“भीमराव रामजी आंबेडकर जी को बौद्ध सत्य, भारतरत्न, आधुनिक भारत के निर्माता व भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर बनाने में उनकी अर्दांगिनी माता रमाबाई जी का अमूल्य सहयोग, समर्पण, त्याग, प्रेम और बलिदान”
डॉ. प्रमोद कुमार

भारतीय इतिहास में डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर एक ऐसी विभूति हैं, जिन्होंने सामाजिक न्याय, समानता और मानवाधिकारों की लड़ाई को एक नई दिशा दी। लेकिन जब हम डॉ. आंबेडकर के संघर्षों और उपलब्धियों की बात करते हैं, तो एक नाम अक्सर पृष्ठभूमि में रह जाता है—उनकी धर्मपत्नी रमाबाई आंबेडकर। रमाबाई न केवल एक पत्नी थीं, बल्कि एक सच्ची जीवनसंगिनी, प्रेरणा और बलिदान की प्रतिमूर्ति थीं। भारत के सामाजिक क्रांति के अग्रदूत, संविधान निर्माता, और दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव रामजी आंबेडकर का जीवन प्रेरणा और संघर्ष से परिपूर्ण रहा है। उन्होंने अपने जीवन में जो ऊँचाइयाँ प्राप्त कीं, वह केवल उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा का परिणाम नहीं थी, बल्कि इसके पीछे उनके जीवनसाथी रमाबाई का मौन बलिदान, असीम प्रेम और अथाह सहनशीलता भी छुपी हुई थी। डॉ. आंबेडकर ने जीवनभर सामाजिक विषमता, अस्पृश्यता, जातीय भेदभाव, और अन्याय के विरुद्ध संघर्ष किया। लेकिन जब वह विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त कर रहे थे, जब वे राजनैतिक व सामाजिक आंदोलनों में व्यस्त थे, तब उनके पीछे एक स्त्री थी, जो निस्वार्थ भाव से सब कुछ सहकर भी उन्हें आगे बढ़ने का समर्थन दे रही थी—वह थीं रमाबाई आंबेडकर। इस लेख में हम जानेंगे कि किस प्रकार रमाबाई ने अपने प्रेम, त्याग और सहयोग से भीमराव को “भीमराव रामजी आंबेडकर जी को बौद्ध सत्य, भारतरत्न, आधुनिक भारत के निर्माता व भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर” बनने में अमूल्य योगदान दिया।
1. रमाबाई: साधारण जीवन की असाधारण स्त्री
रमाबाई का जन्म 1897 में महाराष्ट्र के वानंद गांव (रत्नागिरी जिले) में एक अत्यंत निर्धन मातंग परिवार में हुआ था। उनके पिता भिकू धोत्रे एक मजदूर थे। रमाबाई के जीवन की शुरुआत ही कठिनाइयों से हुई थी। उनके माता-पिता का देहांत बचपन में ही हो गया और उन्हें अपने भाइयों के साथ जीवन-निर्वाह के लिए मुंबई की गलियों में भिक्षाटन तक करना पड़ा।
यह वह समय था जब समाज स्त्रियों को शिक्षा तो दूर, स्वतंत्र सोच तक की अनुमति नहीं देता था। ऐसे में रमाबाई की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं हुई, लेकिन जीवन ने उन्हें हर तरह की शिक्षा दी—सहनशीलता की, त्याग की, सेवा की, और सबसे बढ़कर, प्रेम की।
2. विवाह और जीवन का आरंभ
भीमराव और रमाबाई का विवाह 1906 में हुआ, जब भीमराव मात्र 15 वर्ष के थे और रमाबाई 9 वर्ष की। यह विवाह परिवार की परंपरा और सामाजिक स्थिति के अनुसार हुआ था, लेकिन यह संबंध जीवनभर का साथ बन गया।
विवाह के बाद रमाबाई का जीवन एक साधारण पत्नी का नहीं था, बल्कि उन्होंने अपने पति के संघर्ष और सपनों को अपने जीवन का ध्येय बना लिया। उस समय भीमराव पढ़ाई कर रहे थे, और धीरे-धीरे उच्च शिक्षा की ओर बढ़ रहे थे। रमाबाई ने घरेलू जिम्मेदारियों को पूर्ण निष्ठा से निभाते हुए उन्हें पढ़ाई में संपूर्ण सहयोग दिया।
3. संघर्ष के दिन और रमाबाई की भूमिका
डॉ. आंबेडकर का जीवन संघर्ष से भरपूर रहा। अछूत समझे जाने के कारण उन्हें स्कूल में भेदभाव सहना पड़ा। उच्च शिक्षा के लिए जब वह बॉम्बे विश्वविद्यालय गए और फिर विदेश गए, तब उनके पास सीमित साधन थे। ऐसे समय में रमाबाई ने परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाई।
जब डॉ. आंबेडकर 1913 में अमेरिका की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने गए, तब रमाबाई अकेली थीं। उन्हें ना ही शिक्षा प्राप्त थी, ना ही कोई सामाजिक समर्थन। उन्होंने अनेक कठिनाइयों का सामना किया—गरीबी, अकेलापन, बच्चों की देखभाल, सामाजिक उपेक्षा, बीमारी—परंतु उन्होंने कभी अपने पति की पढ़ाई में बाधा नहीं बनने दी।
वह सच्चे अर्थों में गृहलक्ष्मी थीं—जो अंधकारमय परिस्थिति में भी दीप बनकर परिवार को रोशन रखती है।
4. पारिवारिक पीड़ा और मातृत्व का संघर्ष
रमाबाई और डॉ. आंबेडकर के पाँच संतानें हुईं, परंतु चार बाल्यकाल में ही काल कवलित हो गए। केवल एक पुत्र—यशवंत आंबेडकर ही जीवित रहे। यह पीड़ा रमाबाई के लिए अत्यंत वेदनादायक थी, परंतु उन्होंने कभी हार नहीं मानी।
जब-जब कोई संतान खोई, उन्होंने अपने दुःख को अपने भीतर समेटकर डॉ. आंबेडकर को संबल दिया। उन्होंने उन्हें कभी यह अनुभव नहीं होने दिया कि घर में कोई दुख या संकट है। यह स्त्री की वह भूमिका है जो अक्सर इतिहास के पन्नों में नहीं लिखी जाती, परंतु वह इतिहास बनाने वालों की आत्मा में बसती है।
5. विदेश में भीमराव और भारत में रमाबाई: दो ध्रुवों की साझेदारी
1916 में डॉ. आंबेडकर इंग्लैंड गए। वहीं से उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में प्रवेश लिया और बार-एट-लॉ की पढ़ाई भी शुरू की। इस लंबी अवधि में रमाबाई ने मुंबई के एक छोटे से कमरे में अपने बेटे और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अत्यंत कठिनाइयों में जीवन बिताया।
उनके पास इतने साधन नहीं थे कि नियमित पत्र-व्यवहार कर सकें, फिर भी उन्होंने डॉ. आंबेडकर को पढ़ाई पूरी करने की प्रेरणा दी। जब कई बार आंबेडकर भारत लौटने का विचार करते, तो रमाबाई ही उन्हें समझातीं कि “आपका पढ़ना पूरा होना ही हमारा सुख है।”
6. प्रेम जो त्यागमय था
रमाबाई का प्रेम केवल भावनात्मक नहीं था, वह पूर्ण समर्पण था। जब भीमराव सार्वजनिक जीवन में सक्रिय हुए, दलित आंदोलन में जुटे, और राजनीतिक व सामाजिक मोर्चों पर लड़ाई लड़ रहे थे, तब रमाबाई ने उन्हें मानसिक संबल दिया।
उनका यह प्रेम किसी अधिकार, प्रदर्शन या मान्यता की अपेक्षा नहीं करता था। वह जानती थीं कि उनके पति का कार्य समूचे समाज के लिए है, और इसी को उन्होंने अपना जीवन लक्ष्य बना लिया।
7. बीमारी, उपेक्षा और अंतिम समय
रमाबाई जीवन के अंतिम वर्षों में अत्यंत अस्वस्थ रहीं। गरीबी, पोषण की कमी, तनाव और लंबे समय तक अकेलापन उनके स्वास्थ्य को लगातार कमजोर करता गया। डॉ. आंबेडकर ने कई बार चिकित्सा की व्यवस्था की, लेकिन उस समय भारत में दलित परिवारों को उचित स्वास्थ्य सुविधाएं भी सुलभ नहीं थीं।
1935 में रमाबाई का निधन हुआ। वह केवल 37 वर्ष की थीं। डॉ. आंबेडकर इस दुख से भीतर तक टूट गए। उन्होंने रमाई की स्मृति में गहरे शब्दों में अपना दुःख व्यक्त किया—“मेरे जीवन की असली शक्ति रमाई थी। उसने जो सहा, उसे कोई नहीं जानता। वह न होती तो मैं कुछ नहीं होता।”
8. रमाबाई की प्रेरणा डॉ. आंबेडकर के निर्णयों में
डॉ. आंबेडकर ने रमाबाई के निधन के बाद भी उन्हें कभी भुलाया नहीं। जब उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार करने का निर्णय लिया, तो उन्होंने यह स्पष्ट किया कि उनके इस निर्णय में रमाई की वेदना और अपमानों की स्मृति है। वह नहीं चाहती थीं कि उनका कोई भी प्रिय अस्पृश्यता का जीवन जिए।
रमाई की सहनशीलता और जीवन संघर्ष डॉ. आंबेडकर के निर्णयों को नैतिक बल देते रहे। संविधान निर्माण, सामाजिक सुधारों, और कानूनों में नारी-सशक्तिकरण की वकालत में कहीं न कहीं रमाबाई की पीड़ा और संघर्ष की छाया थी।
9. समाज में रमाबाई की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन
इतिहास ने डॉ. आंबेडकर को सही रूप से स्थान दिया, लेकिन रमाबाई का नाम बहुत पीछे रह गया। आज जब हम स्त्री शक्ति की बात करते हैं, तब रमाबाई को उस स्तंभ के रूप में देखने की आवश्यकता है जो हर पुरुष के पीछे खड़ी होती है, परंतु स्वयं कभी आगे नहीं आती।
रमाबाई एक शिक्षित स्त्री नहीं थीं, लेकिन उनका जीवन स्वयं एक शिक्षा है—सहनशीलता की, त्याग की, और प्रेम की। उन्हें “रामाई” कहकर सम्मानित किया जाना उनके योगदान का लघु परिचय है।
10. निष्कर्ष: एक प्रेरणा जो अमर है
भीमराव रामजी आंबेडकर जी को “बौद्ध सत्य, भारतरत्न, आधुनिक भारत के निर्माता व भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर” बनने की कहानी केवल उनकी प्रतिभा और संघर्ष की नहीं है, बल्कि एक नारी के त्याग, प्रेम और समर्पण की भी है। माता रमाबाई आंबेडकर भारतीय नारी शक्ति का ऐसा उदाहरण हैं, जो हर उस संघर्षशील पुरुष के जीवन में एक अदृश्य लेकिन अडिग शक्ति बनकर रहती हैं। माता रमाबाई जी का योगदान अमर है। उन्होंने न केवल एक बौद्ध सत्य, भारतरत्न, आधुनिक भारत के निर्माता व भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर जी को सफल कामयाब बनाने में योगदान दिया, बल्कि भारत के सामाजिक न्याय आंदोलन की नींव रखने में भी अप्रत्यक्ष रूप से योगदान दिया। उन्हें सादर नमन। माता रमाबाई आंबेडकर जी एक ऐसी स्त्री थीं जिन्होंने कभी मंच नहीं मांगा, ना ही इतिहास में स्थान की अपेक्षा की। फिर भी, वह इतिहास के सबसे महान पुरुषों में से एक को गढ़ने वाली अदृश्य शिल्पकार थीं। अगर रमाबाई ने डॉ. आंबेडकर को घर-परिवार की चिंता से मुक्त नहीं किया होता, अगर उन्होंने अपने दुखों को अपने भीतर समेटकर उन्हें आगे नहीं बढ़ाया होता, तो शायद भारत को अपना संविधान निर्माता इतना महान नहीं मिलता।
आज हमें माता रमाबाई आंबेडकर जी के जीवन से यह प्रेरणा मिलती है कि एक स्त्री, चाहे उसकी शिक्षा कम हो, साधन सीमित हों, परंतु उसका त्याग, प्रेम और धैर्य किसी भी पुरुष को “बौद्ध सत्य, भारतरत्न, आधुनिक भारत के निर्माता व भारतीय संविधान के शिल्पकार बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर” बना सकती है।
माता रामाई आंबेडकर जी के चरणों में सादर प्रणाम।
डॉ प्रमोद कुमार
डिप्टी नोडल अधिकारी, MyGov
डॉ भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय आगरा