है जब समाज के भीतर करुणा और संवेदना जीवित हों। संविधान दिवस 2025 इन मूल्यों को नए युग के संदर्भ में समझने, अपनाने और लागू करने का राष्ट्रीय अवसर है—एक ऐसा अवसर जो हमें याद दिलाता है कि राष्ट्र की शक्ति उसकी सेना, तकनीक या अर्थव्यवस्था में नहीं, बल्कि उसके संविधान और उसे जीने वाले नागरिकों की चेतना में निहित होती है। भारत तभी विकसित, समृद्ध, शांतिपूर्ण और न्यायपूर्ण बनेगा जब उसका प्रत्येक नागरिक संविधान के इन चार स्तंभों को अपने जीवन का आधार बना ले। यही संविधान दिवस का सार है—अतीत का स्मरण, वर्तमान की जागरूकता और भविष्य की दिशा का संकल्प।

डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा



